कविता
प्रारब्ध
सुनो!!
तुम प्रारब्ध हो मेरे
ये तो नहीं कहूँगी.......पर हाँ
तुम एक शुरुआत जरूर हो
मेरी जिंदगी के उस पन्ने की
जिसमें वसंत तो थी
पर वो खुशबु नहीं है
जिसकी कल्पना
मैंने की थी......!!
तुम अंत होंगे
ये भी मैं नहीं जानती.......!!
हाँ कभी - कभी
ऐसा लगता है
कहीं सब कुछ छूट गया तो....?
मुझे तुम्हारे बेरुखेपन पर
शंका होती है....
मिलते हो तो,
पल दो पल लगता है कि
हमेशा मेरे भीतर बहते हो
कभी बेगाने थे ही नहीं...
और जब नहीं
मिलते हो
तो लगता है
कोई सपना था, जो
आँख खुलते ही टूट गया....!
अब जल्दी से
आ जाओ
और बरस जाओ
सावन की घटा बन कर
भिगो कर रख दो
समूचा आस्तित्व मेरा
दिल चाहता है
बहती जाऊं मैं भी
सृजन की नदी में,
तुम्हारे साथ-साथ.......और
बिना थके
बटोरती रहूँ
सारे संवाद.......!!
............पर तुम मिलते कहाँ हो........!
इंतजार
मेरे मन की उन सड़कों पर ,
जहां बेखौफ तुम्हारी यादें
टहला करती थीं
आज न जाने कैसी गहरी खामोशी और
कितना गहरा सन्नाटा है वहां ...!
एक खयाल ...जो पगडण्डी से उतर कर
दबे पाँव आता है ,और
मेरे मन के समीप से
गुजर जाता है...!
तभी न जाने कहाँ से
कोई लम्हा तेज-तेज दौड़ते हाँफते हुए
आया और
मेरे मन के मोड़ पर लुप्त हो गया..!
कुछ यादें तो आज जैसे
मेरे मन को कुरेदकर
बहुत दूर पहुंचना चाहती हैं
शायद मेरी आत्मा तक....!
न जाने क्यूँ आज वक्त भी
किन्हीं अनबीन्हि भावनाओं के
धुंधलकों में खोया हुआ
एक उदास धुन की तरह
काँप रहा है....!!
फिर भी
तुम्हारे इन्तजार में
आज एक बार फिर से
अपने मन की उम्मीदों भरी चादर पर
उषावर्णी सितारे टांक दिए हैं मैंने...!