आरती स्मित, दिल्ली, मो. 8376837119 समय जब-जब करवट बदलता है, परिस्थितियाँ जब- जब वेगवती होती हैं, इतिहास जब-जब कुछ नया रचने की माँग करता है, एक युगपुरुष पैदा होता है जो संक्रांत क्षणों को इतिहास के पन्नों पर स्वर्णाक्षरों से लिख जाता है और छोड़ जाता है अमिट छाप अपनी.... कालजयी हो जाता है। और आधुनिक हिंदी भाषा-साहित्य के इतिहास में भारतेन्दु हरिश्चंद्र, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के पश्चात यदि कोई नाम आता है तो वह है कथाकार प्रेमचंद का, जिन्होंने गद्य साहित्य को नया जीवन दिया। प्रेमचंद हिंदी कथा जगत का एक ऐसा नाम है जिसे 7-8 वर्ष के बच्चे से लेकर 95 वर्षीय वृद्ध भी जानते हैं, जिन्होंने उन्हें पढ़ा ही नहीं, अपने-अपने अनुसार गुनने-धुनने का भी काम किया है और निष्कर्ष भी सुनाया है... 'प्रेमचंद हमारे टाइप के लेखक हैं, उन्हें समझने के लिए बहुत दिमाग नहीं लगाना पड़ता'। तो क्या प्रेमचंद की सभी रचनाएँ इतनी सरल है कि उसमें कोई गूढ़ार्थ नहीं, किसी विमर्श की गुंजाइश नहीं, उनकी कृतियों से संदर्भित किसी मुद्दे पर बहस की आवश्यकता नहीं ? क्या वह आम जनों की पीड़ा या प्रसन्नता व्यक्त करती आम
डाॅ. दामोदर खड़से, पुणे, मो. 9850088496 कविता उम्मीद कभी-कभी लगता रहा मुझे समय कैसे कटेगा ज़िंदगी का जब होगा नहीं कोई फूल बहेगी नहीं कोई नदी पहाड़ हो जाएंगे निर्वसन मौसम में न होगा कोई त्यौहार हवाओं में होगी नहीं कोई गंध समुद्र होगा खोया-खोया उदास शामें गुमसुम-गुमसुम और सुबह में ना कोई उल्लास... कैसे कटेगा तब समय ज़िंदगी का ? मैं होता रहा सदा अकेला.... पर ऐसे में आ जाती है कोई आवाज भीतर से मंदिर की घंटी की तरह.... ज्यों जाग गए हो देवता सारे! चारों ओर हो रहे मंत्रोच्चार से लद गए हों वृक्ष-वनस्पतियां धूप की रोशनी में दिख रहा हो सब पारदर्शी जाग गई हो प्रकृति सारी और समय मेरे कानों में फुसफुसता है जोर से मैं थाम लेता हूं अचकचा कर पानी से भरे बादलों को और नमी मेरे भीतर तक दौड़ जाती है... अपनी धरती से उठती आवाज़ जगाती उम्मीद बहुत है फिर लगता है बहुत सहारे बाकी हैं अभी! डाॅ. कुसुम अंसल, नई दिल्ली, मो. 9810016006 मेरे मित्र ।। एक ।। मेरे मित्र... तुम देह नहीं स्वर थे- एक सूफ़ियाना कलाम साधना जो आंतरिक थी संकल्प... कविता के स्वर के प्रति तुम्हारे स्वर, स्पेस की शून्यता में निःस्वर-स्थिति को उभारते थे
आपकी विकास यात्रा आपके होश सम्भालते ही आरंभ हो चुकी थी, आपकी महत्वाकांक्षाओं का बहता नीर, जिज्ञासाओं के आवेग से बहता हुआ अंतस की खोज में निरंतर गति से अब एक सरिता का रूप धारण कर चुका है। आपकी आत्मविकास यात्रा का सबसे महत्वपूर्ण पहलू आप की साकारात्मकता है जो आपके सम्पर्क में आने वाले प्रत्येक व्यक्ति को अभिव्यक्ति की प्रेरणा देता है, साहित्य के प्रति निष्ठा भी संपुष्ट संस्कारों की देन है। दो अलग-अलग परिवारों की सांस्कृतिक परिवेश से उपजा आप का व्यक्तित्व उस साकारात्मकता से निर्मित हुआ है जिसने आपकी विचारधारा को संपुष्ट ही नहीं सशक्त एवं संप्रेषणीय भी बनाया है। यह आपकी साकारात्मकता ही है जिसने आप के व्यक्तित्व को परिष्कृत और जीवन मूल्यों से समृद्ध भी किया है। मेरी शुभकामनाएँ - संपादक आत्मकथ्य डॉ. मेधावी जैन, गुरुग्राम, मो. 981120773 मेरा जन्म एक मिश्रित सांस्कृतिक वाले परिवार में जनवरी, 1977 को हुआ। मेरे पिता श्री बिमल गुप्ता, बनिया एवं मेरी माता श्रीमति शशि किरण पाहुजा, पंजाबी जाति से हैं। बचपन से ही मुझे इन दोनों संस्कृतियों को नजदीक से देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। दोनों ही सभ्यताओं क