धरावाहिक उपन्यास ( पारो )

धरावाहिक उपन्यास (बीसवीं किस्त)


....हरिया भी दो तीन बार आँखें भरकर उस के सिर पर हाथ फेरता रहा था, विवश और लाचार होकर  रायसाहब से भी अधिक उस के मुख पर करुणा थी। गोदी में खिलाया था हरिया ने उसे सारा बचपन।


मैं उस सारी स्थिति में किंकत्र्तव्यविमूढ़ थी न कंचन से जुड़ पा रही थी और न ही रायसाहब से जो मेरे लिए जैसे दूसरा किनारा थे।


मैं अनमनी हो उठी। मुझे लगा-मैं और जिंदगी दो किनारों की तरह चल रहे हैं और बीच में बहता हुआ है≤। हम बस बीत रहे हैं इस बहाव के साथ पर दो किनारों  की सी अलग-अलग हमारी जिंदगी है। हम एक दूसरे के साथ चल सकते हैं पर एक-दूसरे के साथ मिल नहीं सकते-छू नहीं सकते। मन को बांट नहीं सकते। शायद जीवन में कभी भी वह पल नहीं आयेगा- जब दो किनारे मिल सकेंगे और समय की तलछट में साथ.साथ बैठ कर बहते हुए पानीनुमां समय को हाथों से स्पर्श कर सकंेगे या उस मंे साथ.साथ डूब पायेंगे।


मुझे लगता है कि मैं एक अभिशप्त आत्मा हूँ और मेरी नियति केवल दो किनारों-सी ही बनी है। देवदास के साथ भी और रायसाहब के साथ भी।


यह सारा नियति का अनूठा रहस्य है। महत्व केवल इन मिले हुए पलों का है जिन्हें हम धूमिल भी कर सकते हैं और इनके पार जा कर सार्थक भी बना सकते हैं। पर अंतिम तथ्य यही है कि जो ऊपर वाले ने दिया है- जिस स्थिति विशेष में हमें डाला है, हम उसी को सहर्ष स्वीकार करें- चाहे वह मीठी हो या कड़वी। एक ही भाव के कम ज्यादा होने से भी सन्तुलन बिगड़ जाता है।


यही सच है पारो!


देव! तुम यहाँ हो।


हाँ पारो! तुम्हें इस तरह देख कर कैसे दूर रह सकता हूँ।


इस सारी दुविधा में से कैसे निकलूँ देव!


इससे तटस्थ रह कर भी तुम स्वयं को कभी क्षमा नहीं कर पायोगी पारो!


वह तो है।


इसी में रह कर अपना रास्ता ढूंढो।


प्रयत्न करती हूँ देव पर भटक जाती हूँ।


यह सारा जीवन ही एक भटकन है पारो.....


देखो पारो! मैं दो जहान में भटक रहा हूँ-न इधर का हूँ न उधर का।


इस लिए चाहती हूँ तुम्हारे पास आ जाऊँ और हमारी दोनों की भटकन को विराम मिले।


ऐसे भटकन समाप्त नहीं होती- बढ़ती है।


वह कैसे?


क्योंकि ऊपर वाले की इच्छा यह नहीं है। अगर होती तो हम दोनों का अवसान एक साथ हो सकता था। तब हम इस माया के चक्कर से छूट जाते।


तुम छूट सकते थे।


वह कैसे ? देव ने आश्चर्य से पारों की ओर देखा!


चन्द्रमुखी को अपना बना कर।


काश! मैं ऐसा कर सकता।


क्यों नहीं कर सकते थे।


तुम जो गले मैं 'हठ' बन कर अटकी हुई थी।


निकल तो गई थी मैं!


क्या तुम इसे निकलना कहती हो?


हाँ यह एक तरह से निकलना ही है।


हाँ इसी लिए आज तक रायसाहब को पति नहीं मान सकी।


अच्छा! रहने भी दो।


अगले जन्म में चन्द्रमुखी को पत्नी जरूर बनाऊँगा पारो।


और मैं!


