कानखजूरा

कहानी


सोनू की भाभी अपने साथ बहुत सारा सामान लेकर आई थीं। एक बड़ा लोहे का टूक, बैंत वाली दो कुर्सियाँ, एक मेज, बिस्तर, गहने, कपड़े-लत्ते और माँ की साड़ी के साथ-साथ सोनू के लिए घेरे वाली सलवार और कुर्ता। सूट के साथ जालीदार दुपट्टा भी जो उन दिनों फेशन में था।


हरियाली तीज पर झूला झूलने के लिए जब सारी सहेलियाँ इकट्ठी हुई तो सबकी नजरें सोनू के नए सलवार-सूट पर टिकी थीं। दुपट्टे की किनारी पर लगा बारीक -सुनहरी गोटा खूब । फब रहा था।


भाभी जो भी सामान लाई थी उसमें सोनू को उनकी श्रृंगार-दानी सबसे अच्छी लगी। श्रृंगार की इतनी सारी चीजें उसने पहले कभी नहीं देखी थीं। रंग-बिरंगी शीशे वाली बिंदियाँ, सुमेदानी, चुटिया में बांधने के लिए रंगीन फुदने वाला चुटिलना और पाउडर भी। पाउडर के डिब्बे में ढक्कन खोलते ही रुई का नरम फोहा था। भाभी चेहरे पर पाउडर लगातीं तो फोहे से थपथपा देतीं । मानो कह रहीं हो– “इसी तरह टिके रहना।”


होठों को रंगने के लिए लाल और कुछ गहरे रंग की दो होठों को रंगने के लिए लाल और कुछ गहरे लिपस्टिक भी उनके सामान में सोनू ने देखी थीं।


माँ को उसने न कभी सुरमा लगाते देखा और न पाउडर।लाली तो दूर की बात थी। माँ के पास एक मात्र डिबिया थी जिसमें वह सिंदूर रखती थी। उसी सिंदूर की एक चुटकी से वह अपनी मॉग भरती और बेकार पडी पेन्सिल के पिछले भाग से उसी सिंदूर की गोल बिंदी वह अपने ललाट पर लगा लेती।।


साल में एक बार दिवाली पर मिट्टी के सकोरे में कड़वे तेल की बत्ती जलाकर काजल पूरा जाता। सुबह होने पर माँ। इस काजल को उंगली से अपनी और घर में अन्य सभी की। आँखों में लगाती। तीसरे दिन दीवले का कहीं पता न होता कि वह कहॉ पडा है।


भाभी के आने से माँ को बड़ा सहारा हो गया था। सोनु पहले तो माँ के कामों में हाथ बँटा देती थी लेकिन अब मन हुआ तो काम करती, नहीं तो नहीं। अब उसके पास दो ही काम थे। एक–पढ़ाई करना, दूसरा- खेलना।।


स्कूल के बाद घर के बाहर वाले हिस्से में बनी बैठक में सहेलियों के साथ तरह-तरह के खेल खेलती। कभी सॉप-सीढी तो कभी गिट्टे-उछालने वाला खेल। विम्मो, कुसुम और सोनू तीनों सहेलियों के पास अपने गिट्टे होते जो बैठक में फर्श पर फैलाए जाते। एक गिटे को हवा में उछाला जाता और उसे लपकने तक दूसरे हाथ से जमीन पर बिखरे गिट्टे उठाने होते। जो सबसे अधिक गिट्टे उठाता जीत उसी की होती। उछाला । हुआ गिट्टा जमीन पर गिरा कि आउट।


विम्मो इस खेल में बड़ी होशियार थी । उसका एक हाथ हवा में गिट्टे को लपकता तो दूसरा फर्श पर पड़े गिटटों को एक-एक कर समेटने लगता। अंततः विम्मो की जीत होती हार-जीत को लेकर इन सहेलियों में कभी मन-मुटाव नहीं हुआ।


सोनू का एक पसंदीदा खेल और भी था। गुडे-गुडिया का बयाह रचाना। गुडिया को सजाने-सँवारने में उसे भाभी का सहयोग तो मिलता ही साथ ही उनके कमरे में बेरोक-टोक जाने और उनकी चीजों को देखने-छूने का अवसर भी उसे मिल जाता। माँ हमेशा चेताती रहती- “सोनू, भाभी के कमरे में ज्यादा मत जाना... जब तक वह स्वयं कमरे में ना हो... किसी चीज को हाथ लगाना ठीक बात नहीं... समझी ..."


