मोअन जो दड़ों
मोअन जो दड़ों
नर्म महीन धूल के गुबार में लिपटी है
तवारीख़ की सदियों पुरानी दास्तान
करीने से जमी ईटें और अचूक नाप जोख
हज़ारों बरसों के बाद भी चैंकाती है
आज के नगर-शिल्पियों को
भुवन-विख्यात
मोअन जो दड़ों की नालियाँ बताती हैं
गन्दगी कैसे बहाई जाती है सफ़ाई से
यहाँ खड़े होने पर महसूस होता है
जैसे ये छत है दुनिया की
सन्नाटे की एक गूँज को सुनते लगता है
सदियों के कोलाहल पर भारी है
मोअन जो दड़ों की ख़ामोशी की धमक
पैरों के नीचे भूरी ख़ुश्क ज़मीन
ऊपर हल्का नीला आसमान
बीच में खड़ा विराट् स्तूप
गुम अपनी ही किसी सोच में
वातावरण की स्तब्धता को तोड़ती हवा
गुज़रती है जब करीब से
साफ़ सुनाई देता है
हड़प्पा संस्कृति का हाहाकार
सिन्धु घाटी की सभ्यता का आत्र्तनाद
अपार संपदा और विपुल ऐश्वर्य को
जिस सिन्धु नदी की करवट ने
बहा दिया था भयावह बाढ़ में
प्रकृति की चुनौती के सामने
हारी थी समझ जन-शक्ति की
निष्फल हुए थे बचाव के सारे प्रयत्न
आज भी
अपनी मंद गति और क्षीण काया के साथ
बहती है सिन्धु नदी
सोच-सोच कर चकित होती है
दूर तक दिखाई देती थीं
जिस महराण की आग की लपटें
आज वहाँ राख है
सिवाय जलते हुए अतीत की स्मृतियों के
बुझ चुका है सब कुछ।