अपनी बात
गज़लें
अपनी बात। एक दिन मेरी गजल ने मुझसे पूछा- कैसा लगता है साथ हमारा? मैं सन्न रह गया! ये सोच भी नहीं सकता था कि गजल इस तरह का सवाल मुझसे करेगी! वो गजल जिसे मैं इतना सहेज कर रखता हूँ, सम्हाल कर रखता हूँ, एक - एक हर्फ को बोलने से पहले कई – कई बार तोलता हूँ, सोचता हूँ, फिर जो सबसे बेहतरीन मुझे लगता है, उसे बोलता हूँ। वो जानती है कि जान से भी ज्यादा उसे चाहता हूँ। ये दीगर बात है कि कभी कभार व्यवसायिक दौरों के कारण कुछ दूर हो जाता हैं, लेकिन वहां भी तो वह मेरे जेहन में समायी रहती है। मैं बहुत सम्हलकर उसे बस इतना ही कह सका - "आज ये सवाल मुझसे क्यों?"
–“सवाल का जवाब सवाल से नहीं दिया जाता! इसे तौहीन समझा जाता है! ये जानते हो न तुम?"
-“बिल्कुल! लेकिन उत्तर जानते हुए भी सवाल का पूछना कहाँ तक जायज है?" -“बार - बार सुनना अच्छा लगता है इससे किया गया वायदा भी तरो-ताजा हो जाता है।"
-चलो यही सही। तो सुनो .... मैं काबिल हूँ कि नहीं...
... नहीं जानता! मैं मुक्कमल नहीं हूँ... ये जरूर जानता हूँ क्योंकि ताजिन्दगी तुम्हें पढ़ना, गढ़ना, सीखते रहना चाहता हूँ। और जिस दिन मैंने ख्वाब में भी यह सोच लिया कि तुम्हें अच्छी तरह जान गया हूँ, सीख लिया हूँ- उसी दिन से मेरे सामने इक ढलान होगा और मैं उस ढलान पर होऊंगा। जो मुझे जरा भी बर्दाश्त नहीं। और खुदा - नाखास्ता अगर ऐसा हुआ तो मेरी गलतियों पर अधिकार के साथ कान उमेठने वाले मेरे उस्ताद जनाब जफर सिद्दीकी और गुरूवर डॉ मधुसूदन साहा मुझे थोड़े ही बख्शेंगे! मेरी हर हरकत पर नजर रखने वाले उस्तादों के बदौलत ही तो तुम्हारे साथ इतना खुश हूँ।... सॉरी..मैं बहक गया था।
हाँ तो मैं ये कह रहा था कि मैं काबिल हूँ या नहीं, मुक्कमल हैं या नहीं... इससे मुझे फर्क नहीं पड़ता.... तो बस इतना जानता हूँ मैं जैसा भी हूँ... बस तुम्हारा हूँ..... और तुम्हारा ही बने रहना चाहता हूँ आखिरी सांसों तक।”
गजल मेरी ओर देखकर मुस्कुरायी। अपना हाथ बढ़ाया और हम दोनों एक दूसरे का हाथ थामे आगे बढ़ चले। -गज़लकार