ग़ज़ल

ग़ज़ल


1.


तू अगर मोतबर नहीं होती


मेरी तुझ पर नज़र नहीं होती


 


कैसे फ़रहाद काटता पत्थर


कोई उम्मीद गर नहीं होती


 


शौक़ है गर तो शौक़िया ही लिखो


हर ग़ज़ल तो अमर नहीं होती


 


बात दिल से अगर निकलती है


शायरी बेअसर नहीं होती


 


रोशनी झांकती तो है घर में


कैसे कह दें सहर नहीं होती


 


ज़िन्दगी मुख़्तसर तो होती है


इतनी भी मुख़्तसर नहीं होती


 


कुछ लम्हें चैन से भी कटते हैं


कैसे कह दें गुज़र नहीं होती


 


बेचना या ख़रीदना है मना


शायरी मालो-ज़र नहीं होती


 


उस पे चलने का क्या मज़ा राही


राह जो पुरख़तर नहीं होती


 


2.


तुझ को देखा तो ज़िन्दगी देखी


चलती-फिरती हुई ख़ुशी देखी


 


फूल खिलता हुआ झिझक जाए


मैंने तुझ में वो ताज़गी देखी


 


जिस से पत्थर तलक पिघल जाए


मैंने ऐसी भी बन्दगी देखी


 


तेरी महफ़िल में देखने को मिली


कहकशां में जो दिलकशी देखी


 


तेरे चेहरे पे चांदनी-सी झलक


कल जो देखी थी आज भी देखी


 


दे न पाया तू वक़्त ज़्यादा पर


हम ने लम्हात में सदी देखी


 


हर तकल्लुफ़ फ़ज़्जूल लगता है


जब से तेरी ये सादगी देखी


 


सोच बिल्कुल बदल गई यारो


जब से राही की शायरी देखीI



Popular posts from this blog

भारतीय साहित्य में अन्तर्निहित जीवन-मूल्य

कुर्सी रोग (व्यंग्य)

कर्मभूमि एवं अन्य उपन्यासों के वातायन से प्रेमचंद