भूतल-स्वर्ग-कश्मीर



कश्मीर के बारे में किसी कवि ने सही कहा था- 

‘‘धरती पर यदि कहीं स्वर्ग है

का तो वह यहीं है, यहीं है, यहीं है।‘‘ 

फल-फूल और नैसर्गिक सुषमा से सुशोभित कश्मीर भूतल स्वर्ग माना जाता रहा है। कश्मीर की कल्पना मात्र से एक शोभायुक्त, भूखण्ड हमारी आँखों के सामने लहराने लगता है। भारत का ही नहीं, विश्व का प्रत्येक पर्यटनाभिलाषी अपने जीवनकाल में एक बार अवश्य कश्मीर के सौंदर्य का अवलोकन करने की अभिलाषा रखता है।

मुगल बादशाहों ने तो इस धरती को अपना विश्राम स्थल माना था और इसकी खूबसूरती में चार चाँद लगाने के विचार से अनेक उद्यान लगाये थे। कलहण पंडित ने अपने ‘राततंगिणी‘ ग्रंथ का यहीं पर प्रणयन किया था। आदि शंकराचार्य ने यहीं पर 8वीं शती में ही अपना पीठ स्थापित किया था। इस धरती की अनेक ऐसी खासियतें हैं जिनकी वजह से हर शख्स की जबान पर कश्मीर सौन्दर्य का पर्याय बना हुआ है।

‘काल चक्र‘ गतिशील होता है। दिन के पश्चात रात, सुख के साथ दुःख, उत्थान के साथ पतन, हर्ष के साथ विवाद और वैभव के बाद दारिद्रय-एक सिक्के के दो पहलू बने हुए होते हैं। आज कश्मीर में हो रहे आतंक, नरमेघ, खूनखराबी को देख विश्व का प्रत्येक नागरिक आठ-आठ आँसू बहा रहा है ऐसी हालत में उस धरती पर जन्मे पले-बढ़े, वहाँ की मिट्टी की सोंध को धारण करके जो लोग अपने को भूतल स्वर्ग के निवासी होने का अभिमान करते थे सहसा वहाँ पर विद्वेष की आँधी और प्रतिशोध की अग्नि के लपलपाते शोलों को देख कैसे तड़पते होंगे, इसका अनुमान लगाना नामुमकिन है। 

महा कवि श्री गुलाब खण्डेलवाल के शब्दों में कश्मीर-‘‘स्वर्ग का एक खण्ड है कश्मीर / ज्योर्तिमय मुकुट यह हमारा। / वहाँ की धरती की शोभा देखिए- / सेब के बाग, चिनारों की पाँत / फूल जैसे बसंत की बारात / प्रेम का स्वप्नलोक है कश्मीर / ईद का दिवस, दिवाली की रात।‘‘ 

तो श्री आदिल मंसूरी डल झील को देख व्याकुल हो कराह उठते हैं-उन्हीं के शब्दों में पढ़िये 

‘‘झील का पानी लाल हो गया है? / शबनम का रंग भी लाल हो गया है / श्रीनगर के चैक का / तो नाम ही लाल चैक है / पता नहीं, चैक के नाम के रूप में / किसी की पेशीनगोई रंग लाई है।‘‘

न्यूयार्क में रहने वाली डा. सूषम बेदी ‘‘बारामुला‘‘ का दर्दनाक चित्र प्रस्तुत करती हैं। बारामुला की मीठी यादें उनकी देह को गुदगुदाती हैं, पुल्कित कर देती–

 ‘‘कहती फिरती थी मैं सब को / बड़े फख्र से, हाँ मेरा घर है, वहाँ बारामूला में / मेरी माँ की मीठी याद-जिसमें घुली है- / केसर की क्यारियों की पीली गंध / और...माँ के प्यार से गदगदाती, इठलाती / ...चहकती...महकती हवा।‘‘ 

