ऐग्नेस स्मैडले - एक विदेशी महिला का भारत प्रेम

लेख


ऐग्नेस स्मैडले


एक विदेशी महिला का भारत प्रेम


 


वेद प्रकाश 'वटुक' जी की पुस्तक ''विपन्नता से क्रान्ति की ओर पढ़ते हुए ऐग्नेस स्मैडले के नाम से परिचय हुआ। भारत के प्रति ऐग्नेस की भावनाएं, उनके विचार तथा भारत की आजादी के प्रति उनकी लगन देख उनके प्रति ह्रदय श्रृद्धा से भर उठा। पराधीन भारत के इतिहास में एनी बेसेन्ट और सिस्टर निवेदिता के नाम पर्याप्त चर्चित रहे। ये दोनों अंग्रेज महिलाएं अपने भारत प्रेम के कारण इस देश में आयीं, हमारी आजादी की लड़ाई से जुड़ीं और इसी देश की धरती पर सदैव के लिए चिर निद्रा में विलीन हो गईं। ऐग्नेस स्मैडले की कहानी इससे कुछ भिन्न है। वे कभी भारत नहीं आई। अमरीका में रहते हुए गदर आंदोलन को सहयोग देती रहीं, तथा इसी भारत प्रेम के कारण वे प्रसिद्ध क्रान्तिकारी वीरेन्द्र नाथ चट्टोपाध्याय के साथ 08 वर्ष तक पत्नी कर तरह रहीं थीं।


ऐग्नेस का जन्म भिजूरी (डपेेवनतप) राज्य के ऑसगुड (व्ेेहववक) गांव में हुआ था। निर्धन श्रमिक पिता की इस संतान का बाल्यकाल तमाम अभावों से होकर गुजरा। 1911 में उन्होनें टैम्पे नार्मल स्कूल में प्रवेश लिया। अब जीवन नई दिशाओं की ओर बढ़ने लगा। यहां ऐग्नेस थोरबर्ग बुन्डिन और उनके भाई अरनेस्ट से मिली, जो समाजवादी विचारधारा के थे। शीघ्र ही उन्होनें अर्नेस्ट से विवाह भी किया। 1913 में ऐग्नेस ने सान डियागो नार्मल स्कूल में प्रवेश लिया। 1916 में अमरीका की समाजवादी पार्टी की सदस्य बनीं।


उन वर्षों में कैलिफोर्निया भारतीय बुद्धिजीवियों और क्रान्तिकारी विचारधारा के नवयुवकों का केन्द्र बना हुआ था। प्रवासी भारतीय श्रमिकों के असंतोष को ये युवक अपने देश भारत की स्वतंत्रता के लिए इस्तेमाल करने का प्रयास कर रहे थे। नार्मल स्कूल ने ऐसे ही एक भारतीय केशव देव शास्त्री को भाषण देने के लिए आमंत्रित किया था। उनके विचारों से ऐग्नेस अत्यधिक प्रभावित हुई थीं। बर्कले में ऐग्नेस की भेंट लाला हरदयाल से भी हुई थी। यह भेंट इस बात का प्रमाण है कि उन्हें भारतीय क्रान्तिकारियों के विषय में पर्याप्त जानकारी मिली होगी। उन्हें लाला लाजपत राय के विषय में भी ज्ञात हुआ था जो उस समय न्यूयार्क में निवास कर रहे थे। ऐग्नेस लाला जी से मिलना चाहती थीं। इधर उनके जीवन में तेजी से परिवर्तन हुए। उनकी गतिविधियों और उनके प्रगतिशील विचारधारा के कारण उन्हें स्कूल से हटा दिया गया। पति से भी संबंध विच्छेद हुआ। उसके बाद वे न्यूयार्क चली आई।


