कविता

माँ-बेटा


तुम मेरे गर्भ में पल रहे थे,


उत्सुकता थी जानने को तुम्हारा रूप रंग-


एकांत क्षणों में तुमसे बतियाती थी,


तुम मेरी कोख से बाहर आए,


छा गई प्रसन्न्ता चहुँ ओर,


अब तुमसे प्रत्यक्ष बातें करती,


तुम्हारी भंगिमाओं को प्रत्युत्तर में लेती,


तुम्हारी किलकारियों पर वारी जाती,


धीरे-धीरे तुम्हारी वाणी फूटी,


'माँ' सुनते ही हो गई मैं बावली,


तुम बढ़ते गए, तुम्हारी जरूरतें बढ़ती गईं


मुझ पर अधिकाधिक निर्भर रहने लगे,


बड़ी सुखमय अनुभूति थी,


तुम्हारी निर्भरता की मेरे द्वारा पूर्ति,


दुःख-सुख में तुम्हारा रोना-हँसना,


उसमें मेरा हिस्सा बंटाना, मन को हुलसाता था,


तुम्हारी बढ़वार के साथ मुझसे ऊँचा कद निकला-


बढ़ते गए तुम्हारे सुख-दुःख के हिस्सेदार,


तुम आत्मनिर्भर होते गए,


मुझ पर निर्भरता की हिस्सेदारी घटती गई,


मैं किर्च-किर्च होते मन को,


कैसे ही संभालती रही,


फिर भी स्वयं को आह्लाद में समेटती रही-


'मेरा मेटा इतना बड़ा हो गया,


यह बड़ा होना, तुम्हें मुझसे दूर करता गया,


अब हमारे सम्बन्धों की नींवे-


टिकी है मात्र दो वाक्यों में


''माँ कैसी हो ?'' बैटे खाना खा लिया ?


विदग्ध हृदय विषाद से भर आता है,


क्या यही है 'मेरे मातृत्व की इति श्री!'



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