पारो धरावाहिक उपन्यास

धरावाहिक उपन्यास


पारो


सतरहवीं किश्त


सबके अपने क्षितिज हैं, अपने बादल हैं और अपनी बरखा की बूंदे हैं। हम उनको एक सार्वभौम निरन्तर चरैवेति-चरैवेति-कह कर एक ही छत के नीचे सिमटा सकते हैं-किंतु हृदयाकाश के अपने अनूठे बादल तो अपनी इच्छा से बरसंगे न और उस बरसात का नाम एक ही नहीं हो सकता। वह तस्वीर एक सी होकर भी एक नहीं हो सकती।


जिंदगी लुढ़कते पत्थर की तरह जिस दिशा से ठोकर लगी उसी अनुरूप लुढ़कती हुई ठिलने लगती है। जब वह तनिक एक जगह स्थिर होती है तो दूसरी ओर से ठोकर लगती है और अनचाही दिशा में कहीं दूर तक ठिल जाती है और उठने का नाम नहीं लेती।


पता नहीं यह कैसी प्यास है जो बुझती ही नहीं। अतृप्त ओठों पर ठिठकी ही रहती है। कभी अंदर झांकती हैं तो कभी-बाहर न जल में-न थल में-न कुंये की मुंडेर पर। यह प्यास कुंये की रस्सी पर लटकते-कुंभ में उतरती-चढ़ती रहती है। पर इस का घड़ा कभी भरता ही नहीं। भाग-भाग कर पहुँच-पहुँच कर भी कहीं नहीं पहुँचती। फिर लोग (इसे) पहुँच गया-समझ कर बरौनियां-खींचने लगते हैं। जिसे मैं कभी समझ नहीं पाती और बिना-समझे चल पड़ती हूँ। मेरी दिशा-निर्देश करने वाला कोई नहीं-नये-नये मोड़ों और टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियों पर स्वयं ही चढ़ती और उभरती रहती हूँ...। थकती हूँ-पर रुकती नहीं।


कभी-कभी प्रेम केवल दो किनारों पर खड़ा रहता है। उर्द्धवगामी भी नहीं-केवल दो अपने से परे-लहरों का हिलोड़न देखने उठा-पटक-बेबस तरंगों को एक दूसरे को पछाड़ते-देख-देख कर अपनी राह टटोलता हुआ-और किनारों को-किनारों से मिलने का यत्न करता हुआ-बेबस।


किस आकाश पर लिखूं अपनी गाथा। सारा नभ-धुंधियाया है। धरती के किस टुकड़े पर लिखूं-जो वर्षा के बिना बोदी हो गई है पर अपनों के रक्त से रंजित है, किन्हीं अपरिपक्व-महत्वाकांक्षाओं की बलि चढ़ रही है हर दिन। किस हवा से अपनी गाथा कहूँ जो स्वयं सिसकयां भर रही है। जो अपनों की लाश पर बैठी बिलख रही है। अपनी विवशता में बेबस है। इसी लिये मेरी व्यथा मेरा स्वत्व मेरी दृष्टि बीच अधर में त्रिशंकु की तरह लटकी है। न धरती को स्वीकार है-न आकाश को-न समाज को और न ही इस छोटे से परिवार की परिधि को कि उन सब का सीना-फाड़ कर उस में अपनी सच्चाई रख सकूं...। न आकाश की आँखें खुली हैं कि वह अपने नीचे देख सके। इस भूल-भुल्लैया में रास्ता भटकती रहती हूँ....। अपना यज्ञ बुझा-बुझा लगता है-तो किनारे बैठ कर धूँआंसे में आँखें मलती रहती हूँ.... और अपनी अवशता पर और अवज्ञा पर बिसूरती रह जाती हूँ....।


