धरावाहिक (दूसरी किश्त)

साक्षात्कार


कवि, नाटककार, कथाकार प्रताप सहगल से वरिष्ठ बाल साहित्यकार डा. शाकुंतला कालरा की बातचीत


 


 शकुंतला कालरा: सहगल साहब, हिन्दी साहित्य जगत में आपकी छवि लंबी कविताओं के एक रचयिता के रूप में भी है। लंबी कविता विचार-प्रधान होती है। इसके स्वरूप और


अवधारणा के विषय में आप कुछ बताएँगे कि उसका दर्शन क्या है?


प्रताप सहगल: अपनी पहली लंबी कविता मैंने संभवतः 1969 में 'कटी हुई यात्राओं के पंख' के नाम से लिखी थी। बाद में जब इस कविता पर कुछ और काम किया तो यह 'मोतीलाल' के रूप में सामने आई। कुल छह लंबी कविताओं का एक संग्रह 'इस तरह से' 1997 में प्रकाशित हुआ। लंबी कविता एक


आधुनिक काव्य-रूप है। शास्त्रीय काव्य-रूपों से अलग। लंबी कविता जरूरी नहीं कि विचार-प्रधान ही हो। विचार या कोई जीवन-दर्शन लंबी कविता के वितान में ब्यौरों और घटना-क्रम के साथ गुंथा चला आता है। लंबी कविता को साधने के लिए शास्त्र-सम्मत काव्य-रूपों के तत्त्वों की जरूरत भी नहीं रहती। प्रदीर्घ तनाव अपनी प्रदीर्घता के बावजूद खंड-खंड रूप में ही कविता में उतरता है लेकिन उसका समग्र प्रभाव सघन और विचलित करने वाला होता है। यह लंबी कविता के सृजन की विवशता है। कविता की केवल जैविक लंबाई किसी भी कविता को लंबी कविता नहीं बनाती। इसी तरह से काव्य-श्रृंखला और प्रगीत के निकट कंसीव की गई कविताओं को लंबी कविता के दायरे से बाहर ही रखना होगा। लंबी कविता लिखने का अर्थ ही यही है कि कोई ऐसी महत्त्वपूर्ण वैचारिक या दार्शनिक बात कवि के पास कहने के लिए है जो उसकी सामान्य कविताओं में समा नहीं रही और वह एक बड़े काव्य-रूप लंबी कविता की ओर मुड़ता है। लंबी कविता के लिए ताप में ताए अनुभव-लोक की अनिवार्यता को खारिज किया ही नहीं जा सकता।


शकुंतला कालरा: क्या बच्चों के लिए आपने ऐसी लंबी कविताएँ लिखी हैं?


प्रताप सहगल: अभी तक तो यह संभव नहीं हो पाया है।


शकुंतला कालरा: आपने बच्चों के लिए रेडियो नाटक भी लिखे हैं। अभिनेय नाटक और रेडियो नाटक लेखन की प्रवृत्ति मे क्या अंतर है?


प्रताप सहगल: शकुंतला जी, आप तो जानती ही हैं कि रेडियो श्रव्य माध्यम है और रंगमंच दृश्य। रेडियो के श्रोता को नाटक हमें उसके कान से दिखाना है। उसके कान के माध्यम से श्रव्य-बिम्ब उसके मस्तिष्क तक पहुँचते हैं और वह नाटक में  घट रहे व्यापार को अपनी कल्पना के सहारे दृश्यों में बदलता जाता है। रेडियो नाटकों में रंगमंच नाटकों की अपेक्षा शब्द-बहुलता तो होती ही है, ध्वनि-संकेतों से ही देश, काल और वातावरण की जानकारी दे दी जाती है। इसी तरह से कौन पात्र कब, कहाँ और किससे बात कर रहा है, यह भी बार-बार श्रोता को बताया जाता है। एक पात्र दूसरे पात्र को नाम या फिर रिश्ते को बार-बार संबोधित करता है। रेडियो नाटक में कल्पना की उड़ान बहुत तेज और प्रामाणिक होती है। जैसे कि संगीत के एक टुकड़े के साथ ही पात्र दिल्ली से लंदन पहुँच जाते हैं या चिड़ियों की चहचहाट बता देती है कि नाट्य-व्यापार किसी पार्क या जंगल में चल रहा है या फिर संगीत किसी रेस्तरां, विवाह-समारोह या उत्सव आदि का भान करवा देता है। रेडियो नाटक के दृश्य बहुत जल्दी श्रोता के मानस में रजिस्टर हो जाते हैं। जबकि रंगमंच के लिए नाटक लिखने की पहली शर्त है शब्दों की मितव्ययता। रंगमंच के कई रूप हैं हमारे सामने। लोक-सम्मत, शास्त्र-सम्मत। अग्रगामी या नुक्कड़ नाटक। काव्य नाटक आदि। विषय, स्थिति और चरित्रों के अनुरूप ही नाटककार शब्दों का चुनाव करता है। एक-दो बार में ही चरित्रों की छवियाँ दर्शक के मन पर रजिस्टर हो जाती हैं। रंगमंच के माध्यम से नाटक का रिश्ता दर्शक के साथ बहुत सीधा जुड़ता है जबकि रेडियो नाटक में हर श्रोता अपनी मानसिकता और समझ के मुताबिक चरित्रों की छवियों का निर्माण करता है। इसलिए दोनों ही तरह के माध्यमों के लिए नाटक लिखने के लिए नाटककार को अलग तरह की तैयारी करनी पड़ती है या फिर रेडियो नाटक का रंगमंचीय अवतार और रंगमंचीय नाटक के रेडियो नाटक अवतार में ढालना पड़ता है। 


