ग़ज़ल
ग़ज़ल
है वसंती ऋतु मगर क्यों खेत हरियाते नहीं
क्योंकि खेतों में कृषक अब शौक़ से गाते नहीं
चैन में और उन में जाने कौन-सा गठजोड़ है
चैन भी आता नहीं जब तक वो ख़ुद आते नहीं
जाने-महफिल ही नहीं वो जाने-गुलशन भी तो हैं
फूल भी खिलते नहीं जब तक वो मुस्काते नहीं
जो मज़ा गुचें में है गुल में कहां वो ताज़गी
फिर भी जाने लोग क्यों बचपन पे ललचाते नहीं
सादगी से बोलिए तो बात छू लेती है दिल
लोग बेहतर हैं जो करते अर्ज़ फ़रमाते नहीं
शौक़ हम को भी है सुर से सुर मिला गाएं मगर
बेसुरे हैं हम किसी उस्ताद को भाते नहीं
हर तरफ़ कुहरा, धुआं घेरे हुए हैं रास्ते
फिर भी हम रफ़्तार में कोई कमी लाते नहीं
हम तो राही हैं किसी मंज़िल के दीवाने नहीं
राह अपनी करवां के संग बदल पाते नहीं।
पुछो न हम से कौन-सी दुनियां में खो गए
लड़ते रहे हालात से फिर उनके हो गए
हम करवटें बदलते रहे रात-भर मगर
कुछ आप ने भी रात को बदला कि सो गए
अरमान बन के फूल खिले दिल की शाख़ पर
ऐसी हवा चली कि वो नश्तर चुभो गए
थामी जिन्होंने हाथ में पतवार देश की
उन में से कई लोग तो कश्ती डुबो गए
वो कह रहे हैं फ़िक्र किसानों की है उन्हें
फिर कौन हैं जो खेत में पतझड़ से बो गए
हम को तो आंसुओं से गिला एक भी नहीं
तड़पा रहे जो ख़्वाब थे आकर वो धो गए
हमदर्द कई हैं मगर क्या बताएं यार
कंधो पर सर टिका के ज़रा देर रो गए
राही जी जाने कौन-सा यह मोड़ है जहां
मंज़िल की बात छोड़िए रास्ते भी खो गए