लेकिन आज उसी हवा से कवयित्री पूछ बैठती है-

“पर यह क्या संदेश लाये हो तुम! / कि हवा में बसी है नरकीली सडांध / कि मीठे पानी के नहीं। / हिंसा और क्रूरता के चश्मे फूटते हैं वहाँ! / केसर की क्यारियों में उगते हैं / मांस, मज्जा और रक्त सनी लाशें / कि झील में खिल आये हैं बारूद के फूल / कि अखरोट और चीड़ों से निकलते हैं / काले दावानल / और लहूलुहान पड़ी है माँ / अपने ही पूतों के दिए जख्मों से। 

‘‘ देखिए कैसा दर्दनाक चित्र खींचा है कवियित्री ने ‘‘बारामूला है जंग का मैदान / मेरी माँ! क्या माँ नहीं  / खून सनें लोथ की गठरी थी बस वहाँ। / कभी घर नहीं जा पाऊँगी मैं।‘‘ 

कल्पना सिंह चिटनिस “कुपवाड़े‘ की भयावह हालत का जिक्र करते हुए अचानक एक रात में घटी दिल दहलाने वाली वीभस्त घटना का दृश्य पेश करती हैं जब कि लोग अपना गाँव, घर धुंधआते चूल्हे और अधपकी रोटियों को छोड़ अपनी जान हथेली पर ले अज्ञात की ओर भाग खड़े थे। इसी तरह की चर्चा करते हुए डा. सुरेशराय बंटवारे की लड़ाई की बात करते हैं-

“जीत-हार की लड़ाई में

जनता बस लाचार हुई।‘‘ 

फिर उस लड़ाई का नतीजा क्या रहा। उन्हीं के शब्दों में सुनिये 

‘‘घर के साये में लाशें / सड़कों पर खूनी फौव्वारे / लड़े गये धर्मयुद्ध, इतिहास गवाही देता है / अनाचार की विजय कथा भी / पन्नों में झांका करता है / पर ऐसी जीते हारी हैं, समय यही बतलाता है / सच्ची जीत वही है जिसमें, जनता में सुख आता है।‘‘

न्यूयार्क में बसी श्रीमती रानी नगिन्दर अपने बचपन की सहेली बनी जेहलम नदी की याद करते हुए कहती हैं- “दरिया-ए-जेहलम, मैं तुम से मुखातिब हूँ / सदियों से तुमने देखे हैं नगर बसते और उजड़ते / देखी है तुमने जंग और तबाही / सच और झूठ की लड़ाई! / जेहलम तुम सभ्यता और इतिहास की गवाही हो, / तुम समय से परे बहते रहे हो / तुम्हारे लिये कुछ भी अजब नहीं / न मौत न जीवन, न शाप न वरदान / आज तुम्हारे किनारों पर उलटे पड़े हैं शिकारे / मुरझाये बासी फूल, लावारिस लाशें!  / तुम बहते रहो, तुम बहते रहोगे / तुम्हारे पानी में अभी बहुत धार है / बेइंसाफी के अंबार हैं... / जब तक समय का इन्साफ न हो जाए / तुम्हें बहते रहना होगा।‘‘ 

आज प्रवासी कश्मीर बंधु ही नहीं, समस्त प्रवासी भारतीय कश्मीर पर बीतते हादसों को देख भारतीय जनता के साथ विहव्ल हो जो आँसू बहा रहे हैं, वे स्याही बनकर उनकी हृदयानुभूतियों के रूप धर कर कलम की नोंक से निसृत हो रहे हैं। अचानक स्वर्ग को नर्क के रूप में पलटते देख वे तिलमिला कर कराह उठते हैं, दहाड़े मार कर अपने दुःख को, व्यथा गाथा, को विलाप को कविता का रूप दे रहे हैं। ऐसी ही कुछ कविताओं का यह संकलन है। 