शकुंतला कालरा: हम सब जानते हैं कि हिंदी रंगमंच को गति और दिशा देने में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय का बड़ा हाथ है। इसने हिंदी रंगमंच को जहाँ एक ओर गरिमा प्रदान की है, वहीं दूसरी ओर उसे लोकप्रिय भी बनाया है। इसके अतिरिक्त हिंदी रंगमंच को गति देने में और दो महत्त्वपूर्ण संस्थाओं का योगदान रहा है- बंबई की पृथ्वी थियेटर्स और दिल्ली का श्रीराम सेंटर। बच्चों के कौन सी संस्था के प्रयास सराहनीय हैं?


प्रताप सहगल: आपके इस प्रश्न के तीन हिस्से हैं। पहला हिस्सा राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय को लेकर है। यह बात सही है कि राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय ने हिन्दी रंगमंच को खड़ा किया है। साठ के दशक से शुरू होकर आज तक विद्यालय की भूमिका बदलती रही है। विद्यालय ने हमें विदेश और देश की अनेकानेक रंगशैलियों और नाटकों के रू-ब-रू किया है। इस पर मैंने विस्तार से कई बार लिखा भी है। इसलिए अब वह सब दोहराऊँगा नहीं (कृपया लेखक की किताब 'रंगचिंतन' देखें)। आपने पृथ्वी थियेटर्स का जिक्र किया है, यह संस्था थोड़ा बाद में आई। इससे पहले इंडियन पीपुल्स थियेटर एसोसिएशन (इप्टा) की बहुत बड़ी भूमिका रही है हिन्दी रंगमंच के विकास में। श्रीराम सेंटर तो बहुत बाद में बना है लेकिन उसकी भी एक बड़ी भूमिका है। इससे पहले लिटिल थियेटर ग्रुप को भी न भूलें। राष्ट्रीय नाट्य वि।ालय से प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद जो स्नातक बाहर आए, वे सिर्फ और सिर्फ रंगकर्म ही जानते थे। इस तरह से समय-समय पर बहुत से नाट्य-दल बने और हिन्दी रंगमंच के विकास में उनकी भूमिका रही है। कई नाट्य-मंडलियाँ तो पहले से ही काम कर रही थीं लेकिन बाद में अनामिका, प्रयोग, संभव, एक्ट-वन, दर्पण आदि अनेक नाट्य-दलों ने हिन्दी रंगमंच को विकसित किया। पिछ्ले बीस सालों से भी ज्यादा सक्रिय अरविंद गौड़ और उनके नाट्य-दल 'अस्मिता' को आप कैसे भूल सकते हैं? दिल्ली में साहित्य कला परिषद और लखनऊ की भारतेंदु नाट्य अकादमी, संगीत नाटक अकादमी और बाद में तो हिन्दी अकादमी, उर्दू अकादमी और पंजाबी अकादमी ने भी रंगमंच को अपने-अपने तरीके सहयोग-समर्थन दिया है।


