संगीत सुनने-गुनने की तमीज़

 संगीत सुनने-गुनने की तमीज़


काफी पहले का किस्सा है। महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री यशवंतराव चव्हाण महान गायिका केसरबाई केरकर के एक कार्यक्रम में गए थे। श्रोताओं की अग्रिम पंक्ति में ही बैठे हुए चव्हाण जी के पास उनके कोई अधिकारी बार-बार आते और फुसफुसाते हुए, शायद किसी सरकारी काम पर, कुछ कहते। एक क्षण आया कि केसरबाई ने अपना गायन रोक कर चव्हाण जी से कहा - ‘‘अगर आपको कोई ज्यादा जरूरी काम है तो आप बेशक जा सकते हैं।‘‘ इसके बाद चव्हाण कार्यक्रम के खत्म होने तक बिना बाधित बैठे रहे। यह किस्सा न सिर्फ एक कलाकार के रूप में केसरबाई के आत्मविश्वास का प्रतीक है बल्कि एक रसिक के रूप में राजनेता चव्हाण द्वारा सुनने की तमीज पर चेताये जाने पर उस चेतावनी का सम्मान करने का भी है।


हमारी परम्परा में संगीत ब्रह्मानंद-सहोदर माना गया है। इसका आस्वादन कराने के लिए गायक या वादक से जिस स्तर की निष्ठा और कला की दरकार है लगभग उसी स्तर का श्रव्यात्मकअनुशासन श्रोता के पास नहीं है तो वह सिर्फ तमाशबीन बन कर रह जायेगा। रसिक होना सिर्फ भौतिक रूप से उपस्थित होना नहीं है, गायन या वादन का रस ग्रहण करने के लिए सर्वांग रूप से सन्नद्ध होकर बैठना है। पुराने जमाने की महफिलों और संगीत-कार्यक्रमों में जानकार श्रोता गायकवादक के ठीक सामने की पंक्ति में बैठते थे। उनकी उपस्थिति कलाकार को अच्छा से अच्छा गानेबजाने के लिए प्रेरित करती थी। आज भी वाराणसी और पुणे जैसी सुधी श्रोताओं से समृद्ध जगहों पर बड़े से बड़े कलाकार की चूक को पहचान कर टोक तक देने वाले श्रोता मौजूद हैं। पर दिल्ली जैसे माया से आवृत्त महानगरों में शास्त्रीय संगीत का कार्यक्रम संभव कराने वालों की प्रकृति में बदलाव आने से सुनने की तमीज़ पर भी असर पड़ा है।


आज दिल्ली जैसे महानगरों ज्यादातर बड़े संगीत-कार्यक्रम प्राइवेट कम्पनियों से लेकर पब्लिक सेक्टर की कम्पनियों की स्पांसरशिप के चलते संभव हो पा रहे हैं। इन कम्पनियों के अधिकारी और उनके परिजन ठीक सामने वाली पंक्ति में बैठते हैं और अक्सर सुनने की तमीज़ न होने के कारण बाकी तमीज़दार श्रोताओं की परेशानी का कारण बनते हैं। सबसे पहले तो शुभारम्भ का द्वीप मंच पर प्रज्जवलित करने के समय कम्पनी के शीर्षस्थ व्यक्ति अक्सर जूते पहने ही मंच पर चढ़ जाते हैं जो संगीत-कार्यक्रम की मर्यादा का बहुत खटकने वाला उल्लंघन होता है। फिर कार्यक्रम पूरे सुरूर में होता है तो ठीक सामने की पंक्ति में बेवजह-बेसमय आवाजाही शुरू हो जाती है। अपेक्षाकृत छोटी और जानकार व्यक्तियों की उपस्थिति वाली बैठकों में ऐसा वाहियात आचरण नहीं दिखता। मुझे उद्योगपति वी.एस. कपूर द्वारा आयोजित वी.एस.के. बैठकों में से एक में देखा हुआ विदेशी मूल का एक श्रोता याद आ रहा है। गायन शुरू होते ही वह पद्मासन लगा कर ऐसे ध्यान से बैठा जैसे सुनने की साधना कर रहा हो। वी.एस.के. बैठक जैसे आयोजनों में अन्य क्षेत्रों में ऊंचे पायदान तय कर चुके व्यक्तियों को साधारण श्रोता की तरह चुपचाप बैठ कर रसमाधुरी का पान करते देखना दुर्लभ अनुभव होता है। ऐसे व्यक्तियों में एक उल्लेखनीय नाम है भूतपूर्व मंत्री वसन्त साठे का ।


