धूमिल : भाषा में भदेस की कवि

लेख


आधुनिक कबीर की उपाधि से महिमामंडित प्रगतिवादी कवि बाबा नागार्जुन ने कभी कहा था - जनता मुझसे पूछ रही है/ क्या बतलाऊं/जनकवि हूँ मैं/ साफ कहूँगा/ क्यों हुकलाऊ।


बाबा नागार्जुन द्वारा कही गई उपर्युक्त पंक्तियाँ एक ऐसे कवि, एक ऐसी निर्भीक-बेबाक शख्सियत पर पूर्णतः सटीक बैठती हैं जो गुलाम भारत में जन्मा और आजाद भारत में मृत्यु को प्राप्त हुआ। जिसका कहना था कि -


"नहीं मुझे इस तरह डबडबाई आँखों से मत घूरो/मैं । तुम्हारे ही कुनबे का आदमी हूँ/ शरीफ हूँ/सगा हूँ/ फिलहाल तुम्हें गलत जगह डालने का/मेरा कोई इरादा नहीं है।”


इन पंक्तियों को पढ़-सुनकर मन में सहसा एक प्रश्न उठता है कि कौन था यह आदमी कहाँ से आया था जो ऐसी बहकी - बहकी बातें कर रहा था जिसकी प्रत्येक बात -“दुनिया के व्याकरण के खिलाफ थी।” जो कहता था- “जनमत की चढ़ी। हुई नदी में/ एक सड़ा हुआ काठ है/ लन्दन और न्यूयार्क के घुडीदार तसमों से डमरू की तरह बजता हुआ/ मेरा चरित्र अंग्रेजी का 8 है। जिसका मानना था- "अपने बचाव के लिए खुद के खिलाफ हो जाने के सिवा दूसरा रास्ता क्या है।”


और जो कविता में जाने से पहले पूछता था- "जब इससे और जो कविता में जाने से पहले पूछता था- "जब इससे न चोली बन सकती है न चोंगा/तब आपै कहो इस ससुरी। कविता को जंगल से जनता तक ढ़ोने से क्या होगा।" वह कहता था- “कविता करना मंटो का मरना है।”


वह कहता था- “एक सही कविता पहले एक सार्थक वक्तव्य । होती है।


और जो कहता था-"लगातार बारिश में भीगते हुए/ उसने जाना । की हर लड़की/तीसरे गर्भपात के बाद धर्मशाला हो जाती है। और कविता हर तीसरे पाठ के बाद ।


और जो कहता था- "वैसे यह सच है जब सड़कों में होता हूँ। बहसों में होता हूँ/रह -रह चहकता हूँ लेकिन हर बार घर वापस लौटकर/कमरे के एकांत में जूते से निकाले गए पॉव-सा महकता हूँ।”


और वह कहता था -"कितना भद्दा मजाक है/ कि हमारे चेहरों पर आँख के ठीक नीचे ही नाक है।”


कौन था वह जो कहता था- "सचमुच मजबूरी है/मगर जिंदा रहने के लिए/पालतू होना जरूरी है।


कोई माने या न माने किन्तु वह कहता था एक बार नहीं बार-बार कहता था


“हाँ-हाँ मैं कवि हूँ, कवि याने भाषा में भदेस हूँ, इस कदर कायर हूँ कि उत्तर प्रदेश हूँ।”


