आँखों के हीरे

  "यह किसकी ओ-सी खड़ी है? "मैंने रेलवे यार्ड में खड़े शहाना कंपार्टमेंट को देखकर अपने असिस्टेंट बलबीर से पूछा, "यह हिंदुस्तान के बँटवारे से भी बहुत पहले की कहानी है। मैं राजस्थान के एक छोटे से शहर में रेलवे विभाग में तैनात था।”


"साहब, वह अपने सेठ साहब नहीं हैं, डिवाड के रईस जो अपने कुर्ते में हीरे के बटन लगाते हैं। उनके तीन बेटे इस कार में रह रहे हैं।” “मगर क्यों?” "उनके नौकरों से सुना है कि सेठ ने इन्हें मेले में पारसनाथ जी के दर्शन के लिए भेजा है मगर यह तीन दिन से वातानुकूल सैलून में पड़े हैं, वापस जाकर बापू से कह देंगे कि दर्शन कर लिए।" । "तो दर्शन के लिए एक दिन भी नहीं गए?" "कहाँ? लंदन रिटर्न हैं, वह इन बातों को कहाँ मानते हैं। यह तो उनके बाप इतने बड़े सेवक हैं कि मंदिर की मूर्ति की आँखों के लिए हीरे दे दिए।”


"अच्छा, उनके बेटे क्या कर रहे हैं?"


"शराब पी रहे हैं पड़े-पडे कंजरियाँ चौधपुर से मँगवाई हैं, यहाँ तो कोई है नहीं सिवाय पदमाबाई के जिसने गाना–वाना छोड़ दिया है।” पदमाबाई का नाम सुनकर मैं भी चौंका। गानों का रसिया । भी था। "यह पदमाबाई कौन हैं?" मैंने पूछा। "साहब! जयपुर की मशहूर गाने वाली थी, उसकी आवाज के आगे कोई ठहरता नहीं था, बस एकदम जाने क्या हुआ कि गाना वाना छोड़कर यहाँ पास के गाँव में आन बसी, मंदिर के अलावा कहीं आती-जाती नहीं और कोई बहुत ही शौक से सुनने आ जाए तो भजन सुना देती है।” "हमें सुना देगी?" "हाँ साहब क्यों नहीं, आपको भी गाने का शौक है मुझे पता है। "तो फिर कब चलें?" "साहब, यह तो पदमाबाई से बात करनी होगी। हर एक को नहीं सुनातीं। मैं उनके एक शागिर्द को जानता हूँ। वह स्कूल में पढ़ाता है, उससे बात करूंगा।” “हाँ, जरूर करना। और सुनो क्या उन लौडों से बात हो सकती है?” “किन से साहब?" । "यह जो तुमने बताया, उन रईस लड़कों से?" "पता नहीं, उनसे भी पूछना पड़ेगा। जियाले है, मनमौजी हैं, मान गए तो मान गए, न मानें तो किसी का जोर नहीं चलता। बस, बापू से जरा डरते हैं और किसी से नहीं ।” "अरे बापू से भी क्या डरते होंगे। बस यही सोचते होंगे कि बूढे ने जायदाद से बेदखल कर दिया तो मारे जाएँगे।” "आप ठीक समझे हो साहब," वह हँसा। "बेहिसाब पैसा है।


यह समझो कि टाटा और बिरला के बाद उसका नंबर है। एक दफा खुद भी इंगलिस्तान गया था। सुना है एडिनबरा कोई जगह है वहाँ कोई किलानुमा घर देख आया, बस उसका नक्शा वहीं के एक इंजीनियर को दिया कि हू-ब-हू ऐसा घर बना दो, पैसे की फिक्र मत करना। गाँव में ऐसा घर बनवा दिया कि बड़े-बड़े अंग्रेज देखने आते हैं।" "तो हमें नहीं दिखाओगे?" "क्यों नहीं साहब, यह अच्छा मौका है, लड़के तो तीनों यहाँ पड़े हैं। आज ही दौरा बना लो, हो आते हैं।”


