माँ सदके - कहानी

माँ सदके


'माँ सदके' का असली नाम वीरांवाली था। पांच भाइयों की इकलौती बहन। माँ ने सोच समझ कर ही नाम रखा था। रंग रूप एकदम स्याह था उस पर से अपढ़ गंवार भी। पर कुछ था वीरांवाली के व्यक्तित्व में जो हर किसी को पहली मुलाकात में ही उससे बांध कर रख देता और एक अनूठा संबंध जन्म के लिए बन जाता। कहते हैं ब्याह के वक्त किसी और को दिखा कर लड़के से हाँ करवाई थी। वीरांवाली जितना रूप रंग में कम थी दूल्हा उतना ही गोरा-चिट्टा व पढ़ा लिखा था। उस पर से शराफत भी विरासत में कूट-कूट कर मिली थी। एक बार हाँ कर दी तो ऐसी विसंगत शादी को भी सहज ही स्वीकार लिया था उसने। कभी कोई शिकायत नहीं की। पर कभी कभार विवाह के कई वर्ष बाद भी उनकी खूबसूरती का गुणगान कुछ इस तरह से कर ही देते, 'चैदहवीं का चाँद हो या आफताब हो.... और जब वे अपना साँवल चेहरा ओढ़नी में छिपा उन्हें अपनी गुस्साई आँखों से डपट देती तो घर में बड़े-छोटे सभी खिलखिला कर हंसने लगते। अपने गुणों से वीरांवाली ने घर के सभी सदस्यों का हृदय जीत लिया था। घर देवरों व ननदों से भरा था। नसीबों वाली थी। सबने उसे वह जैसी थी वैसी ही स्वीकार लिया था।


अब तो घर बच्चों से भी भरा था। सात पुत्रों को जन्म दे सतपुत्री कहलाई अपने बच्चों के साथ-साथ वीरांवाली ननद व देवर के बच्चों की भी प्यारी मामी जी व ताई जी कहलाई जाने लगी। उन दिनों संयुक्त परिवार हुआ करते थे। बच्चे कब और कैसे बड़े हो जाते थे पता ही नहीं चलता था। बच्चे अपने थे, ननद के या देवर के, वीरांवाली ने सबको अपना समझ सब पर भरपूर प्यार लुटाया। इतना कि सभी बच्चे उन्हें प्यार से बीजी बुलाने लगे. ..अपनी-अपनी माँ से अधिक मान देते हुए और बीजी भी बिना किसी भेदभाव के मोयन मिले आटे को अजवायन व नमक में गूध-गुंध कर परांठे बना-बना कर बच्चों को खिलाती रहती और बच्चों में उनकी प्रशंसा से भर उठते तो वे उन सबके सिर पर हाथ फेर-फेर कहती 'माँ सदके'। इतने प्यार से परोसा हुआ खाना आज किसके नसीब में हो सकता है। बच्चे परांठे खाते-खाते थक जाते पर परांठे बनाते-बनाते बीजी के हाथ न थकते और न ही उनके मुख से निकलते आशीर्वाद कम होते। फिर उनमें से किसी ने पूछ ही लिया 'बीजी, यह 'माँ सदके क्या होता है। वे प्यार से जवाब देती 'बेटा जी, ये मेरा तुम्हारे लिये आशीष है। धीरे-धीरे सब उन्हें बीजी के बजाय 'माँ सदक'े बुलाने लगे। जब भी कोई बच्चा उन्हें इस नाम से बुलाता तो उनका चेहरा खिल उठता। वीरांवाली के काले रंग पर माँ सदके' की अच्छाई व प्यार का ऐसा रंग चढ़ा कि उनके चेहरे का काला रंग कहां गुम हो गया पता ही नहीं चला। अनपढ़ होते हुए भी अपने प्यार, मुहब्बत व सच्चाई से उन्होंने सबको अपना बना लिया था और परिवार के हर सदस्य के जीवन में उनका एक विशेष स्थान था। 'बुराई' शब्द उनके शब्दकोश में था ही नहीं। जिस घर जाती खुशियां ही बांटती।