इन सब सवालों के जवाब में कहा जा सकता है की यह सब कहना था उस कवि का जो भारत के एक विशाल राज्य उत्तर प्रदेश के सनातन धर्म की राजधानी (अशोक वाजपेयी के अनुसार) कहे जाने वाले स्थान जिसे कोई बनारस के नाम से जानता है, कोई वाराणसी के नाम से तो कोई काशी के नाम से, के अंतर्गत आने वाले एक छोटे से गाँव खेवली से सम्बंध रखता था। इस कवि का मूल नाम वैसे तो सुदामा पांडेय था किन्तु यह महान प्रतिभा जो मोहभंग और हताशा-निराशा के युग की उपज थी, को संसार के लोग सुदामा पांडेय के नाम से कम बल्कि धूमिल के नाम से ज्यादा जानते हैं। इनके पिता का नाम पं. शिवनायक पांडेय और माता का नाम रजवंती देवी था। यदि इनकी शिक्षा के सम्बन्ध में कहूं तो मोटे तौर पर केवल इतना ही कहा जा सकता है कि धूमिल की प्रारंभिक शिक्षा गाँव के ही निकटवर्ती एक स्कूल में संपन्न हुई। हाई स्कूल की परीक्षा द्वितीय श्रेणी में पास की। आगे की पढ़ाई करने के लिए हरिश्चंद्र इंटर कॉलेज वाराणसी पहुचें किन्तु पिता की असामयिक मृत्यु एवं धनाभाव के कारण पढाई का सिलसिला बीच में ही टूट गया। कुछ दिन इधर-उधर नौकरी की और कुछ पैसे जमा करके सन् 1957 ई० में वाराणसी के औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान से प्रथम श्रेणी में विद्युत् डिप्लोमा करने के बाद वहीं सन् 1958 ई० में विद्युत् अनुदेशक बन गए। जीवन भर इसी पद पर कार्यरत रहे। किन्तु उच्च अधिकारियों से न बनने के कारण इनका बार बार तबादला होता रहा कभी बलिया तो कभी सीतापुर तो कभी सहारनपुर। ये तो हुआ धूमिल का संक्षिप्त-सा जीवन परिचय। अब यदि इनके कवि-कर्म की बात करें तो हम सभी जानते हैं। कि सन् 1947 ई० में हम आजाद हो गए। आजाद भारत के प्रत्येक नागरिक की अपनी अलग-अलग आशाएं थी आकांक्षाएँ थी। लेकिन इन आशाओं- आकांक्षाओं को धूमिल होने में, मटियामेट होने में ज्यादा समय न लगा। एक अन्य कवि दुष्यंत कुमार ने कहा भी था - कहाँ तो तय था चरागाँ हर एक घर के लिए / कहाँ चराग मयस्सर नहीं शहर के लिए।


कारण साफ था आजाद होने से पहले हम गोरों के गुलाम थे और आजाद होने के बाद कालों के और इसकी भविष्यवाणी बहुत पहले ही मुंशी प्रेमचंद कर चुके थे। आजादी के बाद कुछ नहीं बदला यदि बदला तो लोग बदले, समय बदला, एक देश दो अलग-अलग हिस्सों में बंट गया, तारों के इस ओर हिंदुस्तान और उस ओर पाकिस्तान ।


धूमिल ने कहा था - "सुनसान गलियों से चोरों की तरह गुजरते हुए अपने आप से सवाल करता हूँ/ क्या आजादी सिर्फ तीन थके हुए रंगों का नाम है जिन्हें एक पहियाँ ढोता है/या इसका कोई खास मतलब होता है।


। सन् साठ के आस-पास हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में एक चिंगारी उठी और इस चिंगारी को आग में बदलने का कार्य किया धूमिल की कविताओं ने। धूमिल स्वातन्त्रयोत्तर आधुनिक हिंदी साहित्य के एक ऐसे कवि हैं जिन्होंने कविता को कल्पना लोक से बाहर निकाला और उसका रिश्ता समसामयिक यथार्थ से जोड़ा अर्थात उसको आम आदमी से जोड़ा। यदि कहा जाए कि धूमिल की कविता आम आदमी की कविता है उसकी व्यथा, वेदना, दुःख और उसकी पीड़ा, उसके टूटते-बनते, उजड़ते-बसते सपनों की । कविता है तो कोई अतिश्योक्ति न होगी। धूमिल कविता को आम आदमी तक पहुँचाना चाहता था- वह कहता था कि- यदि कभी कहीं कुछ कर सकती/तो कविता ही कर सकती है। धूमिल की कविताओं में आजाद भारत की वह तस्वीर उभर कर हमारे सामने आती है जिसमें बदहाली है, बेकारी है, भुखमरी है, असंतोष की भावना है और व्यवस्था के प्रति भारी आक्रोश है, समाज और व्यवस्था के प्रति मोहभंग है। कथाकार और धूमिल के यार काशीनाथ सिंह कहते हैं-धूमिल ने अपने समकालीन कवियों का ध्यान एक ठोस समस्या की ओर खींचा– जनतंत्र और व्यवस्था।


धूमिल ने कहा है- “न कोई प्रजा है/ न कोई तंत्र है/यह आदमी के खिलाफ/आदमी का खुला षड्यंत्र है।”


धूमिल अपनी लेखनी के माध्यम से भूख और गरीबी का एक पूरा का पूरा चित्र प्रस्तुत कर देते हैं उनकी एक ऐसी ही । कविता है 'किस्सा जनतंत्र-- "करछुल,बटलोही से बतियाती है और चिमटा तवे से मचलता है, चूल्हा कुछ नहीं बोलता, चुपचाप जलता है और जलता रहता है।”