अब न्यूयार्क में उन्हें लालाजी से मिलने का अवसर मिला। प्रवासी भारतीयों के बीच लालाजी पर्याप्त लोकप्रिय थे। उन्होनें 1917 में वहां 'इंडियन होम रूल लीग ऑफ अमेरिका की स्थापना की थी। प्रवासी भारतीय क्रान्तिकारियों से भी उनकी भेंट होती रहती थी। लाला लाजपत राय से ऐग्नेस को भारतीय इतिहास की पर्याप्त जानकारी प्राप्त हुई। ऐग्नेस उनसे अत्यधिक प्रभावित थीं। अब वे भारत जाकर भारत की सेवा करना चाहती थीं। लाला हरदयाल ने अमरीका में गदर पार्टी की स्थापना करके गदर आंदोलन आरंभ किया था, जिसका वृहद् इतिहास है। निश्चित रूप से ऐग्नेस को इन सारी घटनाओं की विस्तृत जानकारी मिली होगी। अमरीका भारतीय क्रान्तिकारियों के लिए सुरक्षित देश था तभी वहां इतना कुछ होता रहा। हजारों की संख्या में गदरी अमरीका से भारत पहुँचे। जर्मनी की सहायता से भारत में अस्त्र शस्त्र भेजने की व्यवस्था की जा रही थी, जिसमें अमरीका स्थित जर्मन कान्सुलेट से मदद मिल रही थीं। लेकिन प्रथम विश्व युद्ध में अमरीका के युद्ध में शामिल होने के बाद पििरस्थतियां बदल गई। अमरीका की निगाहें बदलने लगीं। दोस्त दुश्मन बन गए। ब्रिटेन के शत्रु अब अमरीका के भी शत्रु थे। अंततः अमरीका की सरकार ने इंडो-जर्मन कान्सपिरेसी केस आरंभ किया जिसमें प्रवासी क्रान्तिकारियों तथा जर्मन कांसुलेट के कुछ कर्मचारियों सहित 105 व्यक्तियों पर मुकदमा चलाया गया।


इस पूरे समय में ऐग्नेस स्मैडले की महत्वपूर्ण भूमिका रही। पहले से ही उनकी सहानुभूति इन देश प्रेमियों के साथ थी। वे जितना सहयोग कर सकती थी उतना उन्होने किया। उनके आवास के पते पर क्रान्तिकारियों के पत्र आते थे। “वह उनके लिए संवाद-केन्द्र बन गई। उसने उनका पत्र व्यवहार, उनकी संकेत शब्दावली, उनके विदेशी पते गोपनीय रूप से अपने पास रखने शुरू कर दिए'' (वटुक, पृ0 204)। भारत की अंग्रेजी सरकार से अमरीका को अमरीका में रहने वाले भारतीय राजद्रोहियों (अंग्रेजी सरकार के विरूद्ध षडयंत्र करने वाले लोगों) की सूचनाएं मिल रही थी। इसी संदर्भ में एग्नेस भी संदेह के घेरे में आ गई। यह स्पष्ट हो चुका था कि वे क्रान्तिकारियों के संपर्क में है तथा परस्पर संवाद का केन्द्र हैं। ऐग्नेस को भी अपनी निगरानी किए जाने का अनुमान था। इसी कारण मई 1917 से मार्च 1918 के बीच उन्होनें अनेक बार अपना निवास स्थान बदला। एक दिन ऐग्नेस की अनुपस्थिति में उनके आवास की तलाशी ली गई। उस दिन वे कहीं क्रान्तिकारी शैलेन्द्र घोष के आने की प्रतीक्षा कर रही थीं। सरकारी तंत्र को इस कार्यक्रम का ज्ञान था। दोनों ही पकड़ लिए गए।


ऐग्नेस को दो महीने तक कठिन परिस्थितियों में रखा गया। वटुक जी लिखते हैं कि बंदी बनाए जाने के बाद ऐग्नेस को एक काली डायरी की चिंता थी जिसमें क्रान्तिकारियों के पते लिखे हुए थे। इन पतों की सहायता से सरकार क्रान्तिकारियों तक पहुँच सकती थीं। ऐग्नेस को यह भी भय था कि ऐसा होने पर क्रान्तिकारियों का उनके ऊपर से विश्वास उठ जायेगा। 01 अप्रैल 1918 को ऐग्नेस पर जासूसी कानून के तहत मुकदमा चलाया गया। उन पर अंग्रेजी सरकार के विरूद्ध राजद्रोह का आरोप था। अमरीका की सरकार ने समाचार पत्रों के द्वारा ऐग्नेस की छवि को खराब करने का भी प्रयास किया। एक ओर यह चलता रहा, दूसरी ओर वे अपने ऊपर लगाए आरोपों का खंडन करती रहीं। उनके मित्र-वर्ग के अथक प्रयासों के फलस्वरूप उन्हें जमानत मिली। वर्ष 1918 के अंत में वे अपने ऊपर लगाए आरोपों से मुक्त हो गई।