बूढ़ा इजाजत दे देगा?" "वह हमारा काम है। बुढा मामूली आदमी से यहाँ तक पहुँचा है। उसमें उन लड़कों वाली हेकड़ी नहीं है। कोई घर । देखने आता है तो खुश होता है।" “आज तो शाम हो रही है कल चलेंगे।” "ठीक है साहब, कल चलेंगे, आज कबीर साहब से बात । कर लेते हैं। वह पदमाबाई से बात करके आपको ले जाएँगे।" “हाँ, यह ठीक है।” मैंने कहा। कबीर साहब स्कूल के हेडमास्टर थे। काफी पढ़े-लिखे थे और किताबें पढ़ने के शौकीन थे, कई रिसाले और अखबार रोज पढ़ते थे। उम्र इसी गाँव में गुजारी थी और यहीं गुजारने का इरादा था। वह किसी जमाने में पदमाबाई के शागिर्द रहे थे, मेरा शौक, देखकर मुझे साथ ले गए।" पदमाबाई का घर बहुत ही मामूली झोंपड़ा था और लगता था कि वह दुनिया से दूर, बहुत तन्हाई में बसर कर रही हैं। खुदा मालूम कबीर ने क्या बातें बनाईं कि वह मुझसे मिलने पर लियाराजी हो गईं। उसने मेरे कंधे पर रखकर बंदूक चलाई होगी कि एक बड़ा अफसर उनसे भजन सुनना चाहता है। छोटे शहरों में छोटे-मोटे अफसरों का भी बड़ा मान होता है। मुझे भी घर जाकर बच्चों की रीं पी और बीवी की गैर-दिलचस्प बातें सुनने से ज्यादा नए लोगों से मिलना अच्छा लगता था। खैर, पदमा बड़ी विनम्रता से मिलीं। किसी जमाने में सुंदर रही होंगी अभी भी झुर्रियों के पीछे एक भव्यता और आँखों के धुंधलके में अतीत की चमकीली धुंध थी। मैंने विनम्रता से गाना गाने का आग्रह किया। वह चुप रहीं। मगर कुछ देर बाद अपना तानपूरा सँभाला और कुछ देर अलाप किया और फिर अपनी पाटदार आवाज में मीरा का एक भजन यूँ गाया कि शाम के समय जैसे मीरा की प्रतीक्षा दरवाजे पर आन ठहर सी गई। मैं आनंद में डूब गया। मेरे ऊपर हर अच्छी आवाज, हर अच्छे गीत, गजल, पक्के राग, मुनाजातों और मजहबी गीतों का एक सा ही असर होता है। कितने साल बाद ऐसी मन मोहिनी आवाज, ऐसे दर्द और ऐसे कमाल के साथ सुनी थी।


मैं पदमादेवी को कुछ देना चाहता था मगर वह हरगिज । राजी न हुईं। बल्कि हमारे सत्कार में लग गईं। दूध के गिलास के साथ रसगुल्ले खुदा जाने कहाँ से आ गए। बात करने के लिए मैंने बात छेड़ी। "सुना है आप पारसनाथ जी के मंदिर तो जाती हैं।” "हाँ, कभी-कभी ।" "आप इस मेले में नहीं गईं?" "नहीं अब मेले-ठेलों में नहीं जाती। उसने सादगी से कहा। इसके बाद हम आज्ञा माँगकर चले आए। वापसी में कबीर ने कहा, "सर, आपको एक बात बताऊँ?" "हाँ, बताओ।". लोग कहते हैं, हो सकता है कि अफवाह है कि पदमाबाई ने यह जोग उन्हीं सेठ जी के लिए लिया है, जिनसे मिलने हम कल जा रहे हैं।” "क्या तुम भी जा रहे हो?" “हाँ सर, जब बच्चे छोटे थे तो मैं उनको पढ़ाता था। मेरी थोड़ी-बहुत इज्जत है उस घर में।" "अच्छा! कल उनसे पूछ लेंगे। ""क्या सर? " "यही कि पदमादेवी ने उनके कारण जोग लिया है।" "नहीं सर ऐसी कोई बात नहीं कीजिएगा कि उल्टी पड़ जाए, वह क्यों मानने लगा कि खुद तो महल में ऐश कर रहा है, और उसकी खातिर कोई औरत अपना महल छोड़ झोंपड़ी में रह रही है।" "अरे, भई मैं क्यों पूछने लगा, मैं तो मजाक कर रहा था। "मैंने कहा, "अच्छा यह बताओ कि क्या तुमने वह महल देखा है?" "बस बनते हुए देखा था। अब मेरा उधर जाना नहीं होता। आपके साथ ही देख लूंगा।" दूसरे दिन हम ने उधर का दौरा रख लिया। कबीर ने एक दिन पहले ही सँदेसा भिजवा दिया था कि नए स्टेशन मास्टर साहब जो बहुत पढ़े-लिखे हैं, उनका महल देखने आना चाहते हैं।