अब बात आती है बाल रंगमंच की। बाल भवन समुदाय की भूमिका महत्त्वपूर्ण है बाल रंगमंच के विकास में। रेखा जैन ने जीवन भर 'उमंग' के माध्यम से बच्चों का थियेटर ही किया है। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय का 'थियेटर इन एजुकेशन' एक बड़ा और सार्थक प्रयास है। साहित्य कला परिषद द्वारा वार्षिक स्तर पर आयोजित होने वाले बाल रंग शिविरों ने भी स्कूली बच्चों को अवसर दिया है कि वे रंगकर्म से जुड़ सकें। इधर हिन्दी अकादमी दिल्ली ने भी हर वर्ष स्कूलों में बाल रंग-शिविर और फिर उसमें तैयार किए गए बाल नाट्य-उत्सव करवा कर नई तरह का रंग-वातायन खोला है। हिन्दी अकादमी के बाल रंग-शिविरों की विशेषता यह है कि यह लेखक केंद्रित होता है। जैसे कि पहले वर्ष अकादमी ने प्रेमचंद की कहानियों के नाट्य-रूपांतर प्रस्तुत करवाए तो दूसरे वर्ष रवीन्द्रनाथ टैगोर की बाल कहानियों पर आधारित नाटकों की प्रस्तुतियाँ करवाईं। इस तरह से बच्चे हिन्दी एवं अन्य भारतीय  भाषाओं के साहित्य से भी जुड़ते हैं और रंगमंच से भी। लेकिन अभी बाल रंगमंच के विकास के लिए बहुत कुछ करना है। हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं के लेखकों को बाल नाटक लिखना एक चुनौती की तरह से लेना होगा। इसमें सबसे ज्यादा दिक्कत लेखकों की है, क्योंकि वे बाल रंगमंच से जुड़ते नहीं और इस तरह से अच्छे बाल रंग नाटक सामने आते नहीं।


शकुंतला कालरा: क्या बाल रंगमंच के पास पर्याप्त दर्शक हैं?


प्रताप सहगल: जब भी बाल नाट्योत्त्सव होते हैं, आप स्वयं जाकर देखिए, प्रेक्षागृह लबालब भरे हुए होते हैं और कई बार प्रेक्षागृह के बाहर खड़े होकर टी वी स्क्रीन पर नाटक देखते हैं। जब बच्चे नाटक खेलते हैं तो उसके साथ बच्चे तो जुड़ते ही हैं, बड़े भी भारी संख्या में शामिल होते हैं। दर्शकों की कोई कमी नहीं। बाल रंग नाटक ही कम खेले जा रहे हैं। स्कूलों में नाटक एक वैकल्पिक विषय के तौर पर शामिल किया जाना चाहिए। कुछ स्कूलों ने प्रयास किया भी है, लेकिन अभी बहुत कुछ करना शेष है।


शकुंतला कालरा: सोद्देश्य मनोरंजन को केन्द्र में रखकर खेले गए नाटकों की प्रस्तुतियों में आप किससे अधिक प्रभावित है?


प्रताप सहगल: कोई नाटक ऐसा होता नहीं, जिसमें मनोरंजन के साथ-साथ कोई मकसद न हो। उद्देश्य तो रहता ही है। व्यस्कों के नाटकों में परोक्ष या प्रत्यक्ष और बच्चों के लिए एकदम प्रत्यक्ष। यह जरूरी है। रेखा जैन हो  लोकेन्द्र त्रिपाठी, मधु पंत हो या हरिकृष्ण देवसरे, सबके पास कुछ न कुछ कथ्य है, जिसे वे अपने नाटकों के माध्यम से सामने लाते हैं। लेकिन देवसरे हों या प्रकाश मनु, दिविक रमेश हों श्री प्रसाद, इनके नाटकों में रंगानुकूलन की बहुत कमी है। कथ्य सार्थक है लेकिन रंगमंच की दृष्टि से 'कहन' का जो तरीका होना अपेक्षित है, उसका अभाव है इन लेखकों के नाटकों में। इसी तरह से बानो सरताज के नाटक, कभी रंग-भाषा के करीब लगते हैं, कभी बहुत दूर। अगर हिन्दी लेखकों को सचमुच बाल रंगमंच के विकास की चिंता है तो उन्हें रंगमंच से जुड़कर ही बाल-नाटकों की सर्जना करनी चाहिए।


 


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