देव! मैं आज सोचती हूँ और अपने-आप से पूछतीं हूँ कि कब जिंदगी हम दोनों के बीच से उठ कर चली गई-और  हमारे मन प्राण मौन हो गये या उम्र भर अन्दर ही अन्दर चीखने के लिये अभिशप्त! उस दिन जब भुवनशोम ने मुझे-परकीया-करार दिया-या जिस दिन माँ ने मेरे शरीर की सौदेबाजी की या जिस दिन मेरा अहम् तुम्हें लताड़ता हुआ अपने आप को भी लांघ गया। मालूम नहीं कब हुआ पर जो हुआ वह आज तक अनहुआ नहीं हो सका। बस शरीर के चाम के नीचे एक तारकोल की धारा सी बहने लगी। उस का रक्त सूख गया फिर धड़कन कुंद हो गई कब हुई कहाँ हुई आज उसी स्थल उसी पल उसी क्षण को छू कर देखना चाहती हूँ शायद तुम्हारे स्पर्श के स्वेदकण कहीं आज भी वहाँ बिखरे हैं जिन्हें मंैं फिर से छू सकूँ.... अपने अन्दर धारण कर सकूँ-जिंदगी की जगह आत्मा के किसी अंश को मुट्ठी में भर सकूं, बस इसी लिये केवल इसी लिये इस बेजान अनछुये शरीर को ढोकर आज तक चल रही हूँ। हाथ से नब्ज जैसे छूटती जा रही है। इस नब्ज को ढूंढने में या महसूसने में भी सदियां लग जाती हैं। दिन गुजर जाते हैं पर चुप शांत काया के नीचे कहीं कोई उस धड़कन की ध्वनि आज तक बची है, उसी का पता लगाना एक संघर्ष बन जाता है। पर कैसे आसानी से हम अपने कर्मों का कूड़ा-करकट-नियति के कंधे पर डाल देते हैं और स्वयं को अछूता और अनजान बना कर अपने सामने स्वयं को निर्दोष सिद्ध कर लेते हैं। अपनी विवशतायों की पोटली कांख में दवाए उम्र भर हम अपनी न्यूनतायों की चैभ लिये बिसूरते रह जाते हैं। अपने आप को निहत्थी सी बैचारगी लिये-कुछ करते भी नहीं है। अहम् और अंहकार की झीनी चदरिया के पारदर्शी झरोखों से एक दूसरे को झांकते रहते हैं और एक दूसरे की सीमा मैं कूदने का साहस बटोरते-बटोरते उम्र बिता देते हैं।


अन्ततः जो होना होता है वही होता है। जिन्हंे मिलना होता है उन्हें ही मिलना होता है। न एक इधर न एक पल उधर-हर एक क्षण हमें उधर दौड़ाता तो रहता है पर कहीं न पहुँचने के लिये। नियति ही हमारा मार्ग तय करती है। हम तो केवल निमित्त हैं-कारगार नहीं। हम तो केवल रस्सी पर नाचने वाले नट हैं......। भवसागर हमारे नीचे है और हम हवा की सतह पर डोलने वाली निहत्थी लहरें। एक झौका आया कि हमारा वुजूद खतम।


कुछ संकेत होते हैं आने वाली जिंदगी के जिन्हें हम सामने देखते हुये भी देख नहीं पाते या उस समय देखना नहीं चाहते और जिंदगी हर नये दिन की नयी उठी दुविधायों में गोते लगाती-बीतती चली जाती है। मेरी भी बीत जायेगी, उसी की तरह तरल और सरल न सही, ऊबड़-खाबड़-बीहड़ों में पत्थरों को काटती तुम्हारे नाम के साथ.....। इस तरह बीतना भी मुझे स्वीकार है। ऊपर वाले ने मानस की रचना कितनी रहस्यमयी रखी है हम सामने बैठे व्यक्ति से मन में भरपूर घृणा कर सकते हैं; प्यार कर सकते हैं, मुँह पर न दुत्कार कर भी अन्दर ही अन्दर उसे मन के किसी अंधे गर्त में ढकेल सकते हैं। मैं भी जी लूंगी। हम रोज यहीं तो करते हैं, मुखौटा पहन कर जीना इसी को कहते हैं।


