खिड़की से देखा तो...

 


कविताएँ


खिड़की से देखा तो...


 


न तुमने ही कोई सपना बुना था


चैखट पर अपनी मैं कबसे खड़ा था


उड़ने को कितना बड़ा आसमां था


खिड़की से देखा तो कोहरा घना था


सरोवर था लेकिन सूखा पड़ा था


हंसों का इक जोड़ा औंधा गिरा था


किस्से का अंजाम सबको पता था


खिड़की से देखा तो कोहरा घना था


लकीरों पर उसने जन्नत लिखा था


खत पर मगर दूसरे का पता था


ख्वाबों का कोई नहीं रहनुमा था


खिड़की से देखा तो कोहरा घना था


उम्मीदों से यूं तो मोहल्ला सजा था


रोटी को झगड़ा था, बाकी मजा था


गुरबत को उसने किस्मत कहा था


खिड़की से देखा तो कोहरा घना था


 


 


आइए लड़ते हैं !


कभी हवा में लड़ते हैं, कभी हवा से लड़ते हैं।


हम जैसे भी हैं, किसी की बददुआ से डरते हैं।


-आइए, लड़ते हैं!


खौफ की दुनिया का एक मंजर ऐसा भी


सफर में जब बच्चे, मां से बिछड़ते हैं।


-आइए, लड़ते हैं !


पहली बरसात में, हवा से उड़ जाती है।


माँ कसम ! हम उसी छत के नीचे रहते हैं।


-आइए, लड़ते हैं !


क्या कभी देखा है तारों को आपस में लड़ते हुए


औकात में रहते हैं, औकात में चमकते हैं।


-आइए, लड़ते हैं!


बिना तकनीक के उगते हैं पेड़ जंगल में


जो जड़ों से कट गए, वे दर-ब-दर भटकते हैं।


-आइए, लड़ते हैं !


गुरबत में हिन्दू है, दहशत में मुसलमान


आओ, इस दौर को, 1857 में बदलते हैं।


- आइए, लड़ते हैं !


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