धरावाहिक उपन्यास

पारो


प्रणय, प्राण और प्रारब्ध


अठारहवीं किस्त


क्यों उठूँ।


क्योंकि मैं कह रहा हूँ....


तुम क्या कोई लाट-साहब हो।


हाँ कोर्ट के जज-महामहिम जस्टिस भुवन चैधरी का बेटा हूँ....


बेटे हो-जस्टिस तो नहीं-जो हम तुम्हारी आज्ञा मानें।


यह बात है! और देवदास ने आगे बढ़ कर-उसे एक


धमाकेदार धौल जमा दिया।


अब करना-तुम ऐसी हरकत!


करुँगा-सौ बार करूँगा और आज दादा से तुम्हारी शिकायत और तुम्हारी करतूतों के बारे में भी कहूँगा-


क्या कहोगे! और देव ने उसे काॅलर से पकड़कर जमीन पर पटक दिया-


यही कि तुम पारो पर अपना हक जमाते हो। पारो! क्या लगती है तुम्हारी!


कुछ भी लगे-तुम्हें क्या!


शाम को जब दादा के पास तुम्हारी शिकायत पहुँचेगी-तो सारी हेकड़ी निकल जायेगी-।


देव मेरा हाथ पकड़कर दौड़ाता हुआ मुझे घर छोड़ गया था।


 


आज कहाँ हो तुम देव!


देख नहीं रहे हो, कोई मुझ पर अपना अधिपत्य जमाने का प्रयास कर रहा है। कोई धीरे-धीरे मेरे निकट आ रहा है और तुम देख रहे हो। आज कहाँ चले गये हो कि मेरा हाथ पकड़ कर मुझे इस दुनियां से निकाल भी नहीं सकते।


तुम चाहे जो भी कहो-देव! मैं अपने-आप को समझा नहीं पाती। मैं तुम्हारे तिलस्म से आज तक नहीं निकल पाई। क्यों न मैंने भी अपने-परिवार को बचाने के लिये-तुम्हारे सारे तीर-तोड़ दिये जो


घूम कर तुम पर ही लगे। तुम्हें लहुलुहान ही नहीं किया-बल्कि तुम्हारा हृदय बेंध कर मैंने तुम्हें अपने से दूर कर लिया। मैं तो साहिबा की तरह मिरजा को ढककर उस पर बरसने वाले तीर भी अपने पर न ले पाई और अपने मिरजा को भी खो दिया और स्वयं जलने के लिये जीवित रह गई। मैं एक बेबस मछली की तरह न पानी के बाहर न पानी के अन्दर रही। किनारे तक जाकर सर पटककर फिर अपने में लौट आती हूँ देव! मेरी आत्मा को कभी शांति नहीं मिलेगी। तुम वायुमंडल में भटक रहे हो और मैं इस पृथ्वी पर। मेरा हाथ पकड़ो और मुझे इस जीवन से उबार लो।


मैंने खींच कर कंबल ओेड़ लिया और अपनी दबी सिसकियों को संभालने मंे लग गई। यही डर था कि अध सोये हुये रायसाहब या रानी माँ मेरे इन हिचकोलों से उठ न जायें।


तभी लगा देव ने हाथ पकड़ लिया और बहुत निकट होकर अपनी दांई बाजू के सहारे ऊपर उठा दिया।


पारो! क्या हो गया है तुम्हें! क्यों वह करना चाहती हो जो तुम्हें नहीं करना चाहिय! क्यों अपनी आने वाली जिंदगी को तोड़ मरोड़ रही हो। अब कंचन के लिये सोचो! उसको कैसे संभालना है तुम्हें। उसे कैसे प्यार देना है। उसे इस सागर से कैसे उबारना है। तुम से अधिक है उस की पीड़ा! हमारे प्रेम को लेकर अपनी मानवता को छोटा मत पड़ने दो। प्रेम तो आत्मा का विस्तार करता है। अपनी एकान्तिक व्यथा में सीमित रहकर अपना कत्र्तव्य मत भूलो। बिचारे रायसाहब आज एक बार फिर जैसे अनाथ हो गये हैं, टूट गये हैं-अपनी विवशतायों में घिरे हैं, अपनी आत्मग्लानि में घुट रहे हैं। उनका सहारा बनो। अपने धरातल से ऊपर उठो। जिस प्रेम को अपने अहम् के कारण तात्कालिक परिस्थितियों के कारण हम नहीं पा सके, उस की सजा दूसरों को क्यों दे रही हो। इसमें उनका क्या अपराध है। रानी माँ का या कंचन का क्या दोष है। और महेन ने भी क्या बिगाड़ा है तुम्हारा। माँ-माँ कह कर तुम्हारी आज्ञा-पालन के लिये तत्पर रहता है। ऐसा सुन्दर घर-बाहर और जीवन तुम्हें मिला है इसे मत ठुकरायों। इस सबका अपमान मत करो पारो! तुम सुन रही हो न पारो!