बनी-बनाई परम्परायों की इमारतों तले हम दब सकते हैं पर दफन नहीं किये जा सकते। हम कहीं-न कहीं-गूंजते रहेंगे। महान आत्मायें अवश्य इन आग के दरियायों को लांघती रही होगी कहीं न कहीं सांसारिक मोह-मालिन्य से ऊपर भी उठती होगी। उन्हें भी दुनियां का यह गरल तो अवश्य पीना पड़ा होगा। प्रेम या किसी साधना ने उन्हें भी मांजा होगा। उन के अन्दर की धुआंस को


धोया-पौछा होगा तभी तो वे ऊपर उठ सकी होगी। ऊपर उठने के लिये अपना उत्सर्ग आवश्यक है। मैं आज सब माया-मोह से ऊपर हूँ। मुझे दुनिया के यह बाहरी आडम्बरी- आकर्षण नहीं व्यापते। मैं स्वयं नहीं समझ पाती उस समय उस बाहरी तामझाम के सामने कैसे स्वयं को झुका पाई-झुक गई और अपने-आप को एक बड़प्पन का जामा पहना लिया। जब इस महलनुमां कोठी में महारानी बनी ठुमकती तो कहीं मेरी चाल में एक ठसक होती है। एक जीत का अहम् होता। मेरा माथा रोज तुम्हारे ठाकुर पिता के समक्ष सर उठा कर चलता और कहीं अन्दर ही अन्दर आत्मतोष से भर जाता। पर वह आडम्बर न जाने कब कहीं तिरोहित हो गया और अब रह गई मेरी मुट्ठी मंे मेरी ही इच्छायों की झुलसी बची राख।


कितने छोटे हो जाते हैं हम कभी-कभी अपनी तुच्छता में भी स्वयं को बड़ा समझ लेते हैं और उनकी कच्ची वैसाखियों पर जीवन ढोने का दंभ भरते हैं फिर जल्दी ही कहीं वे वैसाखियां अपना वुजूद खो देती है और हम लगड़े के लगड़े रह जाते हैं और एक अपाहिज की जिंदगी बीतने के लिये हमारे समक्ष खड़ी हमारा मुँह चिढ़ा रही होती है। फिर समय स्वयं ही काल-कवलित होता रहता है और हमें समझ नहीं आता फिर जब समझ आती है तो सबेरा बीत चुका होता है और हमारे हाथ सिवाय अमावस की रात की सियाही के कुछ नहीं रहता। वही सियाही-उम्र भर के लिये हमारा खोल बन जाती है जिस में डोलते हमारी जिंदगी लड़खड़ाती-डगमगाती-भविष्य की ओर घिसटने लगती है।


समय रहते-क्यों सूरज की प्रखर किरने भी हमें जगा नहीं पाती! क्यों सूरज के डूब जाने की सी प्रलय हमें हमारे अहम् से बाहर नहीं निकाल पाती!


कब यह मेरे अन्दर की लड़ाई बंद होगी। कब मैं स्वयं को पहचान पाऊँगी। कब अपने खोल से निकल कर-यथार्थ को पहचान पाऊँगी। जब आज तक अन्दर से लिपटे उस प्रेम के तिलस्म को नहीं समझ पाई-किस धुरी को प्यार कहते हैं-और किस को दुनियां। क्यों एक व्यक्ति के आस-पास अपना सारा ताना-बाना बुन लेते हैं। पे्रमी! क्यों एक मायावी प्यार के अष्टांग मैं-सदैव के लिये उलझ जाते हैं। उस पर आश्चर्य यह कि उस मधुमक्खी के छत्ते में चिपके छटपटाते रहते हैं पर निकलने का रास्ता पाकर भी निकलना नहीं चाहते। दुनियां से आँखें मूंद कर-केवल अपनी घुटन में जीना चाहते हैं या जीना सीख लेते हैं। बाहर की दुनियां नगण्य हो जाती है। जान बूझ कर-बाहर की दुनियां को नगण्य करते रहते हैं। स्वयं ही दुनियां के चैखटे से बाहर हो जाते हैं। सामाजिक भी नहीं रहते। अपने आप को स्वयं कोसते हैं और समाज तो कोसता ही है।


