डा. व्यास मणि त्रिपाठी, पोर्ट ब्लेयर, अण्डमान, मो. 9434286189 भारतीय भाषाओं में सृजित साहित्य की समष्टि भारतीय साहित्य है। इसका परिक्षेत्र कश्मीर से कन्याकुमारी (अब ग्रेट निकोबार का अंतिम भूभाग-इंदिरा प्वाइंट) तक विस्तृत है। चार कोस पर पानी और आठ कोस पर बानी बदल जाने की कहावत की चरितार्थता के परिप्रेक्ष्य में यह अन्दाजा लगाना कठिन नहीं है कि इस व्यापक भूभाग में कितनी भाषाओं और बोलियों का अस्तित्व है। सबका रंग अलग, ढंग अलग, पहचान और स्वभाव अलग फिर भी भारतीयता के गमले में सजकर लगभग एक ही चेतना और भाव से समृद्ध एकात्मकता की सुगन्ध विकीर्ण करने में समर्थ। इन्द्रधनुषी छटा बिखेरने वाला भारतीय साहित्य अपनी आभा से सबको चमत्कृत और आकृष्ट करने में सक्षम है तो इसलिए कि उसमें ऊष्मा, ऊर्जस्वलता तथा मिट्टी की सोंधी सुगन्ध के साथ ही क्षैतिज विस्तार में प्राणिमात्र से जुड़ने की आकांक्षा है। मानवता का कल्याण और विश्व बन्धुत्व की कामना है। इसीलिए भारतीय भाषाओं के साहित्य की अपनी निजी विशेषता के बावजूद उनमें एक ऐसी चेतना की विद्यमानता है जिसमें भारतीयता का रंग है, जीवन-मूल्यों को जीने का ढंग है, आध्यात्म
अभिशप्त कहानी ‘निरंजन सिंहा, तूं की कमाया, एवें जान खपायी, लोकां ने मक्सीकियां व्याइयां, गोरियां बसाइयां, पुतकुड़ियां जने-व्याहे। तूँ कलमकल्ला (अकेला) खाली-दा-खाली। भाई-भतीजे ही आरे लांदा रया। फिर आप-से-आप एक लंबी उसांस भर वह कुर्सी से उठ खिड़की के पास खड़ा हो जाता है, पर्दा हटा बाहर देखने लगता है, बाहर लॉन पर कोई पानी की नाली खुली छोड़ गया है और सारी सड़क पर पानी इकट्ठा होता जा रहा है। कोई और वक्त होता, तो आवाज दे देता। बस आज एकटक आसमान की ओर देखता रहता है, चिड़ियों का एक झुंड चांव-चांव करता आसमान से गुजर गया है। वह मन-ही-मन गुनगुनाता है, ‘पंछी चले रैन-बसेरे।‘ फिर जोर से गुनगुनाता--‘पंछी चले रैन बसेरे।‘ फिर एकाएक चुप हो जाता है। एक उसांस भर भरता है, और ‘निरंजना, तेरा रैन बसेरा बी हुण छेती आ जायेगा।‘ फ्रिज तक जाते हुए घुटने का दर्द और तेज हो जाता है। वह बीयर पीते हुए अखबार की सुखियां पढ़ना शुरू कर देता है। इधर नजर इतनी जाती रही है कि मोटी छपाई के अलावा कुछ पढ़ ही नहीं पाता। मास्टर भी तो कई दिनों से नहीं आया। उसके शहर के जान-पहचानवाले का दोहता है, जब से आया है, मास्टर की सारी जिम्मेदारी अपने प
डाॅ. सरोजिनी प्रीतम, नई दिल्ली, मो. 9810398662 बांकेलाल की जब से नौकरी छूटी थी उसे जैसे कुर्सी के प्रति एक अजीब सा प्यार उभड़ आया था.... जिसे प्यार करो वह दुलत्ती मार कर फेंक दे तो भी सच्चा प्रेमी अपनी धूल झाड़कर उसी मोह में पुनः खिंचा चला जाता है। घर में पत्नी ही थी जो उनके इस मानसिक आघात को समझ सकती थी। अतः घर की एक पुरानी प्लास्टिक की कुर्सी उनकी चारपाई के पास रखकर हंस हंस कर समझाती, तुम तो अभी भी बॉस ही हो, बैठो कुर्सी पर और मैं सारे हुक्म बजा लाऊंगी- लो पहले पानी, फिर चाय.... फिर हम दोनों गपशप करेंगे। तब तक लंच टाइम हो जायेगा.... बांके ने कुर्सी को फटी फटी नजरों से देखा और समझौता कर लिया। पर कुर्सी का भूत जिन्न बन गया जब भी पत्नी बच्चे यहां-वहां होते वे कमरा बन्द करके कुर्सी पर बैठ जाते- अरे कोई है का तूफान उठा देते और फिर अपने आपको समझा बुझाकर पुरानी किताबों, अखबारों में खो जाते। मन बीमार सा हो चुका था। जीवन व्यर्थ दिखाई देने लगा। कल के बच्चे भी दफ्तर जाने लायक हो चुके थे। खाने खिलाने के दिनों को भूलकर अफसरी करने लगे। अपनी ही आंखों के आगे बेटे भी फर्राटेदार गाड़ियों में अपनी पत्नियो