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ग़ज़ल

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प्रो. कुलदीप सलिल, दिल्ली, मो. 9810052245 मौसम का रंगए वक्त की रफ़तार देखकर बदला बयान यारों ने दरबार देखकर गहराई जैसे दरिया की मझदार देखकर हम जानते हैं शख्स को किरदार देखकर तुम जा रहे हो रौनके-बाज़ार देखने मैं आ रहा हूँ सूरते-बाजार देखकर रोके कहाँ तलक कोई दिल नामुराद ये मचला है फिर से कूचा-ए-दिलदार देखकर है आसमानों पर नज़र तो खूब आपकी  लेकिन कभी तो नीचे भी सरकार देखकर मुँह तकते हैं हमारा जो दिन-रात, देखना मुँह फेर लेंगे हमको वो इस बार देखकर हम मर रहे थे दर्द की शिद्दत से जब सलिल वो मुतमइन थे हालते-बीमार देखकर।

ग़ज़ल

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  सुश्री किरण यादव, दिल्ली, मो. 98914 26131 आप नज़रों में हमारी इतने क़ाबिल हो गये धीरे-धीर आप अब आदत में शामिल हो गये एक हम हैं जो सदा दिल ही की बस सुनते रहे एक वो जो कह रहे हैं आप बेदिल हो गये ज़िंदगी की उलझनों से जूझ कर जाना है ये प्रश्न थे आसान लेकिन कितने मुश्किल हो गये इक क़दम बस इक क़दम, बस इक क़दम दूरी बढ़ी और फिर आँखों में कितने स्वप्न धूमिल हो गये आपकी आँखों में हमदम! ळमने देखा डूबर ज़िंदगी की नाव के बस आप साहिल हो गये   **** याद फिर से तुम्हारी आई है ज़िंदगी फिर से मुस्कुराई है ज़िंदगी कल भी थी पराई ही ज़िंदगी आज भी पराई है दिल के तारों को यूँ छुआ तुमने मेरी हर साँस झनझनाई है कैसे कह दूँ उसे सरे-महफ़िल बात सीने में जो समाई है जाने किस ओर की हवा है ये साथ ख़ुशबू जो लेके आई है

ग़ज़ल

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सुश्री किरण यादव, दिल्ली, मो. 98914 26131  ख़ुशबुओं का कोई सफ़र दे दे ऐ हवा! डसकी कुछ ख़बर दे दे ज़िन्दगी की अँधेरी गलियों को चाँदनी का कोई नगर दे दे घर को लौट आये मेरा परदेसी इन दुआओं में वो असर दे दे उसके बिन ज़िन्दगी अधूरी है उसको जाकर कोई ख़बर दे दे मुझको हर सिम्त वो नज़र आये ऐ खुदा! मुझको वो नज़र दे दे ****   हाँ मुख़ालिफ़ है तीरगी के वो हक़ में रहता है रौशनी के वो ख़ुद से भी दूर-दूर रहता है इश्क़ में चूर है किसी के वो किससे मिलकर ग़मों को भूला है गीत गाता है अब ख़ुषी के वो फूल जैसा खिला-सा है चेह्रा साथ रहता है किस कली के वो दूरियाँ अब बढ़ेंगी लाज़िम है ख़्वाब लेता है दोस्ती के वो

ग़ज़ल

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सुश्री किरण यादव, दिल्ली, मो. 98914 26131   उठती है ऐ यार! कहीं दिल में इक दीवार कहीं उसका घर है बस्ती में दरिया के उस पार कहीं जी भर कर बातें होंगी मिलना तो इक बार कहीं वो जो बेहद हँसता है टूटा है सौ बार कहीं और कहीं मेरी दुनिया उसका कारोबार कहीं **** तुम जो क़िस्मत बदल गये देखो मुझसे अपने ही जल गये देखो ज़िक्र हर शे’र में तुम्हारा है तुम यूँ देकर ग़ज़ल गये देखो मेरे हर शे’र में तुम्हीं तुम हो तुम ही शे’रों में ढल गये देखो हमपे कैसे हँसेगी अब दुनिया गिरते-गिरते सँभल गये देखो दिल के बाज़ार का चलन तौबा! खोटे सिक्के भी चल गये देखो