जहाँ भारत ने समस्त विश्व को एक परिवार की परिकल्पना करके संसार के समक्ष “वसुधैव कुटुंबकम्‘ का आदर्श रखा और जहाँ मानवमात्र को सदा सुखी सम्पन्न यशस्वी बने रहने की कामना करके “सर्वेजना सुखिनो भवन्तु‘‘ का मंत्र फूंका, धरती को माता मानकर उसकी रक्षा के लिये अपना सर्वस्व अर्पित करना अपना धर्म माना, जहाँ जल पीकर अपने शरीर को स्वस्थ रखा, जहाँ की वायु का सेवन करके प्रणवमंत्रों का उच्चारण किया, उसी धरती के पुत्र आपस में धर्म का मर्म समझे बिना अंधविश्वासों के वशीभूत हो लड़ रहे हैं और एक दूसरे का खून पीने के लिये लालायित हैं, जब कि इकबाल जैसे कवियों ने उच्च स्वर में चिल्ला-चिल्ला कर कहा था-

“मजहब नहीं सिखाता, आपस में बैर रखना‘‘ 

हरिवंश राय बच्चन ने धर्मग्रंथ तथा पंडित, फादर व मौलवियों के फंदे में फंसने से बचने की चेतावनी दी थी। नानक, कबीर जैसे महात्माओं ने धार्मिक विद्वेष का खण्डन करके अपनी अमृत तुल्य वाणी के माध्यम से प्रबोध किया था। 

जहाँ केसर, टेसू, पलाश आदि की सुगंध से कश्मीर की सारी घाटियाँ महक उठती थीं वहाँ आज खून की बू नासिका पुटों को बंद करने के लिये विवश कर रही है। लाशों की बदबू से नासिका पुट फटे जा रहे हैं। पिक, शुक, कोयल व मयूरों के सुंदर कलनाद की जगह चीलों व गीदड़ों की कर्कश आवाज़ें कर्णपटों को फाड़े जा रही हैं। इस दर्दनाक और भयावह स्थिति को देख कश्मीर व भारत के कवि पीड़ा से व्यथित होकर आदि कवि बाल्मीकि की भांति अपने शोक को श्लोक या कविता में अभिव्यक्ति दे रहे हैं।

लजियाना के निवासी कवि श्री सुभाष काक अपने मुल्क के निर्वासित होने का संताप व्यक्त करते हुए अपनी धरती, के चित्र और संगीत उसे पुरानी यादें दिलाते हैं। अपने बचपन और यौवन के अल्हड़पन और दिल को लुभाने व गुदगुदाने वाले वे प्रसंग उसे भुलाने की चेष्ठा करने पर भी भुलाये नहीं जाते। अपने गाँव के माहौल और परिसर का चित्र प्रस्तुत करते हुए वे तन्मय हो जाते हैं-उनके अपने शब्दों में पढ़िये 

“पड़ोसन बुलाती है- /मैं चुप हूँ / क्योंकि उसका कड़ा पिता / बरामदे से देख रहा है। / आँगन में अलग चैकों की / सुगंध मिल रही है।‘‘ 

अंत में अपने निर्वासित प्रदेश की महनीयता को उद्घाटित करते हुए वे कह उठते हैं-

“जहाँ से हम निर्वासित हुए हैं / वही सर्वश्रेष्ठ स्वर्ग है।‘‘ 

कैलिफोर्नियां में बस रहे डा. वेद प्रकाश ‘वटुक‘ का मानना है-हम जो मानते हैं उसे करते नहीं। हमारी कथनी और करनी में अंतर आ गया है इसीलिये कश्मीर हमारा होकर भी हमारा नहीं हो पा रहा है।

‘हिमालय के अंक में बसा / स्वर्ग सा सम्मोहन वह नन्दनवन / निष्कलुष / कश्यप ऋषि की तपोभूमि / जिसे सब अपना कहते हैं / जिसकी चाह में रोज / निरीहों के रक्तनद बहते हैं / सबके लिये हो गया है।‘‘ 

आगे कहते हैं

“सच तो यह है दोस्तो / कि जिस कश्मीर को / अपना स्वर्ग मानकर / तुम कर रहे हो-युद्ध पर युद्ध / उसे जीते जी कोई / अपना नहीं सकता क्योंकि / स्वर्ग में कोई  / जीते जी नहीं जा सकता।  / न उन भारतीयों का / जो वहाँ रह नहीं सकते...‘‘