तुम रायसाहब की पत्नी बनोगी।


देव! पारो ने चिल्ला कर कहा।


क्या हुआ बहू? पार्वती बहू? हरिया ने पलट कर पूछा। हरिया पास ही खड़ा सामान ठीक कर रहा था।


पारो सीट पर बैठी खिड़की से झांकती हुई अनमनी-सी अपनी धुन में खोई हुई थी।


काश! इस प्यार की परिभाषा कोई समझ पाता देव।


अब धीरे धीरे समझ में आ रहा है। जैसा कि लोग समझते हैं- प्यार केवल दिल का फतूर है जिस में मस्तिष्क काम करना बंद कर देता है। आदमी की मानसिक शक्ति क्षीण हो जाती है- लेकिन आज मुझे लगता है प्यार न दिल का फतूर है न दिमाग की अपरिपक्वकता और न ही हृदय की दुर्बलता है। इसके तार तो कहीं पिछले जन्म के किसी अधूरे रिश्ते से जुड़े हुए होते हैं। हर कर्म का फल निश्चित होता है। हर स्थिति की परिस्थिति होती है इसी तरह प्रेम का भी इतिहास होता है जो जन्म-जन्मों तक अपना ऋण मांगता रहता है। मिटता उस जन्म में है जब वह ऋण चुकता हो जाता है। जब किसी प्रेम का अंत ईर्षा, द्वेष या घृणा में होता है तो समझो प्यार ने अपनी योनि काट ली है। जब तक यह मनःस्थिति नहीं आती तब तक वह जन्म-जन्मांतर तक आगे.आगे ठिलता रहता है। किसी न किसी रूप में जीवित रहता है। अगर यह पिछले जन्म से न जुड़ा हो तो क्यांें हमारे लिए लम्बे समय तक उपयुक्त साथ की तलाश की जाती है। उस तलाश में हम कई बार स्वयं होते हैं और कभी समाज ए


माता-पिता, पंडित उन की गुण-अवगुण की गणना, योनि, गण और न जाने क्या-क्या हिसाब लगाए जाते हैं। कभी-कभी सब कुछ मिलाने पर भी आत्मिक मिलाप नहीं हो पाता क्योंकि दुनियाई गणित गलत हो जाता है। अगर यह सब किसी अतीत या व्यतीत से जुड़ा न होता तो संभवतः जो भी मिलता उस से हम बंध जाते। हम स्वयं भी इस ढूंढ में लगे रहते हैं क्यों नहीं वह सामने आकर खड़ा हो जाता कि ''मैं हूँ'' पर यह खोज तब तक चलती रहती है जब तक मानवीय ज्ञान के अनुरूप सब नक्षत्रों का मिलान नहीं हो जाता। पर कभी-कभी यह सारी खोज अधूरी या अधकचरी ही रह जाती है क्योंकि हमारी सोच उस गहराई तक नहीं पहुँच पाती। इसी लिए प्रेम के रास्ते वह आत्मा तुम तक पहुँच जाती है।


देव- तुम स्वयं देख लो। चंद्रमुखी चाहे तुम्हारी खोज नहीं थी पर तुम उसकी खोज थे-  इसी लिए वह तुम तक पहुँची तो सही।


हाँ पारो! यह सारे बड़े गूढ़ रहस्य है। प्रेम एक भावना ही नहीं कोई बचा हुआ आधा.अधूरा आत्मिक बंधन भी हो सकता है जो कहीं अन्दर ही अन्दर चिरन्तनता तक चलता रहता है। जब उस का समय समाप्त हो जाता है, वह बिन बुलाये आपके जीवन से ओझल हो जाता है चाहे दूसरे को उस की कितनी ही पीड़ा क्यों न हो! यहाँ तक कि कई बार दोनों की प्यार की जीवित या बची हुई अवधि भी एक सी नहीं होती। जैसे-मेरी खोज तुम थी पर उस की पूर्ति नहीं हुई। हम मिले , हम ने प्रेम को देखा , महसूसा , समझा पर एक नहीं हो सके। ये सब विधि के खेल हैं पारो।


तुम चंद्रमुखी को आज भी चाहते हो न देव!


चाहता तो तुम्हें भी हूँ-


मेरी बात छोड़ो!


वह कैसे!


वह तुम्हें इतना प्यार करती थी जो शायद अब भी करती है।


हाँ करती थी पर मैं नहीं करता था। उस का प्यार भक्ति भाव से संलिप्त था जो तुम्हारे प्यार की सनक से अलग था।


तुम उस के पास कभी जाते हो क्या!