दोहे

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सुश्री किरण यादव, दिल्ली, मो. 98914 26131  दोहे चलो पथिक! चलते रहो, रुकें नहीं ये पाँव। रुक जाना तुम बस वहीं, जहाँ नेह का गाँव।। झूठे सब वादे रहे, झूठी हर सौगन्ध। पता चला जब झूठ का, टूट गये सम्बन्ध।। नींदों में घुलते रहे, महके हुए गुलाब। आँख खुली तो उड़ गये, पल में सारे ख़्वाब। राम नाम इतना जपूँ, रखें राम जी पास। भव-बंधन से मुक्ति हो, पूरी हो यह आस।।  उसने मुझको क्या दिया, कैसे रखूँ हिसाब। इक पल तो काँटे मिले, इक पल मिले गुलाब।। जला रखे हैं, आज तक, उन यादों के दीप। सागर-तट से थीं चुनी, जब दोनों ने सीप।। दुनिया भर से कह फिरे, अपने अपने जज़्बात। मगर न कह पाये कभी, उनसे दिल की बात।। रे मन पगले! मान जा, चाह न ये संजोग। अपनापन देंगे कहाँ, खुद में सिमटे लोग।। बुढ़िया बैठी खाट पर, सोचे है दिन-रात। घर भर में सुनता नहीं, कोई उसकी बात।। जैसे फूलों में बसे, हरदम ख़ुशबू साथ थामे रहना तुम सदा, यूँ ही मेरा हाथ सर चढ़कर यूँ बैठ मत, देगा वक़्त उतार वक़्त कभी रखता नहीं पल भर यहाँ उधार वक़्त तुझे समझा रहा, वक़्त ना जाये बीत। रहमत की बरसात है झोली भर ले मीत।। नैया है विश्वास की, जायेगी उस पार। इम्तिहान ले ज़िं

ग़ज़ल

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प्रो. कुलदीप सलिल, दिल्ली, मो. 9810052245 दिन फु़र्सतों के, चाँदनी की रात बेचकर हम कामयाब हो गए जज़बात बेचकर हमने भी पीली कर दिए हैं बेटियों के हाथ थोड़ी-बहुत बची थी जो औक़ात बेचकर मरती है धरती प्यास से, रूंधने लगे गले कुछ लोग मालामाल हैं बरसाल बेचकर सोचा है अब ख़रीद लें कुछ चाँद पर ज़मीन भाई का हिस्सा, बाप के जज़बात बेचकर तुर्रा है सर पे, या कि है दो-चार मन का बोझ रुतबा मिला है, चैन के दिन-रात बेचकर फूले नहीं समा रहे मुख़बिर चमन में आज गुलशन का राज़ दुश्मनों के हाथ बेचकर लगता है अहले-दुनिया को अब पाना है सलिल ओहदा ख़ुदा का आदमी ज़ात बेचकर

अभिनव इमरोज़ मार्च 2023

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*********************************************************************************** श्री देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव,  बस्ती, मो. 7355309428 कविताएँ शहरों में ‘नारी दिवस’... प्रत्येक वर्ष आठ मार्च को  'अंतर्राष्ट्रीय नारी दिवस' मनाया जाता है शहरों में मंचों को सजाया जाता है बड़े-बड़े नेताओं का होता है उद्बोधन मेरे शहर में भी हुआ नारी दिवस का आयोजन मैं भी इस आयोजन में शामिल हुआ मैंने भी महिलाओं के सम्मान में कसीदे गढ़ें उनके अधिकारों की खूब बात कही नारियों को मिले उनके हक की सौगात मैंने भी कहा कि नारियाँ खूब आगे बढ़े महिलाएँ और बेटियाँ चाँद पर चढ़ें खूब तालियां बजीं... शहर की कुछ जागरूक महिलाओं को किया गया सम्मानित उन्हें फूलमाला दिए गए तारीफ के पुल बांध दिए गए उसी दिन बच्चों के साथ मैं अपने गाँव गया मैं और मेरे बच्चे घर में चाची दादी  घर में काम करने वाली काकी से बोले ‘‘नारी दिवस की शुभकामनाएँ‘‘ गाँव में भी कई महिलाओं से नमस्ते कर हमने नारी दिवस की शुभकामनाएँ व बधाईयाँ दी पर गाँव की उन महिलाएँ ‘नारी दिवस‘ का अर्थ समझ ही नहीं सकी पूछी ये क्या होता है ये बचवा ? वो तो अपने चूल्हे चैके,