यह उस्ताद बिस्मिल्ला खान के अंतिम तीन-चार वर्षों में हुई दिल्ली की एक संगीत-सभा थी। तालकटोरा स्टेडियम में उस्ताद अमजद अली खान के साथ उनकी जुगलबंदी हो रही थी। तीन-चार मिनट हुए नहीं कि पीछे की कतार में बैठे कुछ युवा श्रोताओं ने समवेत तालियां बजाते हुए ऐसे दाद देनी शुरू की जैसे पॉप-म्यूजिक का कार्यक्रम हो रहा हो। उस्ताद बिस्मिल्ला खान के चेहरे पर आश्चर्य उभरा ही था कि तत्काल अमजद अली खान साहब ने हाथ उठा कर श्रोताओं से तालियां बंद करने का अनुरोध किया। जाहिर है, वे श्रोता उत्सुकता में आ तो गये थे पर शास्त्रीय संगीत सुनने की तमीज़ से नावाक़िफ़ थे।


टेक्नोलॉजी के प्रताप से दुलर्भ पुरानी रेकर्डिंग की कमियां हटा कर महान गायकों-वादकों की कला से रूबरू हो पाना संभव हो गया है। पर टेक्नोलॉजी से ही संभव हुआ सेलफोन आज की तारीख में सुधी श्रोताओं के श्रव्यानंद में सबसे बड़ी बाधा साबित हो रहा है। आयोजकों के विशेष रूप से अनुरोध किये जाने के बावजूद कुछ श्रोता सेलफोन बंद कर नहीं बैठते हैं और पास बैठे अन्य श्रोताओं को बार-बार परेशान करते हैं। मुझे दिल्ली के नेहरू पार्क में हर साल आयोजित होने वाले भक्तिउत्सव की एक शाम याद आ रही है। अरूणा साईराम अच्छा-खासा भजन गा रही थीं। मेरे पीछे ही खड़े एक महाशय अपने सेलफोन पर जोर-जोर से बात करने लगे। एक वृद्ध महिला अपनी जगह से उठीं और उस सेलफोनधारी के पास बिना कुछ बोले हाथ जोड़ कर खड़ी हो गयीं। तब भी वह आदमी बात खत्म कर ही वहाँ से हटा कुछ साल पहले तक दिल्ली के इण्डिया गेट पर ‘इण्डिया टुडे‘ समूह द्वारा ‘स्वर-उत्सव‘ नामक संगीत समारोह का आयोजन हुआ करता था और उसमें एक से बढ़ कर एक गायकों का आना होता था। उस आयोजन में खाने, के स्टॉल भी लगा करते थे। यह देखना सुखद अनुभव नहीं होता था कि तम्बुओं के अंदर सिद्ध गायक गजब का गा रहे हैं और अंदर बैठे श्रोताओं से कुछ ही कम संख्या में अन्य ‘श्रोता‘ बाहर खाने के स्टॉल पर चबर-चबर खाते हुए बतिया रहे हैं।


कहने वाले कह सकते हैं कि आज का युग तो भागमभाग का है, वह पुरानी तल्लीनता या अनुशासन कहाँ से लायें। ऐसा कुछ नहीं है। भाग रहे हो तो भागते ही रहो पर संगीत सुनने बैठे हो तो सुनने की तमीज़ से बैठो। हर कृत्य का एक अनुशासन होता है। संगीत कोई इन्स्टैंट टॉफी नहीं है कि भागते-भागते निगल लें और रस पा लें। महान क्रांतिकारी चंद्रशेखर आज़ाद एक बार एक जगह से गुज़र रहे थे। बेहद सुरीली आवाज़ में कोई गायिका गा रही थी और उस गायन के सम्मोहन में आज़ाद ठिठक कर सुनने लगे। कुछ मिनटों बाद अज्ञातवास के नियमों का अहसास होते ही आज़ाद आगे बढ़ लिये पर अपने साथी से अफसोस से कहना नहीं भूले - ‘‘बड़ा अच्छा गा रही थी।‘‘ संगीत की बाँध लेने वाली क्षमता का इससे अच्छा उदाहरण क्या हो सकता है।  



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