संपादकीय

वर्ष 2012 में अभिनव इमरोज़ का ग़ज़ल विशेषांक, श्री नरेश शांडिल्य


द्वारा सम्पादित वुजूद में आया था। साहित्य अकादमी के सभागार में


सर्वश्री बालस्वरूप राही और प्रभाकर श्रोत्रिय द्वारा लोकार्पण को भी अंजाम दिया गया था। यह मेरा और अभिनव इमरोज़ का अदब की दुनिया में सतही तौर पर पहला क़दम था। यह दिन था कि जज़्बा-ए-साबुतकदमी रगों में बहने लगी थी। यही वजह है कि नफ्सीयाती बेताबीयों के बावजूद 'अभिनव इमरोज़' की अदबी दुनिया से बाबस्तगी न सिर्फ बनी रही बल्कि दिनों दिन पुख़्ता होती चली गई। इस तरक़्क़ी का सबव हमारे लेखकों और पाठकों की अहम हिस्सेदारी भी है।


और आज आठ साल बाद प्रो. सादिक, डा. मलिक राजकुमार और कविवर नरेश शांडिल्य की सम्पादन सलाहीयत से हासिल मेरा जे़र, ज़बर और नुक्तःए नज़र इस अंक में प्रतिबिम्बित होता हुआ ज़रूर महसूस किया जाएगा। मेरे सम्पर्क में आने वाले प्रत्येक व्यक्ति का कुछ न कुछ योगदान मेरे जीवन में अवश्य रहा है। यही वजह है कि अदबी लाईल्मी कहीं भी आड़े नहंी आई। 'अभिनव इमरोज़' की कामयाबी के सेहरे की सामने वाली लड़ियां हमारे प्रबुद्ध लेखक और सुधि पाठकों की भागीदारी की नुमाईदंगी करती हुई शान से झूल रही हैं।


'यह ग़ज़लों का इन्द्रधनुष' बालस्वरूप राही जी एवं प्रो. सादिक की प्रेरणा का नूरानी संस्करण है। इसमें शामिल सात ग़ज़लकारों ने अभिनव इमरोज़ के मंच को अपनी हाज़री से अदबी बुलंदी से नवाज़ा है और अपनी ग़ज़लों के गुचों में तहलील एक शमीम-ए-ख़ास से अभिनव इमरोज़ को एक शुमारा-ए-ख़ास बनने का मौका दिया। मैं और अभिनव इमरोज़ इस शरीके़-ग़ज़लें-खानदान का तहेदिल से शुक्ऱगुज़ार हैं और अहसानमंद भी कि उन्होंने मुझे एक और निशाने मील स्थापित करने की क़ुव्व़त अता की। उम्मीद है ग़ज़लों के आशिक़ों को यह  शुमारा पसंद आएगा क्योंकि इन सात रंगों में जिं़दगी के वो सब रंग भी शामिल हैं जो रंग में रंग होकर उसे और भी रंगीला बना देते हैं, यहाँ गिले-शिकवे-शिकायतों की मारफत इत्तहादी तहरीरों की भी किताबत की गई है। इश्क़े हक़ीक़ी और इश्के़ मिज़ाजी के हवाले से रूहानी और रोमानी संगम के मंज़र भी नुमायां होते नज़र आएंगे। जश्न, जुनून, एलाने अना,



ज़मानते-ज़मीर की वक़ालत करते हुए भी अश्अ़ार पढ़े जाएंगे जैसे: -


राही साहब फरमाते हैं-       जो भी पाया है खो के पाया है


                इसमें कुछ आपका करम तो नहीं


                ज़िंदगी को शऊर बख़्शेंगे


                एक उम्मीद है वहम तो नहीं


शेर जंग साहब की एक बानगी -


                कब फ़क़ीरों ने तौर बदले हैं


                कब बज़ीरों से मात खाई है।


सादिक़ साहब का रूहानी इशारा भी क़ाबिले ग़ौर है -


                चुना था पीरों-फ़क़ीरों का रास्ता हमने


                न कुछ महान से लेना था न लहान से कुछ


ज़रा ग़ौर करें कंुअर साहब का फ़लसफ़ा -


                यह माना आदमी में फूल जैसे रंग हैं लेकिन


                'कुंअर' तहज़ीब की खुशबू मोहब्बत ही से आती है।


विज्ञान व्रत के अंन्दाजे़ बयां की एक ख़ास बानगी - 


                आहों का अन्दाज़ नया था


                लेकिन जख़्म पुराने निकले


                जिनको पकड़ा हाथ समझ कर


                वो केवल दस्ताने निकले


मासूमियत कितनी ख़ूबसूरत होती है आओ देखें वाजपेयी जी के आश्अ़ार में


                बरसों हुए मिला था, अचानक कभी कहीं


                अब तक बंधा हुआ है जो यादों की डोर से


                मुझको तो सिर्फ उसकी ख़ामोशी का था पता


                हैरां हूँ पास आ के समुंदर के शोर से


सच्चाई और साफगोही नरेश जी की सिफ़त है ज़रा देखिए-


                फ़र्ज़ तो हमने ख़ूब निभाया, अपना कुछ हक़ भी तो है


                उन पर अपना हक़ जतलाएँ, उनको फ़ुर्सत हो तब ना


                क्या जाने वो किस दुनिया में खोए रहते हैं आख़िर


                उनको ख़ुद उनसे मिलवाएँ, उनको फ़ुर्सत हो तब ना


यह मेरी कोशिश है कि उम्दा से उम्दा शाइरी, कविता और गीतों से आप की सोच को सचेत कर सकूँ। इस अंक की कामयाबी आप की प्रतिक्रियाओं पर निर्भर करती है। हाँ! सब कुछ साकारात्मक रहा तो मैं और विशेषांक भी निकालने की योजना बना सकता हूँ। आल लिखते रहिए और हम आपके साथ हैं। उभरती हुई प्रतिभाओं को प्रोत्साहन देना ही हमारा मिशन है:-


                एक धागे का साथ देने को


                मोम का रोम-रोम जलता है


                काम चाहे जे़हन में चलता हो


                नाम दीवानगी से चलता है


-बाल स्वरूप राही


 


 


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