भारतीय साहित्य में अन्तर्निहित जीवन-मूल्य


डा. व्यास मणि त्रिपाठी, पोर्ट ब्लेयर, अण्डमान, मो. 9434286189


भारतीय भाषाओं में सृजित साहित्य की समष्टि भारतीय साहित्य है। इसका परिक्षेत्र कश्मीर से कन्याकुमारी (अब ग्रेट निकोबार का अंतिम भूभाग-इंदिरा प्वाइंट) तक विस्तृत है। चार कोस पर पानी और आठ कोस पर बानी बदल जाने की कहावत की चरितार्थता के परिप्रेक्ष्य में यह अन्दाजा लगाना कठिन नहीं है कि इस व्यापक भूभाग में कितनी भाषाओं और बोलियों का अस्तित्व है। सबका रंग अलग, ढंग अलग, पहचान और स्वभाव अलग फिर भी भारतीयता के गमले में सजकर लगभग एक ही चेतना और भाव से समृद्ध एकात्मकता की सुगन्ध विकीर्ण करने में समर्थ। इन्द्रधनुषी छटा बिखेरने वाला भारतीय साहित्य अपनी आभा से सबको चमत्कृत और आकृष्ट करने में सक्षम है तो इसलिए कि उसमें ऊष्मा, ऊर्जस्वलता तथा मिट्टी की सोंधी सुगन्ध के साथ ही क्षैतिज विस्तार में प्राणिमात्र से जुड़ने की आकांक्षा है। मानवता का कल्याण और विश्व बन्धुत्व की कामना है। इसीलिए भारतीय भाषाओं के साहित्य की अपनी निजी विशेषता के बावजूद उनमें एक ऐसी चेतना की विद्यमानता है जिसमें भारतीयता का रंग है, जीवन-मूल्यों को जीने का ढंग है, आध्यात्मिकता की उड़ान है तथा आत्मा की मुक्ति का विधान है। जिस प्रकार अनेक धर्मों तथा जीवन पद्धतियों और विचारधाराओं के होते हुए भी भारतीय संस्कृति अपनी एकात्मकता के लिए प्रसिद्ध है उसी प्रकार अनेक भाषा और अभिव्यंजना-प्रणालियों की विद्यमानता के बावजूद भारतीय साहित्य में मूलभूत एकता दृश्यमान है। चाहे वैदिक संस्कृत हो या तमिल का संगम साहित्य इनमें संस्कार चेतना और समानता देखी जा सकती है। मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा का विधान देखा जा सकता है।


साहित्य की चिन्ता के केन्द्र में मनुष्य और उसका समाज है। बेहतर मनुष्य और बेहतर समाज की संकल्पना उसका काम्य है। इसकी पूर्णता की कामना मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा के बिना निरर्थक है। सहानुभूति, संवेदना और करूणा आदि ही मानवीय मूल्यों के प्रतिष्ठापक हैं। जीवन में इनका समावेश जीवन-मूल्यों की प्रतिष्ठा है। इनके बिना जीवन की कोई सार्थकता नहीं है। डॉ. जगदीश गुप्त जीवन-मूल्यों को मानवीय मूल्य और मानवीय मूल्यों को भारतीय मूल्य के रूप में देखते हैं - "मैं समझता हूँ कि तत्वतः सभी भारतीय मूल्य मानवीय मूल्य हैं, चाहे वे नैतिक मूल्य हों, चाहे सौन्दर्यपरक मूल्य हों या कोई और, पर विशेष अर्थ में मानव मूल्यों से है, जो मनुष्य के साथ सहज रूप में जुड़े हुए हैं। अतः जीवन में मूल्यों की प्रतिष्ठा का अर्थ मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा है उसके बिना मानव का अस्तित्व निरर्थक है।" (नयी कविता, स्वरूप और समस्यायें, पृष्ठ 15)