आज तक पल्ले नहीं पड़ा कि सामाजिकता क्या है-क्या सामाजिक होकर ही व्यक्तिपूर्ण होता है या पूर्ण हुआ जा सकता है। क्या यही मुक्ति है- क्या यही वास्तविक भक्ति है-या जीवन का परम-सत्य है! क्या बिना सांसारिक या सामाजिक हुये-मनुष्य धर्म नहीं निभाया जा सकता! क्या उस के बिना मनुष्य अधूरा रह जाता है। क्या आज मैं एक अधूरी औरत हूँ और अधूरी ही रहूँगी! मैं न पत्नी बन सकी, न बहु और न ही प्रेयसी! और अब जो बन सकती थी वह भी न बन सकी। मैं माँ भी नहीं बन सकी और शायद कभी बन भी न पाऊँगी। क्या मुझे अपने पर थोपे हुये मातृत्व को स्वीकार कर लेना चाहिये। उन बच्चों ने अपनी माँ के खोया है चाहे जैसे यह रायसाहब की अहमयता उसे ले गई या उन्हें अपने अस्तित्व की पहचान न रहीं पर ये तो यतीम हुये ही न! क्या इन्हें गले लगाने में ही मेरी पूर्णता है। क्या पत्नीत्व स्वीकार कर लेना या करवा लेना ही मेरा मुक्ति द्वार है। क्या संसारिक मनुष्य के इन्हीं कत्र्तव्यांे से वह पूर्ण होता है। स्वयं अपने लिये अपने साथ जीने को क्या जीना नहीं कहा जा सकता।


क्यों सारे गरल नारी के ही हिस्से में आये हैं। क्या यह गरल मैं नहीं पी सकती कि एक दिन सारे अहम् और अपना स्वत्व ताक पर रखकर उस रायसाहब नाम की देहरी लांघ जाऊँ और देवदास को बाहर दरवाजे की कंुडी पर टांग दूँ!


चाहे आज लौकिक रूप में देवदास केवल एक नाम रह गया है किंतु मेरे लिये उस के होने या न होने से उस का महत्व या हौंद कम-या ज्यादा नहीं हो जाती। मेरे लिये देवदास कोई व्यक्ति नहीं, एक भावना है। अस्तित्व नहीं आभास है। शरीर नहीं-मेरा श्वास-प्रवास है। मेरे शरीर के रोम-रोम को छू कर देखो-तो पारो नहीं देवदास का स्पर्श मिलेगा। मेरे रोम-रोम में इन ध्वनियों की आहट है-जो पारो-पारो कह कर मुझे हर रोज जगाती हैं-मेरी सांसों को महकाती हैं।


