आईना

आईना एक बार मैंने पूछा आईने से


हर किसी को उनकी सूरत तू दिखाता है


पर ऐ मेरे दोस्त, क्या अपनी ही सुरत को तू जानता है?


 


आईना बोला,


सभी मुझे देखते हैं, देखकर मुस्कराते हैं


मुझ में अपनी छवि देखकर, खुद को सुधारते हैं


यकीनन मेरी सूरत अच्छी ही होगी


 


मैंने कहा,


देखते वो तुझे हैं, पर अपने आपको ताकते हैं


तेरे सामने खड़े रहकर, अपने ही मन में झाँकते हैं


त इस गलत फहमी में मत रह मेरे यार


कभी कभी तुझे देखकर भी लोग कांपते हैं


 


आईना मुस्कराया और बोला,


हर एक की पहचान उसके कर्मों से होती है


सूरत से अच्छी–भली उसकी सीरत होती है


अपने कर्तव्य से हम कभी नहीं कतराते हैं


चाहे जितने टुकड़े हों, उतनी सूरत दिखाते हैं


 


आग को जलने का डर कहाँ


सूरज को तपने का गम कहाँ


पानी को भीगने की पहचान कहाँ


फूलों को खुशबू का अरमान कहाँ


 


अगर सूरत दिल का आईना है


तो आईने का दिल ही उसकी सूरत है


सामनेवाले की खुशी में हमारी खुशी है


उसके गम में हमारा भी गम है


विधाता ने इस काबिल हमें बनाया


क्या उसका हम पर यह एहसान कम है?



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