चन्द्रशेखर आज़ाद
चन्द्रशेखर आज़ाद
मैं खुरचना चाहती हूँ चन्द्रशेखर
इस कलम की नोंक से।
इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क की / वह मिट्टी
तुम्हारे लहू से भीगी हुई
देखना चाहती हूँ उसका सुर्ख / लाल रंग ।
मेरी धमनियों में खून का रंग उड़ चुका है ।
भूल चुकी हूँ तुम्हारे नाम, संघर्ष यातनाएं ।
ये वो वक्त नहीं है।
कि मासूमियत से लिया एक कटोरी उधारा नमक
कर्जदार बना दे।
सुननी पड़े माँ को तिवारी जी की गहन फटकार
‘एक दिन बिना नमक नहीं खा सकते ।
भावरा की उस झोंपड़ी में तुम्हारा जन्म
सुरंग में सूरज उगने जैसा
ना सड़क, ना संचार
ना मानचित्र पर कोई निशान ।
वो क्त विद्या और छड़ी के सम्बन्ध का था।
था‘छड़ी लगे छम छम, विद्या येई घम् घम'
जब राष्ट्र-भक्ति की रौ में
विवेकी निरामिष भोजी / कच्चा अंडा गटक जाए !
यूँ भी भूख का कोई मजहब नहीं होता।
पेट के संकट पर व्यवस्थाएं
सवाल- जवाब नहीं करती
‘पूंजी शाहों की गुलाम होती है।
वह गरीबी से, भावनाओं से ।
कदापि हाथ नहीं मिलाती।
ककोरी केस में
शाहजहांपुर - लखनऊ आठ डाउन रेल की तिजोरी से
मात्र चार हजार पांच सौ तिरेपन के बदले
चढ़ा दिये सूली पर
अशफाक, राजेन्द्र लाहिड़ी, रोशन, बिस्मिल !
लाल हवाओं में आवाद स्वप्न देखना / गुनाह है!
एक ही रंग की थी उनकी लड़ाई
उनकी देशभक्ति
तमन्नाएं सरफरोशी की !
इस कलम की नोंक तर है, आज़ाद !
बेशक तुम्हारी आँखों से लहू बरसा होगा।
साथियों को फांसी के तख्ते पर झूलते देख !
तुम तो आज़ाद थे
इसलिए लॉघ गये पहाड़, नदी जंगल ।
ढूंढते रहे फिरंगी कदमों के निशान
शहर – शहर, गाँव-गाँव / बदलते रहे आँखों के नम्बर
तुम कभी साधु, ड्राइवर, मैकेनिक
तो कभी सत्याग्रही बन
करते रहे ‘क्रान्ति दल' की कमान्डरी।
‘पुलिस टार्चर को अनुभव करने
जहां रघुनाथ ने खुद की दाग ली अपनी छाती /
तते-लाल चिमटे से !
डॉट - फटकार के बाद
चादर में मुंह दबाये कितना रोये थे तुम
साथियों की दीवानगी पर
नहीं चाहते थे कोई साथी पुलिस के हत्थे चढ़े
बन जाए ईंधन बन्दूक का !
सो, ना तस्वीरें, ना असल नाम- पते उनके !!
मूछों पर ताव देते हुए वो तस्वीर
मास्टर रुद्रनारायण के अति आग्रह पर / खिंचवाई थी तुमने
दूसरी उनके बीवी बच्चों के सवाथ
चिन दिया था जिन्हें दीवार में दुश्मनों के हाथ लगने से पहले !
गुलाम देश में गद्दारों की कमी नहीं होती
वो पीड और चेहरे खूब देखे तुमने
27 फरवरी 1931 की वो सुबह
जब गद्दारी और लोभ की मुट्ठी गरम हुई
तुम्हारा ‘बततुल बुखारा और नॉट बावर की गोलियां/जब थमीं
तुम आज़ाद हो चुके थे
पूरी हुई तुम्हारी वह कसम भी
'किस माई के लाल ने दूध पिया, जो जीते जी पकड़ सके मुझे !
पोस्ट मार्टम, दाह-संस्कार जब छुप्पम छुपाई
फिरते रहे 'अपने जन त्रिवेणी घाट / कभी रसूलाबाद!
सॉझ ढलते रहे वह जामुन का पेड़ भर गया।
आज़ाद - आज़ाद के नामों से
वन्यता की दहाड़ भरते नये पांवों ने घेर लिया उसे
घिघियाई हुकुमत ने उसे उखाड़वा दिया / उसी रात !
आखरी सांस तक पूछती रही माँ / लोग कहते हैं।
‘मैं निपूती हो गई। / चन्दू क्या सच में मर गया !!?
मैं लिख रही हूँ तुम्हें आज़ाद !
इस फुटपाथिया कलम से
मगरमच्छों के तालाब के बीच
नॉट बावर की गोली भी यहीं कहीं है।
घुडीदार सांकल में पैर फंसे हैं।
कलाई की नस में लहू में टिटोलती हूँ तुम्हें खड़ी
आजाद! आज़ाद!! आज़ाद!!