भारत बहुजातीय, बहुसांस्कृतिक एवं बहुभाषिक देश है इसलिए यहाँ का साहित्य भी विविधवर्णी है। तमिल, तेलुगू, मराठी, गुजराती, असमिया, बंगला, पंजाबी, कन्नड़, उड़िया, कश्मीरी, हिन्दी आदि में अभिव्यक्त जीवन और समाज भी वैविध्यपर्ण है। इसके बावजूद जिस प्रकार सम्पर्ण भारतवर्ष की आत्मा एक है उसी प्रकार भारतीय साहित्य की आत्मा भी एक है। तमिलनाडु का तमिल भाषी, केरल का मलयालम भाषी, कर्नाटक का कन्नड़भाषी, गुजरात का गुजराती, बंगाल का बंगलाभाषी, पंजाब का पंजाबी, कश्मीर का कश्मीरी, असम का असमिया अपनी संपूर्ण क्षेत्रीय विशिष्टताओं के बावजूद भारतीय हैं और उनके द्वारा रचित साहित्य समस्त भाषा-भेद के उपरांत भी भारतीय साहित्य है। इस भारतीय साहित्य का कलेवर भले ही भिन्न हो लेकिन प्राणतत्व एक ही है। रामायण, महाभारत, पुराण, उपनिषद, स्मृतियाँ, कालिदास, माघ, बाण, भवभूति, शूद्रक, श्रीहर्ष आदि की कृतियाँ, जैन, बौद्ध तथा अन्य धर्मों का साहित्य, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश में रचित ढेरों ग्रंथ भारत की सभी भाषाओं को उत्तराधिकार में मिले हैं। इतना ही नहीं, नाट्यशास्त्र, ध्वन्यालोक, काव्य-प्रकाश, साहित्य दर्पण तथा रसगंगाधर आदि लगभग सभी भारतीय भाषाओं के काव्यानुशासनात्मक ऊर्जा के स्रोत रहे हैं। यही कारण है कि भारतीय भाषाओं में सृजित साहित्य में भावनात्मक समानता का आ जाना अस्वाभाविक नहीं है। दर्शन, साहित्य, प्रथाओं और जीवन के दृष्टिकोण में आधारभूत एकता भारतीयता का वैशिष्ट्य है। इसी विशेषता में भारतीय जीवन-मूल्यों को अवस्थित देखा जा सकता है।


भारतीय साहित्य का आरंभ करूणाजनित है। महर्षि वाल्मीकि का शोक ही श्लोक का रूप धारण करता है -'शोकः श्लोकत्वमागतः। व्याध केवल एक शिकारी का प्रतीक नहीं है बल्कि उस निर्दयता का प्रतीक है जो प्रेमी युगल को भी अपनी निष्ठुरता से आक्रान्त करता है। यह निष्ठुरता एक विरागी को भी विचलित करती है और उसके मुख से शापमयी कविता का जन्म होता है- 'मा निषाद प्रतिष्ठामः/त्वमागमःशाश्वती समा/यत्क्रौंचमिथुनादेकं/अवधी काममोहितं। "यहां से ही साहित्य में जीवन-मूल्यों की रूप रेखा तैयार होती है और इसके व्यापक परिपेक्ष्य में मूल्यान्वेषी तथा मर्यादावादी रामचरित वाला आख्यान महाकाव्य के रूप में जीवनादर्श बनता है। कहना न होगा कि वाल्मीकि रामायण तत्कालीन समाज का दस्तावेज बनकर हमारे सामने आता है जिसमें सद-असद दोनों प्रवृत्तियों की उपस्थिति देखी जा सकती है। जहाँ मानव-महिमा का श्रेष्ठत्व आकारित है वहीं राक्षसत्व की पराकाष्ठा भी है लेकिन विचारों की द्वन्द्धात्मकता में आदर्शवादिता की जीत होती है। जीवन में आदर्शों और मूल्यों को अपनाने वाला विजयी होता है। आने वाली पीढ़ी का वह रोल मॉडल भी बनता है। यही कारण है कि भारत की सभी भाषाओं में रामायण का अनुवाद और पुर्नरचना होती है। तमिल में कंबरामायण, तेलुगू में रंगनाथ-रामायण, कन्नड़ में पंप रामायण, मलयालम में एजुत्तच्चन की अध्यात्म रामायण, मराठी में मोरोपंत की रामकथा, बंगला में कृतिवास-रामायण, असमिया में माधव कंदलि की रामायण, उड़िया में सारलादास की विलंका-रामायण तथा बलरामदास की रामायण और हिन्दी में रामचरित मानस उन्हीं जीवन-मूल्यों की स्थापना के व्यापक अंग हैं।