मैंने फुसफुसा कर देव का हाथ दबा दिया।


अब सो जायो कल बहुत भारी दिन है तुम्हारे लिये और तुम्हारे सारे परिवार के लिये। मेरे ओठों को अपनी अंगुलि का स्पर्श देकर देव अदृश्य हो गया।


मेरा क्षोभ औररायसाहब का सौहार्द भरा व्यवहार सब कहीं तिरोहित हो गया और मेरी आँखें उनींदी और भारी हो आई।


सचमुच ही नींद पलकों पर दस्तक देने लगी।


शायद हमारा ही स्टेशन आया था और बाहर की चिल्लपों चाय-चाय और खोमचे वालों की आवाजें कुली-कुली का राग चारों ओर वातावरण को मुखर किये हुये था। रायसाहब भी हड़बड़ा कर उठे और हम सब जल्दी-जल्दी उतरने में लग गये। हरिया प्लेटफार्म पर समान के साथ खड़ा था। रायसाहब ने स्टेशन के वेटिंग रूम की ओर जाने का सकेत किया।


नित्य क्रम से निपट कर हम लोग बैंच पर बैठ कर एक कप चाय पीने बैठे-हरिया पहले से ही तैय्यारी कर के खड़ा था। रायसाहब मेरे सामने खडे़ थे और चाय पी रहे थे। उनकी दृष्टि मुझ पर टिकी थी। चेहरे पर गहरी-उदासी और अन्यमनस्कता थी। कोई कुछ कहता तो जैसे गहरे कंुये से जागकर ‘‘हूँ’’ करते। अपने में समाये हुये थे। उन के आस-पास जैसे सब कुछ नगण्य था। मालूम नहीं पड़ रहा था कि वह कंचन के बारे में सोच रहे हैं या अपने बारे में।


कभी-कभी कांटे चुभते हैं पर हम ‘‘सी’’ भी नहीं कर सकते क्योंकि कांटे चुभाने वाला पास ही होता है। हम उसकी दी हुई पीड़ा उजागर नहीं कर सकते। हमारी स्थिति कबीर वाली होती है कि ऊपर से निकल जाने वाले से ही हम पूछते हैं-आपके पांव में चोट तो नहीं आई। यह अक्सर होता रहता है और शायद बहुतों के साथ होता है। क्योंकि हमारी आत्मा हम में-हम से अधिक जागरूक होती है। हम कुत्ते की तरह उसी समय भौंक कर या काट कर उस का बदला नहीं ले पाते। बस हम उस पीड़ा को आत्मसात कर जाते हैं। धीमे-


धीमे वे पर्तें एक दिन अन्दर पड़ी-पड़ी पत्थरनुमा शिला बन जाती है फिर तो उन पर से भारी-भरकम बुलडोज़र और गाड़ियाँ निकल जाती है और हम ‘उफ’ या ‘सी’ करना भूल चुके होते हैं। रायसाहब की स्थिति भी कुछ ऐसी ही थी। वह अपने अन्दर थे-उनका बाहरी क्लेवर रायसाहब वाला नहीं था एक दयनीय पति और लाचार पिता का था। यहाँ तक कि रानी माँ भी उन के अस्तित्व को यदा-कदा नकारती रहती थी। जैसे ही वह अपनी रायसाहबी दिखाने का प्रयत्न करते-रानी माँ मदारी की छड़ी की तरह-उन्हें बैठा देती-जैसे कहती हों-बैठ जा जमूरे....


