Abhinav Imroz, September 2018

संपादकीय



लिखने का कारण:
नासिरा जी द्वारा सम्पादित दो कहानी विशेषांक: 2015 में ‘‘मेरे वारिस मेरे कलमकार’ और 2016 में विदेश में हिन्दी कहानियों की गुलदोज़ी’ अपने आप में अभिनव इमरोज़ की एक निहायत कामयाब कोशिश थी। इसी संदर्भ में याद आया कि उसमें भी यही सवाल प्रत्येक रचनाकार से पूछा गया था कि लिखने का कारण क्या है ? ‘मैं क्यों लिखता/लिखती हूँ’ जिसका रिसपोन्स बेहद दिलचस्प रहा था। इन दोनों अंकों में 65 रचनाकारों ने भाग लिया था। इसी विषय पर प्रताप सहगल का एक लेख पढ़ने को मिला- ‘लिखने का कारण जो मुझे बेहद पसंद आया उसी का एक अंश मैं अपने पाठकों के साथ साझा कर रहा हूँ-



          ‘‘........लिखने का कारण आखिर है क्या? आत्म-मंथन या आत्मशोध! आत्मरति या आत्मपीड़न! आत्मग्लानि या आत्मदया! आत्मश्लाघा या आत्मालोचन! आत्मचिंतन या आत्मदर्शन! आत्मसुख या फिर आत्मविस्तार!
          अंदर से बाहर की ओर जाना है या बाहर से अंदर की ओर लौटना, खुद को पहचानना है खुद को रेखांकित करना, आनंद की उपलब्धि है आनंद तक पहुँचने की प्रक्रिया, लिखना पीड़ा है या पीड़ा से मुक्ति।
          लिखने का कारण आखिर है क्या? हर लेखक ने दार्शनिक की मुद्रा अख्तियार कर इसे यक्ष-प्रश्न का उत्तर खोजने की कोशिश की है, पर यह प्रश्न है कि आज भी यक्ष-प्रश्न है।
          शायद! यह कारण! शायद वह हेतु! शायद साँस लेने की विवशता। शायद अकारण ही कुछ करते चले जाने की आदत। फिर भी प्रश्न तो है, प्रश्न है जो सिर पर फैले अंतरिक्ष में त्रिशंकु की तरह लटका है, त्रिशूल की तरह जहन में धंसा है और त्रिभुज की रेखाओं की तरह से जुड़ा है, कभी आयताकार होता है तो कभी वृत्ताकार।
          पर यक्ष-प्रश्न है यह और हर लेखक युधिष्ठर। सत्य खोजता है बार-बार, कभी युधिष्ठिर बनकर कभी नचिकेता बनकर तो कभी युयुत्सु बनकर। खोजता है बार-बार अपनी तरह से, अपनी समझ से, अपनी सीमाओं और अपनी विवशताओं में।
          लेखन मेरे लिए शायद कुछ सवालों से टकराते हुए लस्त-पस्त होते चले जाने से बचना है, शायद प्रतिरक्षा की ऊल-चूल डूबी एक जरूरत। टकराहटें एक काला धब्बा बनकर मेरे रू-ब-रू खड़ी हो जाती हैं। शायद एक काला धब्बा लिखने के लिए काफी है। पानी हो पर नल में पानी न हो तो एक रचना जन्म ले सकती है। सड़क हो लेकिन चलने के लिए पगडंडी न हो तो कुछ लिखने का कारण हो सकती है। सड़क पर टायर के निशान, दीवार पर खून के छींटे, गली में जलता मकान, बाजार में उठती एक चीख, आसमान में टंगा मटमैला चांद, बहार को शर्मिंदा करता हुआ बगीचे में सिर झुकाए खड़ा एक फूल, घर की अलगनी पर टंगा धूप का एक थका हुआ टुकड़ा, दम तोड़ते सूरज की रोशनी और सीने में एक-एक रेशा-गुत्थमगुत्था-कुछ भी तो लिखने का कारण हो सकता है। आँखों में बीनाई हो, हाथों में हरकत और अंदर पलती हुई एक आदिम जिद।
          लेखन मेरे लिए सवालों से सिर्फ टकराना ही नहीं, अंदर कहीं गहरे धंसे, मुड़े-तुड़े, गले-सड़े कांटों को फूलों की शक्ल देने की कोशिश करना भी है, उन्हें एक गुलदस्ता बनाकर अपने अंदर सजा कर रखने का राजहठ है, दूसरे भी वैसा ही सोचें, वैसे ही गुलदस्ते को अपने अंदर की रौनक बना लें- कहीं एक मासूम बच्चे का अड़ियलपन भी है।
          अनुभवों की तहरीर और तासीर कलम पकड़ने के लिए मजबूर करती है। अनुभव संवेदना के साथ लिपटे चले आते हैं।
बेहतरीन/बेतरतीब। खुले रेतीले मैदानों में चैकड़ी भरता एक बच्चा, मरुस्थल में अकेला खड़ा एक दरख्त, हरियाली के बीचों-बीच घिरा एक तालाब, मौत का कोई खौफनाक लम्हा, कारीगर के हाथों शक्ल लेती कोई तस्वीर, माल-असबा, ढोल-ढमाके, शोर-शराबा, शोर के बीचों-बीच फैली मुर्दनी, इतिहास मे दफ्न रूहों से जिन्दा बातचीत, कौमी सवालों से जंग, दुनियावी सवालों की शिनाख्त, एक अज्ञात शुरुआत से दो-दो हाथ, माथ के अंदर उठती एक झनझनाहट। लिखने का कारण आखिर और क्या हो सकता है?
          परंपरा का स्वीकार, परंपरा का निषेध, परंपरा की पहचान, परंपरा का विस्तार या परंपरा को नई पोशाक पहनाकर आधुनिक लगने की होड़? क्या आधुनिक बनना या आधुनिक दिखना भी लिखने का कारण हो सकता है? याकि उत्तर-आधुनिक होना, उत्तर-उत्तर आधुनिक, बिना यह परवाह किए कि परंपरा की जड़ों में आधुनिकता ने अभी कितनी जगह बनाई है। आधुनिकता से छलांग लगाकर चमकदार पर्दों पर कुछ उकेरने की ललक, साइंटिफिक टैम्पर देने वाली आधुनिकता की पहचान दूध पीती गणेश की हजारों मूर्तियाँ, नर-बलि का अंधा पिशाच- जैसे जड़ता का भीमकाय पर्वत रख दिया हो मेरे समय ने मेरी छाती पर। क्या लिखना अपने समय से बाहर होना है? याकि समय में भी और समयातीत भी। क्या हो सकता है कारण लिखने का?
          शब्द बार-बार मेरी रगों में रंग बदल-बदल कर बहते है, नई-नई शक्लें अख्तियार करते हैं, बुलाते हैं अपनी ओर कि आओ! हमें पढ़ो, हमें समझो, हमें अर्थ दो, विस्तार दो हमें। संकेतों की परिधियों से बाहर असीम अनंत दिशाओं में परवाज लेते हैं शब्द और प्रायः लहूलुहान होकर लौटते हैं। शायद यही उनकी नियति है.......।’’



राजौरी गार्डन, नई दिल्ली, मो. 9810638563, 7217745878


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