स्टेशन से उस घर तक पक्की सड़क लंबा चक्कर काटकर जाती थी। हम नजदीक की पगडंडी पर हो लिए जो खाक धूल से अटी हुई थी और झाड़ियों के बीच से गुजरती थी। जब हम उस किलेनुमा महल में पहुँचे तो सेठ के मैनेजर ने बाहर बड़े दरवाजे के आगे हमारा स्वागत किया। दीवारें स्लेटी रंग के पत्थर की बहुत ऊँची थीं। दरवाजा बेहद बड़ा और बेहद मजबूत लकड़ी का था जिसमें फूलनुमा चौड़ी कीलें जड़ी हुई थीं। एक छोटा दरवाजा अलग था। दरवाजे के बाहर एक चौड़ा मजबूत तख़त पड़ा था जिस पर एक सूखा सा आदमी गुड़मुड़ाया सा पड़ा था। छोटे दरवाजे से हम अंदर दाखिल हुए तो सामने अंग्रेजी तरह का बाग था। उस रेगिस्तान में गुलाब, डेलिया और गुलदाऊदी देखकर यूं लगा जैसे सपना देख रहा हूँ। घर के एक तरफ स्वीमिंग पूल में फिरोजी पानी था। दूसरी तरफ टेनिस का लॉन था जिसमें जाल लगा हुआ था। पीछे की तरफ नीले रंग का एक पर्दा दीवार की तरह खिंचा था। "शाम को लड़के यहाँ टेनिस खेलते हैं। "मैंनेजर ने बताया। "किसके साथ खेलते हैं?" मैंने पूछा। "आपस में खेलते हैं। डबल खेलना है तो मुझे बुला लेते हैं वरना यार-दोस्त तो आते ही रहते हैं।”


शायद ही कोई महीना जाता हो जब यूरोप से या बंबई से इनके दोस्त न आते हों।” “तो आप यहीं रहते हैं? "कबीर ने पूछा।


"और क्या। मेरे बिना इस महल का इंतजाम नहीं चल सकता। रसोई घर की सफाई का, बिजली-पानी का, हजारों काम हैं, इतने नौकरों से काम कराना भी एक काम है।” रहते "तनख्वाह भी खूब तगड़ी मिलती होगी।" मैंने मजाक इतना किया। "आपके रेलवे का जनरल मैनेजर भी अंग्रेज है। आपके खुयाल में उसको कितनी तनख्वाह मिलती होगी?” "मेरे ख्याल से पाँच हजार मिलते होंगे। “मुझे पंद्रह हजार जिस महीना मिलते हैं।" उसने गर्व से कहा। दिखाऊँगा"अच्छा!" मुझे हैरत हुई। खैर अंदर गए। सारे कमरों के फर्श में संगमरमर लगा हुआ था। ड्राइंगरूम में चार–पाँच अलग-अलग हिस्से बैठने के बहुमूल्य सोफों, कुर्सियों, कालीनों और दुनिया भर के अजूबा से सजे हुए थे। सोने के कमरे में मसहरियों पर सोने के पत्तर चढ़े हुए थे और उनकी बारीक मच्छरदानियाँ छत तक पहुँची हुई थीं। कमरों और पुस्तकालय में नायाब पेंटिग्स टॅगी हुई थीं, और गुलदानों में ताजा फूल लगे मालूम हुए थे। मैं अपने को बार-बार यकीन दिला रहा था कि यह खुवाब नहीं हकीकत है।


यूरोप में नहीं राजस्थान के एक छोटे से गाँव में हैं। आख़िर मैंने मैनेजर से यह सवाल पूछ ही लिया, "श्रीमान, यह तो बताइए कि यह महल इन्होंने यहाँ ऐसे गुमनाम गाँव में क्यों बनाया?" "बच्चों ने तो बहुत कहा कि जोधपूर, जयपुर, अजमेर में बना लीजिए। "मैनेजर ने कहा, "मगर सेठ साहब ने हठ पकड़ ली कि बनेगा तो उनके पुश्तैनी गाँव में वरना नहीं, जवान बच्चे भी हार गए।” कबीर ने मुझे अर्थपूर्ण नजरों से देखा जैसे कह रहा हो कि कुछ तो है, जिसकी पर्दादारी है। घर देखकर निकले तो तख़्त पर सोया आदमी उठ बैठा था। मैनेजर ने परिचय कराया। "इनसे मिलिए, यह हैं सेठ साहब, इस महल के मालिक ।” मैंने उनके हीरे के बटन देखने की कोशिश की, मगर उनके तन पर कुर्ता ही नहीं था। सिर्फ एक धोती बाँधे थे। उन्होंने हाथ जोड़कर "रामजी” कहा। मैंने भी हाथ जोड़ दिए। इतने में एक लंबी सी कार आकर रुकी। तीनों लड़के सूट-बूट में उससे उतरे। दोनों छोटे लड़के तो फौरन अंदर चले गए, बड़ा ठहरा रहा। मैनेजर ने उससे भी मेरा परिचय कराया और बताया कि मैं उनका महल देखना चाहता था। लड़के ने मुझसे मिलने के बाद बाप को सलाम किया। "