साहित्य अगर जनता की चित्तवृत्ति का संचित कोश है तो जनमानस में विराजमान सभी तत्व साहित्य के केन्द्रक हैं। कहना न होगा कि भारतीय जनमानस धर्म अनुप्राणित है। इसीलिए जीवन जीने के धर्म आधारित नियमों को भी भारतीय साहित्य में जीवन मूल्य के रूप में अभिव्यक्ति मिली है। वर्तमान समय में धर्म को चाहे जिस रूप में देखा जाय लेकिन वास्तविक रूप में व्यष्टि और समष्टि द्वारा कल्याणार्थ धारित नियम ही धर्म है -'धार्यते इति धर्मः'। मनुस्मृति में वेद, स्मृति, सदाचार और आत्मानाम प्रियः को धर्म के स्रोत कहा गया है। मीमांशादर्शन में आवश्यक कर्म, वैशेषिक दर्शन में पारलौकिक कल्याण, बौद्ध दर्शन में आर्य सत्य और अष्टांगिक मार्ग को धर्म माना गया है। इससे यह स्पष्ट है कि आचरण में शामिल जीवन के श्रेष्ठ नियम धर्म के अन्तर्गत आते हैं। कहा गया है कि -"धृति, क्षमा, दमोस्तेयं, शौचमिन्द्रिय निग्रहः/धीर्विद्या सत्यमक्रोधी दशक धर्मलक्षणः।" वास्तव में ये ही जीवन-मूल्य हैं और इनको आचरण में उतारना मूल्यों को भारतीय साहित्य में प्रत्यक्ष-अप्रत्क्ष रूप में इन मूल्यों की भरपूर वकालत की गई है। बहुत से मानवीय मूल्य पुराणों और धार्मिक कथाओं से उपजे हैं जिनकी व्याप्ति लगभग सभी भारतीय साहित्य में है। रामायण और महाभारत के जो अनुवाद अथवा पुनर्रचनायें भारतीय भाषाओं में हुई हैं उनमें निहित मानवीय मूल्यों का प्रसार व्यापक स्तर पर देखा जा सकता है। इन दोनों उपजीव्य काव्यों के कुछ विशेष प्रसंगों अथवा पात्रों का पुनराख्यान आज तक हो रहा है और आगे भी होगा तो सिर्फ इसलिए कि महाकाव्यकालीन जीवन-मूल्य वर्तमान सन्दर्भ में भी सार्थक और प्रासंगिक हैं। महाभारत जिस चेतना के साथ अपने समकाल को प्रस्तुत करता है उसी आधार पर वह अपने समय तथा समाज का इतिहास भी है तथा सद्-असद् वृत्तियों का कथात्मक दस्तावेज भी। 'यन्न भारते तन्न भारते' द्वारा शेखी बघारने का कार्य नहीं हुआ है बल्कि महाभारत की वह परम वास्तविकता है। अधर्म पर धर्म की जीत दिखाना जीवन-मूल्यों की स्थापना का प्रयास करना ही है।


सिद्धों, जैनों और नाथों ने अपनी साधना, संदेश और रचनाओं द्वारा भारतीय भाषाओं और उनके साहित्य को काफी गहरायी तक प्रभावित किया है। सिद्ध साहित्य में अनियंत्रित वामाचार के विकृत बाह्य स्वरूप के भीतर भी जनमानस अलौकिक एवं मनीषी मन आध्यात्मिक रहस्यगी अंतः सूत्रों का अनुसंधान करता रहा तथा चौरासी सिद्धों की परिकल्पना जनमानस को स्पंदित करती रही। बौद्ध दर्शन के मूल में अन्तर्निहित शून्यता क्रमशः ज्ञान एवं करूणा से युक्त होकर दार्शनिक मेधा के लिए निर्वाण तथा लोकजीवन के लिए भौतिक लौकिक सिद्धियों की प्राप्ति का माध्यम बन गई। कहना न होगा कि शैव, शाक्त एवं कापालिक तान्त्रिक सिद्धान्तों एवं गुह्य साधनाओं के संपर्क-संघर्ष से सिद्ध साहित्य का लोकक्षेत्र अधिक व्यापक हो उठा। तमिल साहित्य का प्रबंध काव्य 'मणि मेखलै' में बौद्ध सिद्धान्तों की विशद व्याख्या मिलती है। इसमें दूसरी या तीसरी सदी की धार्मिक और सामाजिक परिस्थितियों का भी वर्णन है। प्राचीन बंगला साहित्य का चर्यापद बौद्ध सिद्ध आचार्यों द्वारा विरचित है। इसे 'बौद्धगान ओ दोहा' भी कहा जाता है। इसका विषय निर्वाण प्राप्ति के लिए सम्प्रदाय विशेष में सीमित गुह्य तंत्र और योग से संबंधित होता था। यहाँ यह स्मरणीय है कि चर्यागीतों ने आगे चलकर बंगला वैष्णव कविता को यत् किंचित प्रभावित किया था। वैष्णव सहजिया सम्प्रदाय में कायिकता को केन्द्र में रखकर अनन्त प्रेम और शाश्वत आनन्द की सिद्धि को महत्व दिया गया है। सिद्धों ने माया-मोह का विरोध तथा सहज जीवन को परम सुख प्राप्ति का मार्ग माना था।


