अभिनव इमरोज़ जुलाई 2022

कविताएँ डायरी-कविता: दो लौट आया हूँ अपने ही शहर से जलावतनी का दर्द लिए तड़पता हुआ जैसे कोई शमशान घाट से लौटा हो मासूम लोगों के कत्लेआम का... ज़िंदा रहने के लिए इस सब का क्या मतलब हो सकता है- एक ज़िंदा शहर की चीर-फाड़, लूटपाट का ‘क्यों तग़ाफुल मुझ से अय अब्रे करम बहरें सखा मैं ही क्यों महरूम तेरे फैजे आलमगीर से’ क्या सब ख़त्म? कुछ नहीं कर सकूँगा क्या? (20 दिसंबर, 2019) कौन बुला रहा? आकाश चुप धरती चुप उतरता अँधेरा समुद्री हिलारें चट्टानों से खेलतीं-टकरातीं टूटती डुबोती आतीं मुझ तक ध्वनियों में लिपटे ध्वनियों के स्पन्दन त्वचा के नीचे रग रग में अंतर्मन तक एक शांत अनुगूँज, चुप्पी की गाँठे बोल रहीं जैसे कौन बुला रहा? साभार: ‘किरदार निभाते हुए’ नरेन्द्र मोहन कविता मर ही क्यों न जाऊँ? शब्दों का इतना तीखा आलोक वर्णन-व्याख्या-व्याख्यान का इतना अंधा शब्दाटोप पिचकी पड़ी सच की जान लहुलूहान क्या करूँ - किसी की जान बचाते हुए मर ही क्यों न जाऊँ, सुजान? पहली बार देख रहा हूँ प्रेम (गूंगे का गुड़ कहते हैं जिसे) को इस कदर बड़बड़ाते एक ही साँस में दुहाई देते, कसमें खाते झूठ का वितान तानते मू