माँ की बातों को सोनू ध्यान से सुनती और मानना भी चाहती किन्तु नए कपडे, गहने और सुख- पाउडर उसे हर समय अपनी ओर आकर्षित करते। भाभी के इधर-उधर होते ही वह कानों में उनके बड़े-बड़े झालर पहनकर शीशे के आगे खड़ी हो जाती। देर तक स्वयं को निहारती। गरदन और कन्धों को छूते झालर सोनू को रोमांच से भर देते। वह अपने होठो को लिपस्टिक से रंग लेती। सुमे की पतली सलाई पलकों के भीतर छुआती तो उसका मन-मस्तिष्क स्फूर्त हो उठत।।


छुआती तो उसका मन-मस्तिष्क स्फूर्त हो उठत।। माँ की हिदायत और भाभी के नाराज होने का डर उसे हमेशा बना रहता। इसीलिए जितनी जल्दी वह लिपस्टिक अपने होंठों पर लगाती उतनी ही जल्दी छुटा भी देती थी। इन सब बातों की खबर माँ या भाभी को न हो, ऐसा नहीं था। दोनों ही यह बात जानती थीं। लेकिन भाभी ने सोनू को न कभी टोका और न ही वे नाराज दिखीं। माँ ने इसे नन्द-भाभी की आपसी समझ और प्यार मानकर इस ओर से अपना ध्यान हटा लिया था।


इस उम्र में जबकि मन सहपाठिओं या गली-मोहल्ले के हम-उम्र साथिओं की ओर आकर्षित होता है, सोनू का हृदय श्रृंगार के आकर्षण में बंध गया था। जिसका एक कारण स्वतः । उपलब्ध अवसर भी था। उसने पहले ये चीजें देखी ही कहाँ थी? 


वह सजती-संवरती और अपने रूप-लावण्य पर न्योछावर हुई रहती। उसके कच्चे, भोले मन पर यह जादू सिर चढ़कर बोल रहा था। सोनू को यह सब बहुत अच्छा लगता।


अभी सोनू ने दसवीं की परीक्षा दी थी कि घर में एक दिन भाभी ने उसके रिश्ते की बात छेड़ दी। लड़का उनके शहर का ही था। नाम था जगत। भैया सोनू को पढ़ाना चाहते थे। वे उसकी शादी के लिए तैयार नहीं थे।


“सोनू की उम्र ही क्या है अभी? ... उसे पढ़ने दो” –उन्होंने कहा था।


माँ चुप थी। वैसे भी घर का सारा दायित्व भैया के ऊपर था। सोनू की पढाई हो या मॉ का मथुरा-वृन्दावन । ठाकुरजी के दर्शन को जाना, पिताजी के बाद घर का सारा दायित्व भैया के ऊपर था जिसे वे पूरी जिम्मेदारी के साथ निभा रहे थे। कछ दिन बाद फिर भाभी ने लड़के का जिक्र छेड़ते हुए कहा- "मुश्किल से तैयार हुआ है लड़का.. सोनू से थोड़ा बड़ा । है... लेकिन हुँचता कम का ही है। फिर सोचो तो... गाँव की लड़की को... शहर का लड़का...आसानी से मिलता ही कहाँ है?... घर में एक बूढी माँ है बस.. कोई जिम्मेदारी नहीं... राज करेगी अपनी सोनू...  "सोनू को... सजने-संवरने का कितना शौक है. भला किसी गाँव में जाकर वह खुश रह पायेगी? "क्यों सोनू !” –उन्होंने पास खड़ी सोनू की छेड़ते हुए कहा।