आचरण की आदर्शमूलकता को वाणी के माध्यम से प्रकट कर उसे भारतीय व्याप्ति देने में नाथपंथियों की कोई बराबरी नहीं है। योग, ज्ञान, वैराग्य, शील, संतोष, सद्भाव आदि के उनके पदों की अनुगूंज सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में सुनाई पड़ती है। ब्रह्म, जीव, जगत, माया, कर्म, ज्ञान, भक्ति आदि का वे जिस प्रकार निरूपण करते हैं उसका प्रभाव भक्ति आन्दोलन पर साफ दिखाई देता है। उन्होंने जीव हिंसा, मांस भक्षण एवं मद्यपान आदि को समाज विरोधी तथा साधना मार्ग के विरोधी तत्व के रूप में परिगणित किया। गोरखनाथ जीवन जीने की कला सिखाते हए कहते हैं-"गोरख कहै सण हँ रे अवध जग में ऐसे रहण/आँखे देखिबा कानै सुनिण मुखते कछु न कहण।" गोरखवाणी भारतीय जीवन-मूल्यों की संवाहिका है। गोरख की तरह कबीर भी आत्मानुभव पर जोर देते हैं- 'तू कहता कागद की लेखी/हौं कहता आँखिन की देखी।' उनके उपदेशों में भी विधि और निषेध दोनों पक्षों का समन्वय हुआ है। दया, क्षमा, संतोष, परोपकार आदि मानवीय मूल्यों पर बल देने का कार्य कबीर से अधिक किसने किया है ? कबीर की ही परम्परा के संतो रैदास, नानक, धन्ना, सुंदरदास, दादू दयाल, मलूकदास आदि को संदर्भित करते हुए डॉ. नगेन्द्र ने लिखा है - "इन संतो की सबसे बड़ी देन यह रही कि उन्होंने मनुष्यत्व की सामान्य भावना को आगे करके निम्न वर्ग के लोगों में आत्मविश्वास पैदा किया और उनमें एक प्रकार के आत्म गौरव का भाव जगाया।" (भारतीय साहित्य का समेकित इतिहास, पृ. 186)। मनुष्यत्व का विकास तमिल, तेलुगू, मलयालम, कन्नड़, उड़िया, गुजराती, पंजाबी, बंगला आदि सभी भारतीय भाषाओं के साहित्य में दृष्टिगोचर होता है।


जैन काव्यों में विभिन्न आख्यानों के माध्यम से दया, परोपकार, त्याग, सेवा, सहिष्णुता आदि को प्रतिपादित किया गया है। 'चन्दनबाला रास' करूणा का काव्य है। 'श्रावकाचार' में धर्म का प्रतिपादन है। सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चरित जैन धर्म का त्रिरत्न है। शैव और वैष्णव संतों से प्रतिस्पर्धा करते हुए जैन साधुओं ने अपनी-अपनी भाषाओं में महान काव्यों की रचना की है। तमिल में पेरूमकथै, जीवक चिन्तामणि, चूलामणि, वलैयापति और कुण्डलकेशी जैनाश्रित काव्य हैं। इनमें जैन धर्म के प्रचार के साथ ही जीवन मूल्यों की स्थापना का प्रयत्न दिखाई देता है। कन्नड़ साहित्य का आदिकाल जैनकाव्य परम्परा से प्रारंभ हुआ माना जाता है। महाकवि पंप कन्नड़ के आदि कवि हैं। इनके रचनाकाल को पंपयुग के नाम से अभिहित किया जाता है। इस युग के दो और प्रसिद्ध जैन कवि हुए हैं - पोन्न और रन्न। इन कवियों द्वारा विरचित दो प्रकार के काव्य हैं-जैन काव्य और लौकिक अथवा शुद्ध काव्य।जैन काव्यों में तीर्थंकरों का चरित्र गायन है तो लौकिक काव्य में पौराणिक प्रसंगों का चित्रण। महाकवि पंप विरचित दो काव्य हैं- 'आदि पुराण' और 'विक्रमार्जुन विजयम्'। तीर्थंकरों के जीवन-चरित्र के माध्यम से भोग और वैराग्य के द्वन्द्व का अत्यंत मार्मिक चित्रण 'आदि पुराण' में हुआ है। इसमें यह संदेश देने की कोशिश है कि यौवन आयु, वैभव, ऐश्वर्य आदि विद्युत-प्रभा की भांति क्षणभंगुर हैं। लोभ, लालच, माया मोह तथा सांसारिक प्रपंचों से मुक्ति का भाव ही मनुष्य जीवन को सार्थक बनाता है। पंपयुग के अन्य कवियों नागचन्द्र, चावंड और नेमिचंद्र आदि ने भी जैन तीर्थंकरों के चरित्र गायन के माध्यम से वैराग्य वृत्ति की महत्ता पर बल दिया है। गुजराती के रास काव्य जैन तीर्थंकरों के जीवन-वत्त को प्रोदभासित करते हए जीवन की नश्वरता का बोध कराते हैं। सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह आदि को अपनाने पर बल देने का व्यापक प्रभाव तत्कालीन वैष्णव कविता पर भी परिलक्षित होता है। 'वैष्णव जन तो तेणे कहिये जो पीर पराई जाणे रे' गाने वाले नरसी मेहता भी उस प्रभाव से वंचित नहीं रह सके हैं।


