गीत
गीत
हमको भी चाहिए एक मुट्ठी आसमान रे।
थोड़ा सा प्यार, थोड़ा मान व सम्मान रे।
धरती को स्वर्ग हम बनाते,
उपजते मिट्ठी में सोना।
शहर बसाते, बाग लगाते,
महकाते कोना-कोना।
हमें नीच अछूत न समझो, हम मजदूर किसान रे।
अब हमको भी चाहिए, एक मुट्ठी आसमान रे।
हम दीन-हीन अनपढ़, हैं
पर दिल के भोले-भाले।
छल-कपट का भेद न मन में
भले ही तन के हैं काले।
हमें भी हक दो जीने का, करो न अपमान रे।
हमको भी चाहिए, एक मुट्ठी आसमान रे।
जितने ऊँचे महल बनाये
उतने ही सबसे छोटे हुए।
जिस बाजार की रौनक हमसे
उसी बाजार हम खोटे हुए।
सदियों बीती, पटी न खाई, हुए न एक समान रे।
हमको भी चाहिए, एक मुट्ठी आसमान रे।
तुम्हें मुबारक चाँद सितारे,
ये हरी-भरी धरती हमें लौटा दो।
लौटा दो माटी की गंध हमें
ये जंगल नदी, पहाड़ हमें लौटा दो।
धरती की सिहरन हमसे, हमसे धर्म-कर्म-ईमान रे।
हमको भी चाहिए एक मुट्ठी आसमान रे।
छोटी पड़ गई चादर अपनी, लम्बे हो गए पाँव रे।
मुट्ठी भर सुख की खातिर, छोड़ चले सब गाँव रे।
दुःख की गठरी, सुख के सपने,
करने मिट्टी का व्यापार चला।
तोड़ गृहस्थी से नाता, सब
छोड़ नदी के पार चला।
आँखें नाविक की भर आईं, बिलख रही है नाव रे।
मुट्ठी भर सुख की खातिर, छोड़ चले सब गाँव रे ।
सूना-सूना घर-आँगन,
सूने खेत-खलिहान हुए।
सूनी बगिया, सूूना पनघट,
चैराहे के श्मशान हुए।
किससे पुछे राह बटोही, सोचे बरगद छाँव रे।
मुट्ठी भर सुख की खातिर, छोड़ चले सब गाँव रे ।
जिनके हाथ कमान दिये,
वही चलाते वाण यहाँ।
भूख गरीबी बेकारी से,
बेकल हैं मन-प्राण यहाँ।
जीवन के इस महासमर में, विफल हुए सब दांव रे।
मुट्ठी भर सुख की खातिर, छोड़ चले सब गाँव रे।