पारो को एक ओर तो उन पर दया आती थी, दूसरी तरफ थोड़ा गुस्सा। कैसे पुरुष हैं कि पुरुष नहीं बन सके। क्यों नहीं उन्होंने कंचन के पति को पहले से ही लगाम नहीं लगाई। उन्हें डाँटा या संवारा नहीं-जो आज वह शराब के नशे में चूर हो कर डूब गये और बिना किनारा पाये किनारा कर गये। कंचन को विधवा कर गये।


पता चला है कि बैठक में दोस्तों की पार्टी चल रही थी और कंचन उन की तीमार-दारी के लिये पकवानों में लगी थी। नौकर एक प्लेट खाली लाता और दूसरी भरी हुुई वापिस ले जाता। तभी उन्होंने चीख कर बुलाया-कंचन। तुम कहाँ मर गई हो-क्या एक बार स्वयं नहीं आ सकती।


गुस्से में उठे हुये पैमाने का हाथ छलक गया और सारी शराब उनके कपड़ों पर गिर गई।


दोस्तों ने संभालने का प्रर्यत्न किया-किंतु वह लड़खड़ज्ञ कर गिर गये। मिर्गी के दौरे सा उनका शरीर कंपायमान होने लगा। जब तक कंचन कमरे में पहुँची प्रमोद शांत हो गये थे। उनके चेहरे की नसें फड़फड़ा कर चित्त हो गई थी।


उनकी उच्छृंखलता सारी सीमायों को लांघ कर पार हो गई थी।


इतनी छोटी उम्र और इतनी उच्छखल जिंदगी का ढर्रा। कंचन को तो बच्ची और नादान समझ कर डांट देते थे और कभी-कभी तो हाथ भी उठा कर उसे चुप करा देते थे और हर बार-उसे यह चेतावनी भी दी जाती कि वह अपने घर में किसी से कुछ नहीं कहेगी।


ये सारी बातें जमाई राजा के अंतिम संस्कार के बाद


धीरे-धीरे टुकड़ों मंे कानों से टकराती रहीं और हम सब को विचलित करती रहीं। रायसाहब की हालत देख कर मुझे स्वयं डर लगने लगा था।


कोई कैसे इतने घाव झेल सकता है आखिर। मैंने देखा रायसाहब इतने दुर्बल और क्षीण लग रहे थे कि घर वापिस आते-आते उनका चेहरा-शरीर जैसे दो दिनों में ही पूरा निचुढ़ गया था।


जैसे ही हम दाह-संस्कार से लौटे-दरवाजे पर ही कंचन दौड़कर रायसाहब के गले लग कर बच्चों की तरह फुट-फूट कर रोने लगी। रायसाहब की हिचकी बंध गई। वह भी खुल कर आज तक का जमा लावा निकाल रहे थे। उन के हाथ-पांव कांप रहे थे और वह कंचन को भींच कर पकड़े हुये थे और अपना हाथ उस के सिर पर फेर रहे थे-जैसे छोटी बच्ची को सहला रहे हों। बस बेटा बस। मैं सब ठीक कर दूँगा। तुम चिन्ता न करो।


तभी कंचन ने मुझे देखा और वह मेरी ओर लपकी। मैंने उसे बाँहों में भरा और भींच कर उसे सान्तवना दी। बहुत कुछ बिना कहे भी संवेदना और सौहार्द पहुँचता है और कई बार तो शब्दों से भी


अधिक गहरा होकर। अभी-अभी यही हुआ था। मैंने कंचन के मुख को अपनी साड़ी के पल्लू से सहलाया और उसे बाहों में भरे-भरे ही अंदर आ गये हम सब।


कंचन के ससुराल वालों का व्यवहार बहुत ही हृदय-हीनता और अक्रामकता से भरा हुआ लगा।


प्रमोद की माँ ने यहाँ तक कह दिया-प्रमोद को खा गई अब और किसे निगलेगी।


रायसाहब ने शायद पहली बार एक पुरुष की कठोर दृष्टि से उन्हें घूर कर देखा। वह पीछे हट गई पर ओठों ही ओठों में बड़बड़ाती रहीं। प्रमोद के बड़े भाई ने रायसाहब को गले लगा लिया और सिसकने लगे।


बिरादरी भोज के बाद-रायसाहब ने विनोद से कहा- मैं कंचन को अपने साथ ले जा रहा हूँ......


नहीं! ऐसे कैसे कह सकते हैं दादा!


