लोर्का की कुछ कविताएं
मूल स्पानी से सभी कविताओं का अनुवाद: प्रभाती नौटियाल
नए गीत
शाम कहती है: मैं छांह. की प्यासी !
चांद कहता है: मैं प्यासा भोर के तारों का !
बिल्लौरी फौवारा होंठ ढूंढ़ता है।
और हवा भरती ही उछ्वास।
मैं हूँ सुगंधों और हंसियों का प्यासा,
प्यासा नए गीतों का
चांदों, कुमुदिनियों,
और मृत प्रेमों के बिना।
कल का गीत जो लहरें पैदा करे।
भविष्य के शांत तलैयों में।
और भर दे उनकी लहरों-कीचड़ को
एक अदद उम्मीद से।
एक चमकदार और शांत गीत
चिंतन से भरा पूरा,
पवित्र दुःख, पीड़ा
और पवित्र सपनों का।
गाओ बगै़र गेय मांसलता के
जो खामोशी को भर दे हंसी-मुस्कानों से
(अंधे कबूतरों का एक झुंड जैसे
निगूढ़ता की ओर प्रस्थान करे)।
कुछ ऐसा गाओ गीत कि जा बसे
चीजों और हवाओं की आत्मा में
कि आखिर विश्राम करे
शाश्वत हृदय के उल्लास में।
एक घंटी
एक शांत घंटी
अपनी ही लय की सूली चढ़ी
परिभाषित करती है सुबह-सबेरे
धुंध के नकली बालों
और आंसुओं की धारा से
मेरा बूढ़ा चिनार
बुलबुलों से परेशान
कर रहा था इंतजार
कि खोंस दे घास में
अपनी उन टहनियां को
इससे कहीं पहले
कि पतझड़ उसे सुनहरा बना डाले
लेकिन सहारे
मेरी नजरों के
उसे वे झेलते रहे।
ओ बूढ़े चिनार, इंतजार कर!
नहीं करता तू महसूस
मेरे क्षत-विक्षत प्रेम की वह मिट्टी?
छा जाना तू चरागाह पर
जब भी चरमराए मेरी आत्मा,
क्योंकि एक तूफान
चुंबनों और शब्दों का
उसे परास्त, क्षत-विक्षत
कर गया।
विदाई
अगर मैं मरुं,
खुली छोड़ देना बालकनी।
बच्चा नारंगियां खा रहा है।
(देख रहा हूँ अपनी बालकनी से।)
किसान काट रहा है गेहूँ।
महसूस करता हूँ अपनी बालकनी से।
अगर मैं मरुं
खुली छोड़ देना बालकनी।
-साभार: लोर्का प्रवेशांक जून 1999, बसंतकुँज, नई दिल्ली