"पारसनाथ जी के दर्शन कर आए।" बाप ने पछा "हाँ" लड़के ने विश्वास भरे स्वर में कहा। "प्रसाद लाए?" "हाँ, गंगाराम ला रहा है।"


फिर मुझसे हाथ मिलाकर बोला, "आपने बाबूजी का शानदार बेडरूम भी देखा होगा मगर यह यहाँ तखुत पर पड़े रहते हैं। कहते हैं बंद वातानुकूल कमरे में मेरा दम घुटता है।” इतना कहकर वह भी अंदर सटक गया। बाप बोला, "अरे इन लड़कों को मेरी हर बात पर एतराज है। कहते हैं लोगों को घर क्यों दिखाते हैं। यह म्यूजियम नहीं है, मैं कहता हूँ लोग शौक से देखने आते हैं तो दिखाता हूँ। जिस दिन तुम लोग ठकुरानिया ले आओगे, उस दिन से नहीं दिखाऊँगा।” । मैं उनके साथ वहीं खुरें तख्त पर बैठ गया। “क्या बात है आपके महल की," मैंने कहा, "आप खर्च करना चाहते हैं तभी तो खुदा ने आपको इतना दिया है। अब देखिए कि पारसनाथ की मूर्ति के लिए आपने दो इतने कीमती हीरे दे दिए, भला इतना कौन करता है? "यह आपसे किसने कहा है?" सेठ ने पूछा। "सभी को मालूम है।" मैंने कहा। “नहीं, नहीं, गलत कहते हैं लोग। वह मैंने नहीं दिए, वह तो एक खुदातरस माई ने दिए हैं। लोग इस बात का विश्वास इसलिए नहीं करते कि अब वह गरीब हो गई हैं, एक झोंपड़े में रहती हैं, मगर कभी वह महल में रहती थीं ।” "पदमाबाई तो नहीं?" मैंने सहज स्वर में कहा। उनका रंग कुछ उड़ा। "आप जानते हैं उसको?" "कल गया था। एक भजन सुना। क्या गाती हैं। भली आवाज है।" "कभी आप भी जाकर सुनिए,” मैंने कहा। सेठजी का रंग सफेद हो गया। "मुझे शौक नहीं।" उन्होंने कहा। मैंने चलना चाहा। उन्होंने हाथ जोड़ दिए। मेरे चलने से पहले ही वह फिर गुड़मुड़ मार कर तख़्त पर पड़ चुके थे। कबीर ने कहा, "सर एक भेद की बात बताऊँ?” “जरूर बताओ," मैंने कहा। "यह सिर्फ इसलिए यहाँ पड़े रहते हैं कि इनका दिल यह गवारा नहीं करता है कि यह इस शानदार महल के अंदर हैं, जबकि पदमाबाई झापड़ा में रहे। जबकि पदमाबाई झोंपड़ी में रहें।" "वाह कबीर साहब, आपने तो पूरा किस्सा गढ़ लिया, उनके बारे में क्या कहानियाँ लिखते हैं" "मैंने पूरी खोजबीन की है सर, यह पुष्कर ब्राह्मण हैं। यह किसी ऐसी–वैसी औरत से शादी नहीं कर सकते थे। पर जवानी में इस पर दिल आ गया था। अभी तक प्रेम का पाठ भूले नहीं हैं। आपने तो सुना ही होगा...उसको छुट्टी न मिली जिसने सबक याद किया...मैं जिन दिनों बच्चों को पढ़ाया करता था। कई बार सेठ जी के साथ पारसनाथ जी के मंदिर गया हूँ और देखा है। सेठ साहब आँखों के उन हीरों को ताकते रहते हैं, जो कभी पदमाबाई के खूबसूरत कानों में जड़े थे।"


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