डा. व्यास मणि त्रिपाठी, पोर्ट ब्लेयर, अण्डमान, मो. 9434286189 भारतीय भाषाओं में सृजित साहित्य की समष्टि भारतीय साहित्य है। इसका परिक्षेत्र कश्मीर से कन्याकुमारी (अब ग्रेट निकोबार का अंतिम भूभाग-इंदिरा प्वाइंट) तक विस्तृत है। चार कोस पर पानी और आठ कोस पर बानी बदल जाने की कहावत की चरितार्थता के परिप्रेक्ष्य में यह अन्दाजा लगाना कठिन नहीं है कि इस व्यापक भूभाग में कितनी भाषाओं और बोलियों का अस्तित्व है। सबका रंग अलग, ढंग अलग, पहचान और स्वभाव अलग फिर भी भारतीयता के गमले में सजकर लगभग एक ही चेतना और भाव से समृद्ध एकात्मकता की सुगन्ध विकीर्ण करने में समर्थ। इन्द्रधनुषी छटा बिखेरने वाला भारतीय साहित्य अपनी आभा से सबको चमत्कृत और आकृष्ट करने में सक्षम है तो इसलिए कि उसमें ऊष्मा, ऊर्जस्वलता तथा मिट्टी की सोंधी सुगन्ध के साथ ही क्षैतिज विस्तार में प्राणिमात्र से जुड़ने की आकांक्षा है। मानवता का कल्याण और विश्व बन्धुत्व की कामना है। इसीलिए भारतीय भाषाओं के साहित्य की अपनी निजी विशेषता के बावजूद उनमें एक ऐसी चेतना की विद्यमानता है जिसमें भारतीयता का रंग है, जीवन-मूल्यों को जीने का ढंग है, आध्यात्म
आरती स्मित, दिल्ली, मो. 8376837119 समय जब-जब करवट बदलता है, परिस्थितियाँ जब- जब वेगवती होती हैं, इतिहास जब-जब कुछ नया रचने की माँग करता है, एक युगपुरुष पैदा होता है जो संक्रांत क्षणों को इतिहास के पन्नों पर स्वर्णाक्षरों से लिख जाता है और छोड़ जाता है अमिट छाप अपनी.... कालजयी हो जाता है। और आधुनिक हिंदी भाषा-साहित्य के इतिहास में भारतेन्दु हरिश्चंद्र, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के पश्चात यदि कोई नाम आता है तो वह है कथाकार प्रेमचंद का, जिन्होंने गद्य साहित्य को नया जीवन दिया। प्रेमचंद हिंदी कथा जगत का एक ऐसा नाम है जिसे 7-8 वर्ष के बच्चे से लेकर 95 वर्षीय वृद्ध भी जानते हैं, जिन्होंने उन्हें पढ़ा ही नहीं, अपने-अपने अनुसार गुनने-धुनने का भी काम किया है और निष्कर्ष भी सुनाया है... 'प्रेमचंद हमारे टाइप के लेखक हैं, उन्हें समझने के लिए बहुत दिमाग नहीं लगाना पड़ता'। तो क्या प्रेमचंद की सभी रचनाएँ इतनी सरल है कि उसमें कोई गूढ़ार्थ नहीं, किसी विमर्श की गुंजाइश नहीं, उनकी कृतियों से संदर्भित किसी मुद्दे पर बहस की आवश्यकता नहीं ? क्या वह आम जनों की पीड़ा या प्रसन्नता व्यक्त करती आम जन
डाॅ. सरोजिनी प्रीतम, नई दिल्ली, मो. 9810398662 बांकेलाल की जब से नौकरी छूटी थी उसे जैसे कुर्सी के प्रति एक अजीब सा प्यार उभड़ आया था.... जिसे प्यार करो वह दुलत्ती मार कर फेंक दे तो भी सच्चा प्रेमी अपनी धूल झाड़कर उसी मोह में पुनः खिंचा चला जाता है। घर में पत्नी ही थी जो उनके इस मानसिक आघात को समझ सकती थी। अतः घर की एक पुरानी प्लास्टिक की कुर्सी उनकी चारपाई के पास रखकर हंस हंस कर समझाती, तुम तो अभी भी बॉस ही हो, बैठो कुर्सी पर और मैं सारे हुक्म बजा लाऊंगी- लो पहले पानी, फिर चाय.... फिर हम दोनों गपशप करेंगे। तब तक लंच टाइम हो जायेगा.... बांके ने कुर्सी को फटी फटी नजरों से देखा और समझौता कर लिया। पर कुर्सी का भूत जिन्न बन गया जब भी पत्नी बच्चे यहां-वहां होते वे कमरा बन्द करके कुर्सी पर बैठ जाते- अरे कोई है का तूफान उठा देते और फिर अपने आपको समझा बुझाकर पुरानी किताबों, अखबारों में खो जाते। मन बीमार सा हो चुका था। जीवन व्यर्थ दिखाई देने लगा। कल के बच्चे भी दफ्तर जाने लायक हो चुके थे। खाने खिलाने के दिनों को भूलकर अफसरी करने लगे। अपनी ही आंखों के आगे बेटे भी फर्राटेदार गाड़ियों में अपनी पत्नियो