शेरजंग गर्ग
शेरजंग गर्ग
गुरुग्राम (हरियाणा)
जन्म: 29 मई, 1937, देहरादून (उत्तरांचल)
शिक्षा: एम. ए., पी.-एच.डी.
प्रकाशित कृतियाँ: चन्द ताज़ा गुलाब तेरे नाम, क्या हो गया कबीरों को (कविताएँ), स्वातन्त्र्योत्तर हिन्दी कविता में व्यंग्य, व्यंग्य के मूलभूत प्रश्न (आलोचना), बाज़ार से गुजरा हूँ, दौरा अन्तर्यामी का (व्यंग्य), रिश्वत-विषवत (शीघ्र प्रकाश्य), गीतों के रसगुल्ले, यदि पेड़ों पर उगते पैसे, तीनों बंदर महा धुरंधर, खिड़की, सुमन बाल गीत, अक्षर गीत, गीतों के इन्द्रधनुष, नटखट पप्पू का संसार (श्री ब्रह्मदेव के साथ), भालू की हड़ताल, चहक भी ज़रूरी महक भी जरूरी (सुश्री प्रभाकिरण जैन के साथ), गाओ गीत बजाओ ताली, सिंग बर्ड सिंग (बाल साहित्य) ग़ज़लें ही ग़ज़लें, नया जमाना नई ग़ज़लें, नई पाकिस्तानी ग़ज़लें, मुक्तक अैर रुबाइयाँ (सम्पादित), कवियों की शायरी, हिन्दी में काम अगणित आयाम (हिन्दी कार्यान्वयन), गोपाल कृष्ण कौल द्वारा सम्पादित 'ग़ज़ल सप्तक' में एक कवि, 'नन्हें-मुन्ने नटखट गीत'- तथा 'आज़ादी की कहानी' शीर्षक से दो कैसेट।
हिन्दी अकादमी, दिल्ली द्वारा साहित्यकार सम्मान के साथ-साथ श्रेष्ठ बाल-साहित्य के लिए दो बार पुरस्कृत; प्रथम 'गोपालप्रसाद व्यास व्यंग्यश्री' सम्मान एवं काका हाथरसी 'हास्य-व्यंग्य रत्न' सहित अनेक सम्मानों से अलंकृत।
सम्प्रति: निदेशक, हिन्दी भवन, नई दिल्ली
सपर्क: जी 261-ए, सेक्टर-22, नोएडा-201301, मो. 9811993230
ग़लत समय में सही बयानी।
सब मानी निकले बेमानी।।
जिसने बोया, उसने काटा,
हुई मियाँ यह बात पुरानी।
किसको जि़म्मेदारी सौंपें,
हर सूरत जानी पहचानी
कौन बनाए बिगड़ी बातें,
सीख गए सब बात बनानी।
कुछ ही मूल्य अमूल्य बचे हैं,
कौन करे उनकी निगरानी?
आन-मान पर जो न्यौछावर,
शख़्स कहाँ ऐसे लासानी?
जीना ही दुश्वार हुआ है,
मरने में कितनी आसानी!
विद्वानों के छक्के छूटे,
ज्ञान बघार रहे अज्ञानी।
जबसे हमने बाज़ी हारी,
उनको आई शर्त लगानी।
कुर्सी-कुर्सी होड़ लगी है,
दफ़्तर-दफ़्तर खींचा तानी।
जन-मन-गण उत्पीड़ित पीड़ित,
जिनकी व्यर्थ गई क़ुरबानी।
देश बड़ा है, देश रहेगा,
सरकारें तो आनी-जानी।
हम न सुनेंगे, हम न कहेंगे-
कोउ नृप होय, हमै का हानी ?
ख़ुद से रूठे हैं हम लोग।
टूटे-फूटे हैं हम लोग।।
सत्य चुराता नज़रें हमसे,
इतने झूठे हैं हम लोग।
इसे साध लें, उसे बाँध लें,
सचमुच खूँटें हैं हम लोग।
क्या कर लेंगी वे तलवारें,
जिनकी मूठें हैं हम लोग?
