पगडंडियाँ

पगडंडियाँ


 जब भी देखता हूँ किसी राजमार्ग को


याद आती है पगडंडियाँ


बचपन में कहाँ जानता था


राजमार्ग के बारे में


उस समय तो


पगडंडियाँ ही थीं हमारे लिए राजमार्ग


जिन पर फर्राटे भरते हुए


हम जाते थे स्कूल


किन-किन पगडंडियों से


कितनी बार गुजरा है बचपन


लगता था कि वे सारी पगडंडियाँ


अपनी ही हों


इतना अपनापन


अब कहाँ मिलता है ?


पगडंडियों की धूल-गंध


इतनी जानी-पहचानी होती थी


कि आँख पर पट्टी बाँधकर खेलते समय भी


हम पहचान लेते थे


उस पगडंडी को,


मुझे अभी भी याद है


पगडंडियों की धूल पर


अंगुलियों से ककहरा लिखना


तरह-तरह की आकृतियाँ बनाना


वे पगडंडियाँ ही तो थीं


जो जोड़ती थीं


एक गाँव से दूसरे गाँव को


रचती थीं संबंधों का समाजशास्त्र


वे धमनियाँ थीं


ग्रामीण अर्थव्यवस्था की


पगडंडियाँ तो दिख जाती हैं आज भी


लेकिन यह कहना मुश्किल है


कि उन पर चलने वाले लोग


आज भी हैं पहले ही जैसे


पहले रास्ते संकरे होते थे


लेकिन उन पर चलने वालों का दिल


होता था बहुत बड़ा


आज रास्ते तो होते जा रहे हैं चैड़े


मगर उन चलने वालों का दिल


होता जा रहा है संकरा


और भी सँकरा


 


कितना कुछ बदल गया है


बचपन की यादें अब उदास करती हैं


गाँव से गायब होते गाँव


खत्म होती पगडंडियाँ


और सड़कों से बेदखल होते फुटपाथ


फिर बचेगा ही क्या


आम आदमी के लिए


वह आज भी खोजता है


अपने गाँव


संस्कृति


और बचपन को



 


Popular posts from this blog

अभिशप्त कहानी

हिन्दी का वैश्विक महत्व

भारतीय साहित्य में अन्तर्निहित जीवन-मूल्य