कविता
अपनी ही तलाश से हार गए तुम
होने न होने के बीच
एक असमंजस
सन्तरण करता रहा लगातार तुममें
और एक स्थगन
बना रहा तुम्हारे साथ
रोकता रहा मुक़म्मल होने से
तुम्हें
तुम्हारे वुजूद को।
कितने निरीह और
निरुपाय से हो गए
एक छत के अभाव में
जहाँ रह पाते मुस्तक़िल बने
अपनी बिखरी चीजों के साथ
मेज पोश का कोना ठीक करते-करते।
इस साज सँवार में
एक अव्यवस्था
दंशित करती रही टीस-सी
अपनी झुंझलाहट को कविता में ढालते हुए
देखा है तुम्हें कई बार
हर बार
एक अन्तराल छलता रहा तुम्हें
तुम्हारे भीतर अवस्थित
विद्रोह-सा।
कितना कुछ टालते रहे
मुस्कराते हुए
एक तस्वीर में ढले
अक्सर टीसते हो...बन्धु!
आज भी
महाश्वेता की तलाश
जिन्दा रखे है तुम्हें
तुम्हारी कविताओं में।
असल में
अपनी तलाश से ही हार गए
तुम
निर्मोही...!!!...
चले गए बिना बताए....
यूँ ही जूझते हुए
अपने आप से।
बहुत पहले बना लेना चाहिए था
तुम्हें एक-घर
अपने लिए
यूँ घर-घर
दर-दर
भटकना तो न पड़ता
एक झूठ तो न जीना पड़ता
अपने आप से।
चाहा था मैंने
दे दूँ एक घर तुम्हें
जिसे तुम अपना कह सको
विचर सको जहाँ निद्र्वन्द्व होकर
साधिकार।
ऐसा कुछ होता
इससे पहले ही कह गए अलविदा।
अब परदे की ओट से तुम्हें झाँकते देखकर
बड़ी तकलीफ होती है- सखा!
कहाँ पाऊँ तुम्हें
तुम्हारे लिखे शब्दों के बीच
और मेरी तलाश
अभी भी जारी है
यकीनन
समय की नब्ज़ पहचानने में बड़ी
चूक हो गई
और ऐसा अक्सर होता है
तुम जैसी शख़्सियतों के साथ-