मय-ख़्वारों की हर महफ़िल में,
ख़ाली घूँटें हैं हम लोग।
हमें अजायबघर में रख दो,
बहुत अनूठे हैं हम लोग।
हस्ताक्षर तो बन न सकेंगे,
सिर्फ़ अँगूठे हैं हम लोग।
हौंसलों में फ़कत उतार सही।
वक़्त ज़्यादा ही होशियार सही।।
आप कितना ग़लत-ग़लत समझें,
हमको कहना है बार-बार सही।
हम तो पैदल चलेंगे मंज़िल तक,
आप ही पाँचवें सवार सही।
वक़्त की त्योरियाँ भी उतरेंगी,
और थोड़ा-सा इंतज़ार सही।
जो नज़ारे नज़र नहीं आते,
उन नज़ारों की यादगार सही।
नाउमीदी से लाख बेहतर है,
एक उम्मीद दाग़दार सही।
दर्द की चाशनी है रंगों में,
डूब जाने का भय तरंगों में।
देखने को शमा तरसती है,
मौत के हौंसले पतंगों में।
तुम खिलो, हम खिलें, सभी खिल जाएँ
बात ऐसी तो हो उमंगों में।
गीत, संगीत, प्रीत के विपरीत,
भक्तजन खो गए हैं दंगों में।
होड़, गठजोड़, तोड़ की बातें,
संत दोहरा रहे सत्संगों में।
लुत्फ़ आता नहीं लतीफ़ों में,
हम तो उलझे हैं आत्मव्यंगों में।
महाजनों के ऊँचे तर्क।
बहुत निचोड़ा, मिला न अर्क़।।
हाथी दाँतों की मीनारें,
सिर्फ़ हवाओं से संपर्क।
गोबर की बर्फी के ऊपर,
चढ़े हुए चाँदी के वर्क़।
कौन समस्याएँ सुलझाता,
नेता, कुर्सी, अफ़सर, क्लर्क ?
तुम अम्बर पर, हम पताल में,
फिर भी पूछ रहे, क्या फ़र्क़ ?
चालूमल की उड़ी पताका,
सज्जन जी का बेड़ा ग़र्क़।
ऐसी हालत में क्या किया जाए ?
पूरा नक़्शा बदल दिया जाए।
देश का क्लेश मिटे इस ख़ातिर,
फिर नए तौर से जिया जाए।
ख़ुद को ख़ुदगर्जि़यों की सूली पर,
क्यों ख़ुशी से चढ़ा दिया जाए ?
प्यार की मार हो, प्रहार न हो,
आज ऐसे भी लड़ लिया जाए।
क़ौम को जो नई उमर बख़्शे,
घूँट कड़वा सही, पिया जाए।
चाक दामन हुआ शराफ़त का,
उसको सम्मान से सिया जाए।
चोटियों में कहाँ गहराई है ?
सिर्फ़ ऊँचाई ही ऊँचाई है।
जो भी जितनी बड़ी सच्चाई है,
उतनी ज़्यादा गई झुठलाई है।
कब फ़कीरों ने तौर बदले हैं,
कब वज़ीरों से मात खाई है ?
मंज़िलें खोजती है जंगल में,
कितनी मासूम रहनुमाई है।
अब यहाँ सिर्फ़ तमाशे होंगे,
हर कोई मुफ़्त तमाशाई है।
आप जिसको वफ़ा समझते हैं,
वो किसी ख़्वाब की परछाईं है।
दोस्तो, दूरियों को दूर करो,
चीख़कर कह रही तनहाई है।
ख़ुश हुए मारकर ज़मीरों को।
फिर चले लूटने फ़क़ीरों को।।
आज राँझे भी क़त्ल में शामिल,
शर्म आने लगी है हीरों को।
रास्ते साफ़ हैं, बढ़ो बेख़ौफ़,
कैसे समझाएँ राहगीरों को ?
वे निहत्थों पे वार करते हैं,
देखिए इस सदी के वीरों को !
दिल में नफ़रत की धूल गर्द जमी,
हम सजाते रहे शरीरों को।
कृष्ण के देश में दुशासन जन,
कब तलक यों हरेंगे चीरों को ?