"तो.... भाभी जानती है उसके मन को.. उसकी भावनाओं को... भाभी के प्रति सोनूका मन कृतज्ञता से भर उठा था। ".. उनके जैसा दाम्पत्य जीवन!” कल्पना मात्र से उसकी कोमल भावनाएँ तरंगित हो उठी।


भाभी ने भैया को विश्वास में ले लिया। यह रिश्ता सोनू के लिए एकदम ठीक है यह बात मॉ के मन में भी बैठ गयी। रिश्ता पक्का होने से शादी होने तक मात्र बीस दिन का समय लगा। सोनू की शादी जगत से हो गयी। ।


विवाहित स्त्री की तरह रहने का ढंग वह अनजाने में ही भाभी को देखकर सीख गई थी। उन्हीं की तरह घर–गहरथी में ढलने की सोच उसे उत्साहित किये रखती। रात दिन सोनू के मन में यही सोच रहती कि- ‘वह हर प्रकार से अपने पति को ... खुश रखेगी.... शाम को जगत के लौटने से पहले... घर के सारे जरूरी कामों को निपटाकर साफ-सुथरे कपड़े पहनेगी... बिलकुल भाभी की तरह .."


माँ से अधिक भाभी की छाया और उनकी सीख अपने पल्ले में बांधकर सोनू ने ससुराल की दहलीज पर कदम रखा था।


विदाई के समय भाभी ने उससे कहा था- "सोनू ! औरत को अपने मन की बात कहने के लिए.... बहुत समय चाहिए होता है. लेकिन पति.. वह अपनी बात दो टूक शब्दों में कह देता है। ... उसे ना आसमान जैसा विस्तार चाहिए ना सोचने के लिएबहुत समय "


भाभी ने यह भी कहा था कि- " बिस्तर में... वह... जितनी संभाल रखता है. वैसी संभाल की अपेक्षा बाद में करना... भूल है लाडो! ऐसी अपेक्षा करना.. मन को संताप में डूबो देना है। ...समझी । जिसमें पति की खुशी... उसी में अपनी!


सोनू कोमल सपने लिए जगत के घर वधु बनकर आ चुकी थी किन्तु यहाँ उसके सपने कुछ रंग ले पाते उससे पहले ही जगत और उसके घर की असलियत उसके सामने खुलने लगी। जगत को छुटपन से ही शराब की आदत थी। वह बुरी संगत में भी था। नशे में धुत उसका देर से आना रोज की बात थी। किसी दिन घर जल्दी आता भी तो सोनू को उसकी मनमानी बर्दाश्त करनी पड़ती। पति के प्रणय-भरे प्रेमिल-स्पर्श को वह तरसती रही।


समय पंख लगाए उड़ता रहा परन्तु उसके सपनों की उड़ान आगे नहीं बढ़ पाई। बीते दो सालों में एक रात ऐसी नहीं थी जब उसकी आँखों में त्रस्त-जागरण की व्यथित लकीरें न   रही है 


एक ओर जगत के देर से लौटने पर ईर्षा का सर्प उसके हृदय को घायल करता तो दूसरी ओर जगत के शाम से घर आ जाने उसे जगत की मनमानी का सामना करना पड़ता।


पति-पत्नी के बीच सम्बन्धों की मधुरता खोजती सोनू बिखर रही थी। वह चाहकर भी किसी को कुछ नहीं बता पाई। गाँव में माँ से मिलती तो माँ की संतोष-भरी आँखे चुप रहने को विवश कर देतीं। 


'इस ढलती उम्र में माँ को अपनी परेशानी बताना ठीक नहीं... और भाभी... उन्होने तो कितने चाव से उसकी शादी कराई थी... उन्हें जगत की वास्तविकता का.. अगर पता होता... तो क्या वे उसकी शादी जगत से कराती.. नहीं-नहीं.. भाभी से यह सब कहना ठीक नहीं... उन्हें लगेगा मुझे भरोसा नहीं उन पर फिर शादी का बंधन गुडे-गुड़ियों का खेल तो नहीं कि अब गाँठ बॉधी अभी खोल कर फेक दी...


