जीवन जीता रहा दिया सा

गीत


‘जीवन जीता रहा दिया सा'


जब से धरती पर पग धारा, जब से अपना होश संवारा।


अपने लिए सोच न पाली, सब पर अपना तन मन सारा।


एक एक पल सजग रहा हूँ, कभी नहीं भटका मान मारा।


जितना भी बन सका किया सा, जीवन जीता रहा दिया सा।


 


जिसने सूरज बांध लिया है, उसने खुद के लिए जिया है,


जीवन तो उसका जीवन है, जिसने जग के लिए जिया है।


पर हितकारी के जीवन में, हर पल में संतोष भरा है।


सारा सागर पी लेने पर, फिर भी लगता नहीं पिया सां


 


तुलसी के विरवा को भूला, नागफनी को गले लगाया।


सत्यवती को धता बताकर, जनकल्याण को अपनाया।


पगड़ी की परवाह नहीं की, फिरा भले ही मारा-मारा।


घूमा जाल लिए फेसिया सा, जीवन जीता रहा दिया सा।


 


खुदके मुंह पर कालख मलकर, रहा भटकता डगडगर पर


जग ने समझाया न माना, समझा खुद को परम सयाना।


अब सिर धुनना हाथ लगा है, रोने को कम है जग सारा।


पाया वैसा स्वयं किया सा, जीवन जीता रहा दिया सा।


 


औरों को समझाने निकला, स्वयं समझ में कुछ न आया।


जग से रिश्ते लगा बांधने, ख को बांध न पाया।


जैसी करनी तेरी भरनी, कहता है पर मान न पाया।


मिला वही जो सदा किया सा, जीवन जीता रहा दिया सा।



मोहन तिवारी ‘आनंद भोपाल, मो. 9827244327


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