हिंदू जर्मन षडयंत्र में बंदी बनाए गए क्रान्तिकारियों की स्थिति जटिल हो गई थी। सरकार उनकी सजा की अवधि समाप्त होने पर उन्हें भारत की अंग्रेजी सरकार के सुपुर्द करना चाह रही थी जहां उन्हें कठोर कारावास से लेकर फांसी और काला पानी की संजाएं मिल सकती थीं। जमानत मिलने के बाद ऐग्नेस पुनः इन क्रान्तिकारियों के हितों को लेकर सक्रिय हो गई। उन्होनें अपने मित्रों के सहयोग से 'फ्रेण्ड्स ऑफ फ्रीडम फॉर इंडिया' (भारत स्वतंत्रता मैत्री संघ) की स्थापना की। इसका उद्देश्य इन क्रान्तिकारियों के पक्ष में जनमत तैयार करना था। इस संबंध में अनेक समाचार पत्रों में लेख लिखे गए। इन लेखों में इस सत्य की भी चर्चा की गई कि भारत वासियों ने प्रथम विश्व युद्ध में जन और धन दोनों से अपनी सामर्थ्य भर ब्रिटेन की सहायता की थी। इस सहयोग के बदले में भारत को जलियां वाला बाग कांड का सामना करना पड़ा था जिसमें सैकड़ों निहत्थे लोगों पर गोलियां चलाई गई थीं। 'ऐग्नेस ने सारे देश में जलसे आयोजित किए, जलूस निकाले। 17 मार्च को होने वाली विशाल 'सेण्ट पैट्रिक डे परेड में न्यूयार्क में .... उसने अपने मित्रों के साथ हरी साड़ी पहन कर भाग लिया। तथ्य तो यह है कि उस समय किसी भी भारतीय या अमेरिकन ने भारत के हितों के लिए इतना काम नहीं किया, जितना अकेले ऐग्नेस स्मैडले ने किया' (वटुक, वहीं, पृ0 207)।


ऐग्नेस को अपने ध्येय में सफलता मिली। भारतीय क्रान्तिकारी ब्रिटिश सरकार को नहीं सौंपे गए। लेकिन इस बीच, जब यह विदेशी महिला भारतीय सेनानियों के लिए संघर्ष कर रही थीं, अमरीका की गदर पार्टी के सदस्यों के बीच परस्पर मतभेद आरंभ हो गए थे। ये मतभेद अत्यधिक लज्जाजनक थे। ऐग्नेस ने इनके विवादों को सुलझाने के अनेक प्रयास किए, लेकिन असफल रहीं। इस असफलता के कारण वे उनके प्रति उदासीन होने लगीं। उन्हें दुःख था लेकिन वे विवश थीं। फिर वे जर्मनी चली गईं। बर्लिन आकर वे पुनः भारत से जुड़ी, “बर्लिन नेशनल कमेटी'' की सदस्य बनी, भारत की स्वाधीनता के प्रति सजग और क्रियाशील रहीं।


बर्लिन आने के बाद ऐग्नेस एक ऐसे व्यक्ति से जुड़ी जिनका नाम भारतीय क्रान्तिकारी आंदोलन के इतिहास में बड़े आदर के साथ लिया जाता है। उनका नाम वीरेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय था, लोग उन्हें चट्टो भी कहते थे। चट्टो 1902 में उच्च शिक्षा के लिए लंदन गए, फिर कभी उन्होने अपनी मातृभूमि के दर्शन नहीं किए। लंदन में वे प्रवासी देशभक्तों के संपर्क में आए, निरंतर उनसे जुड़े रहे, बाद में साम्यवादी विचारधारा के अनुयायी बने। उन्होनें अपना सारा जीवन निर्धनता में व्यतीत किया।


ऐग्नेस उनके जीवन में उस समय आई जब वे असफलताओं का एक लंबा दौर झेल चुके थे। वे एकाकी थे। ऐग्नेस भी बर्लिन में एकाकीपन की पीड़ा को झेल रही थी। इस क्रान्तिकारी लेखिका ने चट्टो के जीवन को नवीन ऊर्जा और नई दिशा प्रदान की। उनको जी जान से चाहा, उनका पूरा साथ दिया, आर्थिक मदद की। लेकिन ऐग्नेस को अपने प्रेम का प्रतिदान नहीं मिला। वे साथ-साथ रहे, लेकिन उन्हें चट्टो का वह प्रेम, समर्पण और सहयोग नहीं मिला जिसकी ऐग्नेस ने कामना की थी।