वह कहते हैं- “मानसून के बीच खड़ा मैं,आक्सीजन का कर्जदार हूँ, मैं अपनी व्यवस्थाओं में बीमार हूँ।”


जैसा की हम सब इस बात से भली-भाँति परिचित हैं। की धूमिल के साहित्य के क्षेत्र में आने से पहले आलोचकों का ध्यान कहानियों-उपन्यासों की ओर था किन्तु धूमिल के आने के बाद आलोचकों का ध्यान कविता की ओर खिंचा, धूमिल की ओर खिंचा।


धूमिल की ये विशेषता है की वह जनता के सामने प्रश्न चिन्ह छोड़ जाते हैं उनकी एक ऐसी ही कविता है जो अधिकांश साथियों ने सुनी और पढ़ी होगी। रोटी और संसद जिसमे वह कहते हैं कि


एक आदमी


रोटी बेलता है।


एक आदमी रोटी खाता है।


एक तीसरा आदमी भी है।


जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है।


वह सिर्फ रोटी से खेलता है।


मैं पूछता हूँ-


यह तीसरा आदमी कौन है?


मेरे देश की संसद मौन है।


कविता के विषय में धूमिल का कहना था कि-


"कविता क्या है? कोई पहनावा है? कुर्ता-पाजामा हैं? ना भाई ना, कविता शब्दों की अदालत में मुजरिम के कटघरे में खड़े बेकसूर आदमी का हलफनामा है। क्या यह व्यक्तित्व बनाने की-चरित्र चमकाने की खाने कमाने की चीज है? ना भाई ना कविता भाषा में आदमी होने की तमीज है।”


और अब अंत में सिर्फ इतना ही कहूँगा कि - "मेरे पास अक्सर एक आदमी आता है/और हर बार/मेरी डायरी के अगले पन्ने पर बैठ जाता है।” उसका नाम है सुदामा पाण्डेय धूमिल । धूमिल ने हिंदी साहित्य जगत को एक से बढ़कर एक कविताएँ दी जिनमें- अकाल दर्शन, पठकथा, बसंत, एकांत कथा, सच्ची बात, संसद समीक्षा, मुनासिब कारवाई, कवि 1970 तथा मोचीराम जैसी कविताओं को रखा जा सकता है। मोचीराम से एक अंश- बाबूजी सच कहूं- मेरी निगाह में/ न कोई छोटा है/ न कोई बड़ा है,मेरे लिए हर आदमी एक जोड़ी जूता है जो मेरे सामने मरम्मत के लिए खड़ा है।


एक बात और धूमिल की कई कविताओं में मनुष्य के गुप्तांगो के नाम भी भरे पड़े हैं। जिनमें से एक में वह कहते हैं कि- यह एक खुला हुआ सच है कि आदमी दाएं हाथ की नैतिकता से इस कदर मजबूर होता है कि तमाम उम्र गुजर जाती है मगर ....... सिर्फ बायाँ हाथ धोता है।


धूमिल के तीन काव्य-संग्रह प्रकाश में आये सन् 1972 ई० में संसद से सड़क तक, सन् 1977 ई० में कल सुनना मुझे और तीसरा और अंतिम काव्य-संग्रह सुदामा पांडेय का प्रजातंत्र सन् 1983 ई० में धूमिल के सुपुत्र रत्नशंकर के प्रयत्न से प्रकाशित हुआ।


10 फरवरी सन् 1975 ई० में ब्रेन ट्यूमर हो जाने के कारण मात्र 38 वर्ष की उम्र में यह कवि संसार से विदा हो गया। धूमिल को मरणोपरांत संसद से सड़क तक काव्य-संग्रह के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया।


यदि धूमिल को समझना है, उनके अंदर के कवि के मर्म को समझना है, उनकी कविताओं को समझना है तो धूमिल को आत्मसात करना होगा इस छोटे से परिचय से कुछ नहीं होगा। इस छोटे से लेख या नोट्स में धूमिलः भाषा में भदेस का कवि को समझने का प्रयास भर है, कोई अंतिम निष्कर्ष नहीं।


और अंत में धूमिल की अंतिम कविता की चार पंक्तियों से जो मुझे बहुत प्रिय हैं से अपनी बात का अंत करता हूँ-


लोहे का स्वाद


लोहार से मत पूछो


उस घोड़े से पूछो


जिसके मुहं में लगाम है...स



 


 


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