हाँ जाता हूँ न! पर वह मुझेे सुन नहीं पाती। शायद मेरी उपस्थिति का उसे आभास होता है क्यों कि वह कांपने लगती है। उस के पैर लड़खड़ाने लगते हैं, मैं बुलाता हूँ-चंद्रमुखी।


पर वह केवल कंपायमान होती है जाग्रत-नहीं।


पर क्यों! मैं तो तुम्हें सुन पाती हूँ- हाँ देख नहीं सकती।


नहीं मालूम- यही मैं देख कर हतप्रभ हूँ और अभिभूत भी। वह मेरी पूजा करती है , मेरे नाम का रोज दीया जलाती है और घाट पर जाकर पानी मंे उतारती है। मेरा नाम ले ले कर मुझे पुकारती है। मैं सुनता हूँ- तो विचलित होता हूँ। यही नहीं अपना घर बार,, गहने कपड़े , साज श्रृंगार सब छोड़ दिया है उस ने।


फिर गुज़र कैसे करती है?


मालूम नहीं। शायद पुराने साहूकार-ग्राहक आज भी बिना किसी लाग.लपेट और अपेक्षा के अपना समय सुकून में बिताने आते हों- जो कुछ मांगते नहीं केवल देते हैं। यह उसका बचा हुआ सौहार्द है पारो!


हाँ देव! चंद्रमुखी बहुत भली आत्मा है। तुम ने उस के साथ भी अन्याय किया है।


उसके साथ भी! पारो! तुम कैसे भूल रही हो कि अन्याय तुमने मेरे साथ किया है। चुपचाप हवेली के सजेढाए हिंडोले में बैठ कर चली गई और मैं किनारे पर डोली को कंधा देने के बाद तुम्हें जाते देखता रहा और तुम कहती हो अन्याय मैंने किया है।


हाँ देव! अन्याय तो तुमने किया है। तुम मेरे माँ-बाप के सामने गिड़गिड़ा सकते थे। मेरा कन्यादान , मेरे फेरे रुकवा सकते थे। मुझे उठा कर ले जा सकते थे। तुम ने कोई पौरुष नहीं दिखाया। तुम पुरुष थे कुछ भी कर सकते थे। मैं अंतिम क्षण तक देखती रही कि तुम मेरे माता-पिता के सामने डट कर खड़े हो जायोगे और मेरी बाँह पकड़कर खींच कर मुझे वहाँ से भगा ले जायोगे। मैं केवल बिटर-बिटर ताकती रही। मैं जानती हूँ हाय.तौबा होती पर थोड़े दिनों में हर उठे हुए तूफान की तरह शांत हो जाती।


हाँ अवश्य पारो। कितना सरल है यह सब कहना और हम दो जन आपस में खुश रहकर माँ-बाप की अवहेलना के लिए एक.दूसरे को दोषी ठहराते रहते। जिधर जाते हम पर ताने कसे जाते। हम समाज च्युत हो जाते और साथ ही हमारे माता.पिता किसी को मुँह दिखाने योग्य न रहते। कैसा होता वह जीवन , उस पर उस समय का तुम्हारा अहम्।


शुभकामनाएँ और आशीर्वचन हमारे जीवन में कभी न व्यापते। ऐसा अशांतिपूर्ण जीवन का स्थायीत्व कहाँ होता है पारो!


पारो ने सिर झुका लिया। वह अन्दर से कितनी गलत थी,जिस ने मान लिया था कि पुरुष केवल एक पुतला है-ऊपर से महारथी दिखने वाला अन्दर से कितना बड़ा डरपोक है , पर पुरुष को समाज की चिंता है। वह अपने से बाहर निकल कर सोच सकता है किंतु औरत केवल अपनी भावनाओं के घेरे में घिरी रह कर भ्रमित रहती है और पुरुष को दोष देती रहती है। वह कितना गलत सोचती थी कि पुरुष के पास केवल आर्थिक सामथ्र्य है और कुछ नहीं लेकिन आज वह समझती है कि वह सामथ्र्य केवल बाहरी है अन्दर से वह एक शक्ति है। जिससे वह औरत पर हावी होता है, हाँ वह इस उर्जा को जब गलत ढंग से अतिश्योक्ति में प्रयोग में लाता है तभी वह केवल निदर्यी या एकाकी बन कर रह जाता है।


हम चंद्रमुखी की बात कर रहे थे।


हाँ पारो! वह मुझे सुन नहीं पाती।


मैं स्वयं चकित हूँ देवदास!