ऑचल में बंधी-विवाह की गाँठ को याद कर वह अपने दिल पर पत्थर रख लेती।


शादी के बाद यों तो वह कई बार गाँव आई। कभी मिलने तो कभी तीज-त्योहारों पर लेकिन आज कुछ दिन रहने के लिए वह अपने गाँव आई है।


इसके पहले भैया के बार-बार बुलाने और खुद लिवा ले जाने की बात पर वह जगत और अम्माजी के खाने-पीने का हवाला देकर उन्हें टालती रही।


भैया के बहुत जोर देने पर आज जगत ने अपनी मोटर साईकिल से गाँव से लगी सडक तक छोड़ दिया था।


।यहाँ से घर तक पहुँचने के लिए सोनू ने ताँगा ले लिया। ताँगे से उतरकर सोनू गली में मुड़ी ही थी कि उसे विम्मो की आवाज सुनाई दी। सोनू पलटकर देखती कि विम्मो ने पास आकर उसे अपनी बाँहों में भर लिया और पूछा- " कैसी है। सोनू?”


विम्मो के स्वर में सहेली से मिलने का उल्लास झलक रहा था।


सोनू ने बड़े प्यार से विम्मो की ओर देखा जो अभी भी उसे अपनी बाहों में भरे हुए थी।


और हॉ...जीजा जी...कैसे हैं?" विम्मो का उल्लास देखते बनता था। 


‘जीजा जी सुनते सोनू के चेहरे का रंग उतर गया। अचानक जगत की बात से वह अनमनी हो उठी। उसे समझ नहीं आया कि विम्मो को क्या जवाब दे।


"ये क्या कह रही है. तू?" -विम्मो को विश्वास नहीं हो रहा था।


उसकी आँखों के आगे बैठक का वह दृश्य जीवंत हो उठा जब अक्सर फर्श के किनारे दौड़ते कानखजूरे को देख सोनू भयभीत हो उठती थी। विम्मो उसे समझाती थी-'" एक कीड़ा ही तो है.. क्या बिगाड़ लेगा तेरा... बेचारे को अपनी ही जान के लाले है... देख... कैसे भागे जा रहा है... और तू है कि पीली पड़ी जा रही है।”


साथ खेलती सहेलियों के समझाने पर भी सोनू अपने डर के बंधन को तोड़ नहीं पाती थी। उसकी साँसे असमान्य गति से बढ़ जातीं। परिणाम स्वरूप पास पड़े इंडे या झाडू से कानखजूरे । को वह तब तक पीटती जब तक वह मर नहीं जाता था।


जगत के लिए ‘कानखजूरा शब्द सुनकर विम्मो चिंतित हो उठी। चिंतिति और परेशान विम्मो ने सोनू की आखों में झाँका जहाँ उसे डर का विशाल समुंदर दिखाई दिया। डर से बाहर निकलने की छटपटाहट भी विम्मो ने उसकी आँखों में महसूस की।


सोनू ने एक लम्बी सांस लेकर कहा- “पहले जिन चीजों के लिए मैं पागल हुई रहती थी... आज..वही बुरी लगती हैं। विम्मो... साज-श्रृंगार कुछ अच्छा नहीं लगता... सजू तो किसके लिए? पति की ... प्रेम-भरी एक दृष्टि. एक स्पर्श..कुछ भी नहीं है मेरे पास सोनू की आवाज में दर्द था।