जानती हूँ-यह सब बातें दुनियाई नहीं है-जीवन-जीने के आधार नहीं बन सकतीं-पर मेरे अस्तित्व को संभाले हुये हैं। मेरे पैरों के नीचे ज़मीन बन कर खड़े हैं। मेरे शून्य में भी मेरे सन्नाटों में भी मेरी अटूट-निराशायों में भी ‘पारो’ की आवाज मुझे खड़ा करती है। जिस दिन ये वीराने में गूँजने वाली आवाजें बंद हो जायेगी मेरी सारी दुनियां मेरा वुजूद भरभरा कर धाराशायी हो जायेगा। शायद वही मेरी देह मुक्ति नहीं मेरी आत्म-मुक्ति भी होगी। मैं देवदासमय हो जाऊँगी उस धुरी में समा जाऊँगी जिस के इर्द-गिर्द मेरा अस्तित्व पृथ्वी की तरह घूमता है सांझ-सवेरे। जब तक शरीर में प्राण हैं-दुनियाई हवा-पानी के साथ चलना मनुष्य का कत्र्तव्य माना जाता है जिसे आज तक मैं नकारती आई हूँ.....। अब लगता है-निर्णय की घड़ी आ गई है। क्या मैं इन दो बच्चों की माँ बन जाऊँ। उन्हें केवल अपना कहने की सीमा से बाहर आकर-उन्हें अपना-आप पूर्णतया दें दूँ। उनके सिर पर अपना -वरदहस्त रख कर उन्हें गले लगा लूँ। उन के हास-विहास से अपनी दिनचर्या लिखूँ। कंचन के अन्दर झांक कर देखूँ-। उस कोमल टहनी के पत्ते क्यों मुरझाये रहते हैं, टहनियाँ क्यों सूखी हैं। बचपन में भी इस पौधे को खाद-पानी नहीं मिला और ऊपर से ये बेमेल विवाह,जमाई राजा-रायजादा बन कर उस के शरीर पर राज करते हैं। उसे अपनी संपत्ति समझते हैं। यहाँ तक कि उनके लिये स्त्री शरीर एक प्रयोग की वस्तु है। झुनझुने की तरह बजायो-हँसों-खेलो और बिगाड़ो.....।


कौन नहीं जानता और किसे नहीं पता कि यह दुनियां कितनी बेमानी है-धोखा है, और उस पर सब कुछ क्षणिक है। यही नहीं-स्वर्ग-नरक की कल्पनायें हमारी मनगढ़ंत तितली सी सतरंगी उड़ान है। फिर भी हम हर पल को अपने इर्द-गिर्द लपेट कर उस में डूब कर जीते हैं। यहाँ तक कि उस जीने के लिये-दूसरों के जीवन की नोच-खसोट भी करते नहीं थकते हैं। ‘‘हम हैं’’ केवल ‘‘हम’’ बस यही हमारा ध्येय होता है-जीवन के आदि से लेकर अंत तक। हम दूसरों के जीवन का रस सोख कर अपने रस को सराबोर करते रहते हैं और जमाई-राजा जैसे व्यक्ति की तरह हमें कोई ग्लानि भी नहीं होती बल्कि एक गर्व होता है जिसे दर्पण में देख-देख कर हम अपने पर इतराते हैं। गर्दन ऊँची करते हैं। खांमखां की एड़ियों पर खड़े होते हैं। चाहे अन्दर से हमें पता होता है कि इन कृत्रिम ऐड़ियों की उच्चाई अन्ततः हमें ही गिरायेगी-हमें घायल करेगी। पर उस समय तो हम अपनी कामनायों की भीड़ के साथ भाग रहे होते हैं-आने वाले कल का ध्यान किसे रहता है।


विवाह के समय-कंचन की एक झलक आज भी मेरे मानस के खूंटे पर टंगी है। वे अधौन्मीलत-बादामी आँखें जो बीच में चैड़ी उभरी हुई और बादाम के कटाव की तरह तिरछी होती हुई कोनों में मुड़ जाती हैं उनके विशाल कोटरों में रतनारी डोरे-उभर-उभर कर अपना जादू बिखेरते थे और ऊँचे तिलवाले गालों पर उठती हुई


हिरणी सी जागरुक आँखें टुक-टुक आस-पास बिफरती-बेचैन होते हुये भी जैसे अपने मैं सब कुछ समेटे जाती थी। उन आँखों की पनीली झपकी एक बिरत में किसी को भी घायल कर निहत्था कर दे। ऐसे में वह अहम-हीन-बेफिक्र-र्निभ्र छवि-उस सारे वातावरण को बिना-संमाये भी-सब पर भारी थी। वह सम्पूर्ण आभापूर्ण चेहरा अपनी ज्योति से मुझे अपने तिलस्म में बांध गया था। सांप का काटा-पानी न मांगे-वाला सम्मोहन था-उस के सौन्दर्य में...


 



Popular posts from this blog

अभिशप्त कहानी

हिन्दी का वैश्विक महत्व

भारतीय साहित्य में अन्तर्निहित जीवन-मूल्य