पारो! शायद हम समझ नहीं पाते यह आलौकिक लीला- ये आत्मिक संबंध हैं। यह कुदरत की कोई नियति है। हम सब के साथ नहीं जुड़ सकते। यह आत्म.परमात्म के खेल हैं। तुम मेरी आत्मा का हिस्सा हो और चन्द्रमुखी बाहरी ताम-झाम तक सीमिति थी। मेरे जाने के बाद जब वह इतनी गहनता में चली गई तब मैं वहाँ से निकल चुका था। मेरा स्पर्श उसे कभी नहीं मिला। उस ने कभी मेरी आत्मा को नहीं छुआ पारो! शायद इस लिए कि तुम्हारे प्यार में मन का अधिकार था और उस के प्यार में केवल समर्पण रहा। जितना संबंध उस ने जोड़ा उसी के अनुरूप उसे मेरा भास होता है।


ये सारे सृष्टि के रहस्य हैं , नियति की अपनी रची हुई कलाबाजियां हैं, हम मनुष्य रूप में इन्हें कभी सुलझा नहीं सकते, केवल स्वीकार कर सकते हैं। इस अनंत का आदि- अंत हम से सदैव ओझल रहेगा। इसे ही उस की लीला कहते हैं। कुछ भी सोचो, कुछ भी करो-कितना भी ज्ञान अर्जित करो, पूजा.पाठ करो , इस भवसागर की लहरों को खंगालने का प्रयत्न करो-अन्ततः वह रहस्य ही रहेगा.. आज तक


साधू-संत, ऋषि-मुनि , वेद वेदान्त इस सारी सृष्टि के रहस्य का कोई उत्तर नहीं दे सके। क्यों कोई किसी पर मर मिटता है? क्यों कोई किसी के साथ जन्मजात शत्रुता लेकर ही जन्म लेता है। क्यों एक ही घर में पले-बढ़े बच्चे एक दूसरे से घोर घृणा या शत्रुता करते हैं और कहीं आपस में जुड़े भी रहते हैं। कहीं इतने जुड़े हुए कि एक दूसरे के लिए प्राण भी न्यौछावर कर सकते हैं। कोई एक बच्चा माँ-बाप का या माँ या बाप का इतना चहेता होता है और कोई नगण्य रहता है। एक बेटा माँ.बाप की हत्या तक कर डालता है और दूसरा उम्र भर उन के पाँवों को सहलाता नहीं थकता। ये सारे इस सृष्टि के रहस्य हैं। क्यों आसमान छत की तरह अपनी सुंदरतम नीलिमा लिए हमारे सिर पर बिना गिरे चंदौवा बना रहता है। पृथ्वी सदैव पांवों में  में बिछि रहती है और 'सी' तक नहीं करती। हम हवा में तिरते हैं पर उड़ नहीं सकते वहीं पक्षी आकाश में अविरल उड़़ाने भरते रहते है। पशु सड़कों पर और जंगलों में रेंगते हैं। एक मनुष्य अपने लिए साज-सज्जा जुटा कर उस का अविरल भोग करता है तो दूसरा कंगाली में आटा गीला करता फल भोगता है। ये कुछ संकेत होते हैं अपनी-अपनी ज़िंदगी के कर्मफल के। जिन्हें सामने होते हुए भी हम देख नहीं पाते या देखना नहीं चाहते। हर ज़िन्दगी इसी तरह हर नए दिन की नई उठी


दुविधाओं में धँसती और बीतती जाती है और हम समय के बटन खोलते खोलते हर दिन स्वयं उधड़ते रहते हैं


अब कंचन को ही लो-वह किस श्राप से शापित थी कि पिता ने उसे बचपन में ही त्याग दिया। वह उसे राधा के साथ देख तक नहीं सकते थे। बचपन तो बीत गया अनजाने में पर जब होश संभाला होगा तब क्या बीती होगी उस पर या राधा पर। न जाने कितने उतार- चढ़ावों में उस ने इस विभाव से समझौता किया होगा कि उस का पिता उसे अपने सामने देखना तक नहीं चाहता था और वही उस की माँ उस के एक.एक पल के साथ के लिए तड़पती रही होगी! कंचन को तो तुम इतना प्यार दो कि वह भूल जाए कि उसे जन्म देने वाली माँ कौन थी।


शेष अगले अंक में


 



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