डॉ. अंजना संधीर कश्मीर की सुषमा और उसकी खूबियों का मनमोहक चित्र प्रस्तुत करके अंत में आज की समस्या की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करते हुए सुझाती हैं। इस समस्या का समाधान ढुंढ़ने के लिये प्रेरित करती हैं अपनी कविता ‘‘तुम भी सोचो, हम भी सोचें‘‘ के माध्यम से 

‘‘ये नजारे, ये चीजें सब आज भी वैसी की वैसी हैं / लेकिन-दहशत का जहर इनमें फैल गया है। /केसर के खेतों में सड़ रही हैं लाशें । / गडरियों के गीतों में भर गई हैं आहे / चुभने लगी है चिनारों की छाँव / कोई नहीं आता खुशी से इस गाँव / कि होने लगी है अब यहाँ बंदूकों की खेती / बंटने लगी है अब यहाँ बहू और बेटी / चप्पे-चप्पे में फैली है उदासी / ऐसा तो न था मेरा कश्मीर / किसने चलाए हैं नफरत के तीर / क्यों जलने लगा सारा कश्मीर / तुम भी सोचो, हम भी सोचें / मिलके बनायें एक पक्की जंजीर / फिर से खिलाएँ आशा के फूल / खड़ी करें इसकी वही तस्वीर / तुम भी सोचो, हम भी सोचें।‘‘ 

डॉ. अंजना संधीर एक कुशल कवयित्री होने के साथ प्रखर चिंतक के रूप में हमारे सामने प्रस्तुत हैं। इन्होंने बड़ी दक्षतापूर्वक कश्मीर के परिदृश्यों पर रची कविताओं का संकलन किया है। इस संकलन में संग्रहित प्रायः सभी कविताएँ अपने आप में स्तरीय होने के साथ पाठक को सोचने व समझने के लिये न केवल प्रेरणा देती हैं बल्कि बाध्य करती हैं। 

अपने घर में आग लगी देख किसका दिल नहीं तड़पेगा? इस संग्रह के कवि और कवयित्रियों का देश-प्रेम अभिनन्दनीय है। 

कारगिल के युद्ध को केन्द्रबिन्दु बनाकर हिन्दी में अनेक काव्य-संग्रह और खण्डकाव्य भी प्रकाशित हो चुके हैं परंतु विदेशों में बसने वाले भारतीय कवियों द्वारा कश्मीर पर प्रस्तुत यह पहला काव्य संकलन है। राष्ट्र के प्रति उनके अनुराग का मैं अभिनंदन करता हूँ और इस प्रकार एक संकलन प्रकाशित करने का संकल्प करने वाले कवियों को बधाई देता हूँ। आशा ही नहीं मेरा पूरा विश्वास है कि यह कृति पाठकों के दिलों में कश्मीर की समस्या को सुलझाने के लिए हार्दिक कामना जागृत करने में सफल होगी। 

मैं भी आप लोगों के स्वर में अपना स्वर मिलाना चाहूँगा “भारत का मुकुट है कश्मीर / खूबसूरती का सरताज है कश्मीर / फल-फूलों का अम्बार है कश्मीर / धरती और स्वर्ग का मिलनबिंदु है कश्मीर‘‘ 

‘‘मेरा शहर’, ‘‘जेहलम तुम बहते रहे..’’, ‘‘तुम भी सोचो, हम भी सोचें’’, ‘‘कितनी संधियाँ और करोगे’’, ‘‘कश्मीर’’, ‘‘कुपवाड़े से भागे वे लोग’’ ये कविताएँ ये कश्मीर है पुस्तक से ली गई हैं। 


27 जून 2001

डाॅ. बाल शौरि रेड्डी, अध्यक्ष, तमिलनाडु हिन्दी अकादमी, 
27, वडिवेलुपुरम्, वेस्ट माम्बलम, चैन्नै-600033, भारत

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