सोनू की बातों से विम्मो का मन भर आया। उसकी आँखें छलक आई किन्तु स्वयं कमजोर पड़कर वह सोनू को और कमजोर नहीं होने देना चाहती थी। उसने चुन्नी से सोनू के आँसू पोछे।।


सोनू ने सिसकते हुए कहा- "बैठक में तो.. महीने-दो-महीने में ही कानखजूरा दिखाई देता था विम्मो...... तुझे याद है ना....दूर फर्श पर दौड़ता... उसने कभी मुझे.... छुआ नहीं... फिर भी उसे देखकर मेरा मन भय से कॉप जाया करता था..... याद है ना?"


विम्मो ने हाँ में सिर हिलाया।


"..लेकिन जगत... नाम का यह कानखजूरा... केवल मेरी चेतना को नहीं... सवेदनाओं से भरे मेरे हृदय को... अंग-अंग को घायल करता है. उसके लिए मैं हाड़-मॉस की पुतली-भर हूँ. विम्मो...उसे मारना तो दूर.. मैं चाहकर... सारी हिम्मत जुटाकर भी...उससे छुटकारा नहीं पा सकती’- अविरल अश्रुधारा से सोन् का चेहरा भीग गया। दर्द और पीड़ा से भरा हृदय मानो फट जाना चाहता हो।


सहेली की व्यथा सुनती विम्मो को उसकी हिम्मत जवाब देने लगी। उसकी आँखों में आंसू भर आये। घर की ड्योढी के बाहर खड़ीं दोनों सहेलियाँ देर तक दुख और वेदना की लहरों में डूबती-उतरती रहीं।


उन्हें न तो समय का ज्ञान रहा और न ही इस बात का आभास हो पाया कि दरवाजे के पास ड्योढ़ी के भीतर खड़े भैया ने उनकी सारी बातों को सुन लिया है।


पीछे से अचानक भैया की गुस्से से भरी आवाज उन्हें सुनाई दी- "क्यों छुटकारा नहीं पा सकती तू?" क्यों? सोनू और विम्मो उनकी आवाज सुनकर सकपका गईं। उन्हें भैया के वहॉ होने का जरा भी अनुमान नहीं था।


सोनू का हाथ छुड़ा विम्मो सिर नीचा किये धीरे से वहाँ से चली गई।


सोनू ने भैया को कभी गुस्से में नहीं देखा था। उनके माथे की नसें उभर आई थी।


। "मैं देखता हूँ जगत को... कैसे.. वह हराम... जा... दा... - वे क्रोध से कॉप रहे थे। उनका यह रूप देखकर सोनू डर गई। उसे समझ नहीं आया कि वह क्या कहे।


भैया लगातार जगत को कोस रहे थे। जगत की सच्चाई का अब तक पता न चल पाने का उन्हें जितना दुख था उससे भी अधिक हैरानी थी।


"सोनू ने इस बात का जिक्र.उनसे क्यों नहीं किया? क्यों उस नर्क में जीती रही? "-वे बहन के दुख से । व्यथित हो उठे।


उन्होंने सोनू की ओर देखा और मन-ही-मन कुछ निर्णय लेते हुए उसे अपने सीने से लगा लिया।


प्यार से सिर पर हाथ फेरते हुए बोले- “तेरे सुख-दुख का सम्बन्ध... इस घर से.. तेरे इस भाई से ख़त्म नहीं हुआ है। बहना । तेरा विवाह... जरूर उस घर में हो गया हो... लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि... तु. अब इस घर की नहीं रही।... घर की बहन-बेटी को... उसकी ससुराल में जिस किसी हालत में... जीने के लिए नहीं छोड़ा जा सकता... तेरा यह भाई अभी जिंदा है गुड़िया ! तुझे किसी से भी डरने की जरूरत नहीं है।” और सचमुच नन्ही गुड़िया की तरह सोनू ने अपना सिर उनके सीने में छुपा लिया था। 



 


 


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