युग-परिवर्तन के साथ-साथ जीवन-मूल्य भी बदलते हैं। आदि कालीन जीवनादर्श यथावत रूप में मध्यकाल में नहीं मिलेंगे और मध्यकालीन जीवन-मूल्यों को यथावत रूप में आधुनिक काल में नहीं पाया जा सकता लेकिन कुछ ऐसे भी मानव-मूल्य हैं जो हर युग में अपनी उपस्थिति बनाये रख सके हैं। ये ही शाश्वत जीवन-मूल्य हैं और इन्हें भारतीय साहित्य के हर कालखण्ड में अन्तर्निहित पाया जा सकता है। स्वतंत्रता पूर्व भारतीय जीवन में देश-प्रेम, आत्मोत्सर्ग तथा त्याग-संघर्ष का जो भाव उभरा वह जीवन-मूल्य के रूप में संपूर्ण भारतीय साहित्य में विद्यमान है। वर्तमान समय में भूमंडलीकरण और वैश्विकता के कारण भौतिक दूरियों में कमी आई है लेकिन मानव-मानव के बीच की दूरियाँ काफी बढी हैं। आपाधापी और भागमभाग ने जीवन जीने का ढंग ही बदल दिया है। इसका परिणाम यह हुआ है कि परस्पर स्नेह, सौख्य, सौहाद्रे और सामंजस्य आदि की भावनाओं में क्षीणता आयी है। स्वातंत्र्योत्तर भारतीय साहित्य में अगर आज पुराने जीवन-मूल्यों में कमी दिखाई देती है तो इसका कारण बदलता समयचक्र है। आधुनिकता के चिंतन ने मानवीय व्यवहारों में अधिक खुलापन का समावेश कराया है। सामान्य जन भारतीय साहित्य के केन्द्र में प्रविष्ट हुआ है। उसी का सुख-दुख और गौरव-गरिमा की प्रतिष्ठा का प्रश्न सर्वाधिक मुखरित है। इसी क्रम में विषमता के विरूद्ध आक्रोश, पददलितों के प्रति करूणा, उपेक्षितों के प्रति सहानुभूति, तृतीय लिंगी समुदाय के प्रति सहानुभूति का भाव आज के साहित्य का ज्वलंत विषय है। स्त्री, दलित, दिव्यांग और आदिवासी विमर्शों ने नये जीवन-मूल्यों की ओर ध्यान आकृष्ट किया है। साहित्य अब धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के प्रयोजनों से इतर सामान्य मनुष्य की प्रतिष्ठा को अपना काम्य बना रहा है। कविता उसी को अपने गायन का विषय बना रही है -"जो बडे-बडे शहरों में/गंदी लंबी गटरों में/फटपाथों पर सोये हैं/......हम उनके गायेंगे गान।" प्रभाकर माचवे)। यथार्थ की जमीन पर मानवता का हित चिन्तन नये जीवन मूल्यों की स्थापना तो करेगा ही। इसी परिप्रेक्ष्य में मूल्य-संकट उत्पन्न होना भी अस्वाभाविक नहीं है-"क्या करोगे समझकर कि रात के दो बजे/मोहल्ले में किसकी कार आती है।" (एक उठा हुआ हाथ-भारत भूषण अग्रवाल, पृ.47)। परम्परागत जीवन-मूल्यों में गिरावट का कारण आचरण-व्यवहार में अत्यधिक स्वच्छन्दता का आ जाना भी है। इस सच्चाई से भी किसी को असहमति नहीं होगी कि जिस तरह का समाज होगा जीवन-मूल्य भी उसी के अनुरूप होंगे। इसी के साथ यह भी सच है कि जिस तरह के जीवन-मूल्य होंगे उसी तरह का समाज निर्मित होगा। इसमें भारतीय साहित्य अपनी भूमिका के निर्वहन में सतत अग्रगामी है।


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