चल खुसरो
जन्म - 13 जुलाई 1941
प्रयाण - 11 दिसंबर 2017
कविताएँ
(सुनीता जैन की स्मृति में )
चल खुसरो
शीत निद्रा में सोया है अभी फूल
सोयी है उसमें,
उसकी खुशबू।
यकीनन मौसम अभी उदास है
दिल्ली के दिन बहुत सर्द।
अभी-अभी घोषणा हुई-
''कविता की खेप लेकर आने वाली थी जो ट्रेन
खराब मौसम और खराब माहौल के चलते
निरस्त हो गई है।
यह निराश करने वाली सूचना है।
कृपया खुशनुमा मौसम का इंतजार करें
असुविधा के लिए खेद है,
धन्यवाद।''
'लोग अपने घरों से बाहर तभी निकलें
जब बहुत जरूरी हो।''
चिड़िया को नहीं पता था
कि लोगों को सचेत किया जा चुका है।
आदतन वह उड़ी
और जहरीली हवा में खो गई।
दिल्ली की सेहत पर इन दिनों हर कोई चिन्तित।
खो गई उसकी सहज स्वर-लिपि
शोर और शर्मिन्दगी
यही चेहरा अब दिल्ली का ...
एक घर था दिल्ली में
जहाँ चिड़िया को सुकून मिलता था।
मिलता चुग्गा और प्यासे कण्ठ को पानी।
दिल्ली में वह कोई और दिल्ली थी !
“जन्तर-मन्तर'' पर शुरू हो गया आज से नया धरना।
दिल्ली का यही चेहरा देखने के लोग अभ्यस्त।
मीडिया और पत्रकार हरदम सक्रिय
पुलिस और प्रशासन हर स्थिति से
निपटने के लिए मुस्तैद।
इन्हीं सारी उत्तेजनाओं और शोर-शराबे के बीच
एक थकी आत्मा ने
डूबती कातर आवाज में कहा
“अच्छा, दिल्ली-नमस्कार।''
दिल्ली का ध्यान युवराज के राज्यारोहण के जश्न पर था
वाक्-पण्डितों को दम लेने की फुरसत नहीं थी।
'नमस्कार।'' कहने के बाद उस थकी आत्मा के पास
कहने को कुछ भी शेष नहीं था।
उसकी अधूरी-अधूरी रह गई प्रेम कविता का पन्ना
पेपरवेट के नीचे दबा विकल था . ..
एक नाम कई जगहों से आज खारिज हो गया।
- प्रमोद त्रिवेदी, उज्जैन, फोन. 07342516832
साभार: अक्षरा, जुलाई 2018
प्रस्तुतिः डा. हेमा दीखित
देर से सही, तुम आई हो आज कविता
सोचती हूं, क्या बात करुं तुमसे
भुलाते भुलाते हर अच्छे बुरे को
भूलने की आदत सी हो गई है मुझे
तो भी तुम आती रहना
जब जब तुम और मैं पहुंचे पास
देखती तो हूं चारों तरफ
मन बहलता नहीं मगर
न परिधान, न पैसा, न मुंह-देखी किसी की
केवल तुम और केवल तुम
रससिक्त रखे रहती थीं जी को मेरे
तुम आ जाना, आती रहना
ये सांसों की धीमी धनक
कम हो रही है वैसे भी
कौन जाने कितना बचा अब संबंध अपना
सच कहना, क्या केवल मैं उदास हूं
बिन तुम्हारे-
क्या तुम भी नहीं हो
कुछ ठगी सी
इस छूट चले अनुबंध से?
जाते-जाते
हर वर्ष जाते जाते
वे छोड़ जाते हैं स्नान घर में
बाकी बचे शेम्पू, टूथपेस्ट और
साबुन विदेशी, अपनी पसंद के
छोड़ जाते हैं एक जुराब
जो कपड़े धोने की मशीन में
चिपकी रह गई, या छूट गई
पंलग के नीचे
वे छोड़ जाते हैं एक आध जोड़ी जूते
जो दिल्ली की सड़कों पर इतने धूल सने कि
रखे नहीं सूटकेस में
रसोई घर में छोड़ जाते हैं
कुछ खाने का सामान
एक आध पैकेट 'एनर्जी बार'
या बिस्कुट कई मेल के
हवाई अड्डे से लौटी विदाकर उन्हें,
उम्र दराज मां, मन ही मन रोती
देखती हूँ ये वस्तुएं।
और रहने देती हैं जहां की तहां
जाकर अपने कमरे में
लेटती हूँ करवट के बल
घर का सन्नाटा
सनसनाता है घर अंदर
मन को नही भरोसा
कि वे लौटेंगे जल्दी
या फिर कभी मेरे जीते जी
इसके आगे नहीं सोचती
आंख का पानी झरझराता है
तकिया पथकी सी देता है
वक्ष लगाता है।
साभार: 'ऐसे जाने देना', सुनीता जैन, अनन्य प्रकाशन, दिल्ली