क्यों नहीं हो सकता-मैं उसे इस वातावरण में छोड़ कर नहीं जा सकता।


यह आप ने बड़ी दुविधा में डाल दिया है दादा-मुझे माँ-बाबू और काका से बात करनी होगी।


मुझे किसी की आज्ञा की आवश्कयता नहीं है। कंचन का रिश्ता-इस घर से प्रमोद के कारण था-जो आज समाप्त हो गया है।


ऐसा मत कहिये दादा। कंचन हमारी भाबी है। हम उसे बहुत प्यार करते हैं।


हाँ मैं जानता हूँ विनोद कितना प्यार करते हो। प्रमोद की हरकतों पर तो आप का कभी जोर चल नहीं पाया और कंचन को प्यार करते हैं-रायसाहब अंदर से उबल रहे थे।


विनोद हतप्रभ हो गया। उसे नहीं मालूम था कि रायसाहब प्रमोद की हरकतों से परिचित है। उसे विश्वास नहीं हुआ कि कंचन भाबी ने सब कुछ अपने पापा को बताया है। बुरा लगा-किंतु फिर सोचा- क्यों नहीं बतायेगी। सहती तो वही थी न! यह भी उनका बड़प्पन है कि उन्होंने कभी प्रमोद से झगड़ा नहीं किया यहाँ तक कि माँ-बापू से शिकायत तक नहीं की। वह प्रमोद भाई की हर बात-आज्ञाकारी पत्नी की तरह मानती रहीं। विनोद अन्दर से कट कर रह गया।


वह प्रमोद का बड़ा भाई हैं पर रायसाहब के समक्ष निरीह और निहत्था होकर रह गया। उस के मुख से निकलने वाले शब्द वहीं ओठों पर ठहर गये। उनके निकास के लिये जो शक्ति चाहिये थी, वह उनकी एक घुड़की से चुक गई थी। जब अपना ही पलड़ा नीचा हो तो सिर कैसे उठे!


मैं माँ-बापू से बात करता हूँ-कह कर विनोद वहाँ से खिसक गया।


रायसाहब बहुत उद्विग्न थे। उन से अपनी पीड़ा छिपाये नहीं छिप रही थी। लगता था जैसे किसी ने उन्हें अन्दर से खदेड़ दिया है। उन का रोम-रोम कंचन के दुःख से, उस की सास के शब्दों से और अपनी बैचारगी से संतप्त थे। शायद पूरानी भूलों पर पश्चाताप भी ऊभर आया था।


वापिसी पर रानी माँ के बहुत कुछ कहने पर, बुलाने पर भी वह कुछ नहीं बोले। चुपचाप कंचन का हाथ पकड़े रहे। जिस हाथ को छोड़ने से उनके जीवन की सारी पूँजी लुट गई थी- आज उसी के सहलाने में लग गये थे।


यों तो रानी माँ भी रायसाहब के कंचन को इस समय अपने साथ ले जाने के निर्णय से अधिक सहमत नहीं थी। उन्हें बिरादरी, रिश्तेदारी, गली मोहल्ले और इस समय की नाजुक- स्थिति के साथ-रुबरू होना होगा। पर रायसाहब के सामने उन की भी कभी-कभी नहीं चलती थी। यों वह भी कंचन की हिचकोले लेती सांसों से बिंध-बिंध जाती थी-मेरी प्यारी बच्ची कह कर उसे बार-बार अपनी छाती से लगा लेती थीं। कंचन तू चिंता न कर-हम हैं न!


कंचन ने अभी तक कोई वार्तालाप नहीं किया था। सब उसकी ओर देख रहे थे कि वह कुछ कहे, कुछ मांगे तो उस के हृदय की थाह ली जा सके। यों रायसाहब के साथ आने में उसे कोई आपत्ति नहीं हुई जिस से यह सिद्ध हो गया कि प्रमोद के साथ उसका आत्मिक संबंध नहीं था। केवल एक बाहरी दुनियाई सा ही रिश्ता रहा होगा। उस की  आँखों में तरलता नहीं बेबसी थी। जैसे वह दूसरों की दया पर जीने वाला एक जीव मात्र थी जिस की अपनी कोई इच्छा नहीं होती।


रायसाहब बीच-बीच में उसे झिझौड़ कर पूछते-कुछ लोगी कंचन! तुम ठीक हो न!


कंचन कुछ न बोल कर केवल ‘हाँ’ में सिर हिला देती है। तब रायसाहब एक बेचारगी सी दृष्टि मुझ पर डालते जैसे कह रहे हों-मैं क्या करूँ पारो-तुम्हीं बतायो!


मैं थोड़ा पास सरक कर कंचन का हाथ-हाथों में ले लेती और उसे अपने कंधे से सटा लेती.....


 



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