चलती चक्की को देखकर हँसते,
हाय, क्या हो गया कबीरों को?
लूट, नफ़रत, तनातनी, हिंसा,
कब मिटाओगे इन लकीरों को ?
बुझ गई रोशनी रफ़्ता-रफ़्ता।
खो गई हर ख़ुशी रफ़्ता-रफ्ता।।
ढल गई शोख़ इश्तहारों में,
वक़्त की सादगी रफ़्ता-रफ़्ता।
मौत को हर लड़ाई में मारा,
पर हुई ख़ुदकुशी रफ़्ता-रफ़्ता।
बेरुखी, बेकली के जंगल में,
जा फँसा आदमी रफ़्ता-रफ्ता।
दोस्ती की तरह चुभी दिल में,
दुश्मनों की कमी रफ़्ता-रफ्ता।
हारे पहुँचे हुए वकील।
फे़ल हुई हर एक दलील।।
व्यक्ति हुआ संवेदनहीन,
क्षेत्र हुए संवेदनशील।
द्वार न्याय के बंद हुए,
किससे जाकर करें अपील।
पथभ्रष्टों ने लक्ष्य गँवाया,
भटके रोज़ हज़ारों मील।
मानवता का भाग्य किसी ने,
मानों आज कर दिया सील।
तुम अगर बेक़रार हो जाते,
हम बहुत शर्मसार हो जाते।
तुम जो आते तो चंद ही लमहात,
इश्क की यादगार हो जाते।
एक अपना तुम्हें बनाना था,
गै़र चाहे हज़ार हो जाते।
तुम जो मिलते इशारतन हमसे,
दोस्त भी बेशुमार हो जाते।
आसरा तुम अगर हमें देते,
हम तलातुम में पार हो जाते।
ग़म का पर्वत, तम का झरना।
कितना मुश्किल यहाँ ठहरना!
ग़ायब मस्ती इतनी पस्ती,
ख़ुद से ही घबराना डरना।
झूठ निबाहो, सच को टालो,
हो जाएगी फाँसी वरना।
मरना भी महसूस न होता,
कुछ यों धीमे-धीमे मरना।
लोग तुम्हें मूरख समझेंगे,
इंसानों-सी बात न करना।
एक नशा है यह तनहाई,
जिसने सीखा नहीं उतरना।
लोग क्यों व्यर्थ हमसे जलते हैं ?
हम हवा के ख़िलाफ़ चलते हैं।
आप गुलशन के आसपास रहें,
हम बियाबान में टहलते हैं।
ज़िंदगी के विरोध में में हर रोज़,
मौत के काफ़िले निकलते हैं।
ख़ुद ख़ुदी की निगाह में गिरकर
शोहदे शान से उछलते हैं।
लूट का माफ़िया चलाते जो,
झूठ का काफ़िया बदलते हैं।
कुंद माहौल के मुख़ातिब भी,
हौंसले सिरफिरों में पलते हैं।
मंज़िलों की नज़र में रहना है।
बस निरंतर सफ़र में रहना।
काश, कुछ बाल-बाल बच जाए,
हादसों के शहर में रहना है।
बेरुख़ी बेदिली का मौसम है,
हाँ, हमें काँचघर में रहना है।
लोग जीने न दें करीने से,
यह हुनर तो हुनर में रहना है।
कुछ हमारी ख़बर नहीं उनको,
जिनको केवल ख़बर में रहना है।
कब तलक, देखिए ज़माने को,
शायरी के असर में रहना है।
दूर बैठा हूँ हर हक़ीक़त से।
तुमको देखा नहीं है मुद्दत से।।
क्या सबब है मेरा उदासी का,
सोचते काश, तुम ये फ़ुरसत से।
पत्थ्रों की हसीन बस्ती में,
कुछ न बनता है यों शिकायत से।
अब मोहब्बत की राह छोड़, ऐ दिल,
आदमी तुल रहा है दौलत से।
सह सकूँ मैं सभी तुम्हारे ग़म,
जिंदगी-भर ख़ुशी से, हसरत से।