ग़ज़ल
ग़ज़ल
देखिए दुर्भाग्य मेरा कब मुझे अवसर मिला
जब निकट गंतव्य आया तब कहीं सहचर मिला।
देख मत यूं मेरा पीना तू मिरे धीरज को देख
प्यास के सागर को लांघा तब कहीं सागर मिला।
प्यार का कोई अनूठा आज हम इक गीत गाएं
मेरे दिल की धड़कनों से अपनी तू झांझर मिला।
हाए! धरती की तहों में खो गई वह सरस्वती
और जितनी भी हैं नदियां सब को ही सागर मिला।
मैं सराहूं भाग्य अपना मुम्बई नगरी में अब
‘अरुण’ घर कहते हैं जिस को वह मुझे अब घर मिला।
आज शिखर पर तुम बैठे हो पर तुम वहां रहोगे कब तक
उस के आगे तो ढलान है मनमौजों में बहोगे कब तक।
अपने मन में गहरा उतरो मोतीयुक्त सीप को ढूंढो
किसी और के दिव्य भाव को हे कवि! अपना कहोगे कब तक।
ईश्वर भी ऐसी बातों को इक सीमा तक ही सहता है
तुम तो फिर भी मानव ठहरे ऐसी बातें सहोगे कब तक।
जीर्ण दुर्ग! बदलाव की आंधी तुम्हें ढहाने को आतुर है
पर तुम स्वयं ही ढहना चाहो; अच्छा है, पर ढहोगे कब तक।
’हिंदी काव्य की सेवा करने तुम हो ‘अरुण‘ विदेश से आए
लक्ष्य है सत्कवि पद को लहना, सत्य है पर यह लहोगे कब तक।
गिरा के वो मुझे खुद भी संभल नहीं सकते
वो मेरे अज्म से आगे निकल नहीं सकते।
वो कोई च्योंटी ही होगी कि पर निकल आए
किसी भी शेर के तो पर निकल नहीं सकते।
न हो उदास कि हावी हैं आज दहशतगर्द
ये खोटे सिक्के बहुत देर चल नहीं सकते।
ये सच है करता है फानूस उन को रौशन कम
मगर दिए भी तो आन्धी में जल नहीं सकते।
मुहब्बतों में है जज्बात पर मिरा काबू
ये वो हैं चश्मे जो यूं ही उबल नहीं सकते।,
बुरे खयाल भी आते हैं इस में झूट नहीं
मगर वो दिल में मिरे रह के पल नहीं सकते।
‘अरुण’ मैं सोचता हूं खाब जैसे मेरे खयाल
कि क्या ये ठोस हकीकत में ढल नहीं सकते।
कभी है अमृत, कभी जहर है, बदल बदल के मैं पी रहा हूं
मैं अपनी मर्जी से जी रहा हूं या तेरी मर्जी से जी रहा हूं।
दुखी रहा हूं, सुखी रहा हूं कभी धरा पर, कभी गगन पर
यह कैसा जीवन मुझे मिला है यह कैसा जीवन मैं जी रहा हूं।
कभी जो दिन चैन से है बीता तो रात की नींद उड़ गई है
कभी जो रात को नींद आई तो दिन में हर पल दुखी रहा हूं।
कभी जो फूलों की राह देखी तो चल पड़ा उस पै गीत गाता
मगर थे फूलों के साथ कांटे मैं अब भी जख्मों को सी रहा हूं।
‘अरुण‘ मगर यह भी सोचता हूं कि चार दिन की जो जिन्दगी है
चलो अधिक न सही तो चार दिन में मैं एक दिन तो सुखी रहा हूं।
दो मुक्तक
सुनो! कि गाढ़े पसीने की यह कमाई है।
सुनो! कि पाने में कुछ देर ही लगाई है।
मनुष्य हूँ कोई अवतार तो नहीं हूँ ‘अरुण‘।
मगर समय से लड़ा हूँ, विजय ही पाई है।।
नए मानव नई शैली से अब जीवन बिताते हैं।
कि सोना और जगना देर से उन को सुहाते हैं।
मुझे रवि कर हे परमेश्वर! कि मुझ को देख पाएं सब।
‘अरुण‘ हूँ तो मुझे कुछ लोग ही अब देख पाते हैं।।