समय बीतने के साथ ऐग्नेस को समझ में आ गया कि उनका यह संबंध बराबरी का नहीं था। ऐग्नेस को चट्टो के अनुसार ही चलना था, रहना था। वे चट्टो की अनुमति के बगैर कुछ भी प्रकाशित होने के लिए नहीं भेज सकती थीं। यहां तक किसी विश्वविद्यालय में ऐग्नेस को गांधी जी पर व्याख्यान देने जाना था। चट्टो ने ऐसा नहीं होने दिया। ऐग्नेस ने आठ लंबे वर्ष ऐसे निरंकुश तानाशाह व्यक्ति के साथ व्यतीत किए। अपनी आन्तरिक व्यथा के क्षणों में उन्होनें अपनी मित्र को लिखा था, “कितना भयावह है उस आदमी से प्यार करना जो तुम्हारे लिए घोर यातना है पर जो इसके सिवाय कुछ नहीं सुनना चाहता कि तुम उसको प्रलय तक प्यार करते रहो, उसके एकदम पास में रह कर।' फिर एक समय ऐसा आया जब ऐग्नेस को चट्टो के साथ रहना असंभव लगने लगा। “आठ वर्ष की यातना के बाद उसे अनुभूति रही कि अगर उसे जिंदा रहना है, तो चट्टोपाध्याय को छोड़ना ही होगा और भारत जाने का सपना भी'' (वटुक, पृ0 210)। उन्होनें ऐसा ही किया। फिर भी चट्टो को छोड़ने के वर्षों बाद उन्होनें लिखा था .... “वीरेन मेरे भावनात्मक जीवन का केन्द्र है और आज भी अगर वह किसी खतरे में हो तो में नंगे पैर


धरती के उस छोर तक पैदल चल कर बचाने जाऊँ तो भी मैं उसेकै साथ एक दिन भर नहीं रह सकती।”


1928 में ऐग्नेस चीन चली गईं। चीन ने उन्हें पूरा सम्मान दिया। चीनी क्रान्ति में उनका सहयोग था। इस क्रान्ति का आंखों देखा विवरण ऐग्नेस के द्वारा अन्य देशों तक पहुँचा। उन्होनें खूब लिखा। वे न्यूयार्क कॉल, मॉडर्न रिव्यू, न्यू रिपब्लिक, नेशन, मैनचेस्टर गार्जियन जैसे समाचार पत्रों की संवाददाता रहीं। उन्होनें अनेक पुस्तकें भी लिखीं। उनका आत्म-कथात्मक उपन्यास 'डॉटर ऑफ अर्थ'' तथा 'बैटल हिम ऑफ चाइना' पुस्तकें विशेष रूप से प्रसिद्ध हुईं। जीवन के अंतिम कुछ वर्षों में वे अमरीका में हीं। वहां उन्हें अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। उन पर जासूसी के आरोप भी लगे। 06 मई 1950 को लंदन में उनकी मृत्यु हुई। मृत्योपरान्त चीन ने उन्हें पर्यापत सम्मान प्रदान किया। वह देश उन्हें कभी नहीं भूला। चीन ने उनकी भस्म को बीजिंग के पास क्रान्तिकारियों के कब्रिस्तान में समाधि बना कर रखा। उनकी स्मृति में एक डाक टिकिट भी जारी किया।


लेकिन भारत में इस भारत भक्त महिला को कोई सम्मान नहीं मिला, न ही इस देश ने उन्हें कभी याद किया। कुछ भारतीय क्रान्तिकारी साथियों ने उन पर चरित्रहीनता के आरोप लगाकर उनकी छवि को धूमिल करने का प्रयास भी किया। 1927 में ब्रसेल्स में 'लीग अगेन्स्ट इम्पीरियलिज्म' के सम्मेलन में पं0 जवाहर लाल नेहरू ऐग्नेस से मिले थे, उनसे बहुत प्रभावित हुए थे, उन्हें भारत आने का निमंत्रण भी दिया था। वहीं पंडित नेहरू जब आजादी के बाद अमरीका गए तब उन्हें ऐग्नेस का ख्याल नहीं आया। एक पत्रकार सम्मेलन में किसी के द्वारा याद दिलाने पर उन्होनें ऐग्नेस को अपने होटल में बुलाया। ऐग्नेस मिलने आयीं, “पर गुलामी में दिए निमंत्रण को आजादी में नहीं दोहराया।''


ऐग्नेस स्मेडले का संपूर्ण जीवन संघर्षमय रहा। दूसरों के हितों के लिए स्वयं को बलिदान करती रहीं। उन्होनें प्रवासी भारतीय क्रान्तिकारियों के लिए जो किया, उसका यह संक्षिप्त विवरण है। वटुक जी लिखते हैं अपने स्वतंत्र विचारों से वह वामपंथी और दक्षिणपंथी दोनों का निशाना रहीं। पर उस जैसी निष्ठा और कहीं नहीं थी। जीने का जो मार्ग उसने चुना, उसमें उसने सर्वस्व झोंक दिया।”


नोट:- वेद प्रकाश 'वटुक' की पुस्तक विपन्नता से क्रान्ति की ओर'' (गदर पार्टी का संक्षिप्त इतिहास) पर आधारित।



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