धीरे-धीरे परिवार बड़े होने लगे। देवर, ननद, सब अपने परिवारों को अलग-अलग सुव्यवस्थित करने लगे। बीजी यह सब देखती तो उनका हृदय भीतर ही भीतर कहीं रो देता। उनका प्यार व मुहब्बत भी उन सबको ऐसा करने से रोक नहीं पाया और हो गये उन सबके घर अलग-अलग...विभाजित।


वक्त, गुजरता गया, बच्चे बड़े होने लगे। अब तो वे सब किसी विशेष अवसर या आयोजन में ही मिलते। इतना सब कुछ हो गया परिवार में पर 'माँ सदके' का प्यार बच्चों के प्रति कम नहीं हुआ और न ही बच्चों का उनके प्रति मान-सम्मान। कोई भी व्याह शादी होती तो उन्हें लिवाने के लिए विशेष गाड़ी भेजी जाती। उनका घर में कदम रखते ही कोलाहल सा मच जाता. ....भाभी जी आ गई, बीजी आ गई....जल्दी चलो। माँ सदके आ गई....और शुरू हो जाता उनका बच्चों के साथ गूढ़ा....गूढ़ा वाला प्यार-मल्हार। बच्चे तो बड़े हो गये थे पर अपनी बीजी के साथ उनका अभी भी वही लाड़-प्यार चलता....वे उन्हें बस घेरे रहते....व सारा दिन उनके हाथों बनी मक्खन की डली रखी मकई की नर्म-गर्म रोटियां व बाजरे के गुड़ में पगे पकवान तोड़ते रहते। और यह सिलसिला देर रात तक चलता रहता। उनका प्यार पा बच्चे क्या ननद, देवर सब घर का विभाजन....सारा अलगाव भूल जाते।


छत पर भी देर रात तक मेला सा लगा रहता। पांच-छह निवाड़ी पलंग जोड़कर बिछाये जाते, उन पर सफेद इस्त्री करी हुई चादरें बिछाई जातीं....सिंबल के नर्म तकिये लगते ही सबसे पहले बीजी को ही उन पर बैठने का निमंत्रण मिलता और फिर बच्चों में एक होड़ सी लग जाती उनकी बगल में बैठने के लिए और सब देर रात तक उनके प्यार-मल्हार में डूबे उनसे अपने वक्त के किस्से कहानियां सुनाने की फरमाईश करते। उनके द्वारा दिया ज्ञान बटोरते वहीं उनके गिर्द लेटे-लेटे खुले आसमान के नीचे...तारे गिनते...लम्बी तान सब सो जाते। क्या आज के युग में संभव है यह सब और किसके पास है इतना वक्त। क्या आज कोई अपने मामा-मामी का इतना मान-सम्मान करता है। कोई भी शादी...शगुन मामी जी के आये बिना अधूरे रहते जब तक फेरे, डोली, सारे रस्मो-रिवाज संपन्न न हो जाते, मामी जी को अपने घर जाने की इजाजत न होती। एक और भी कारण था मामी जी के महत्व का, सब कहते माँ सदके का आशीष पा कइयों की गोद हरी हुई थी सो घर में जिस भी बहू की संतानोत्पत्ति नहीं होती वो 'माँ सदके' के गिर्द चक्कर काटती ही रहती...जाने कब वे उन्हें वह गुर बता दें कि उनकी गोद भी हरी हो जाये।


फिर उन शादी ब्याह के कार्यक्रमों से निवृत हो जब वे अपने घर के लिये रवाना होने लगतीं तो सब बच्चे उन्हें एक बार फिर से घेर लेते, उनके मुख से एक बार 'माँ सदके सुनने के लिये। बच्चों का तन-मन उनके इस आशीष से इतना हर्षाता कि वे बोल उठते, 'एक बार फिर कहो न 'माँ सदके और वे उन सबको अपने उसी अंदाज में आशीष देते नहीं थकतीं। मामी जी बड़ी लम्बी उम्र लिखवा कर लाई थीं इसीलिए तो घर के सब बच्चे उनके साथ किसी न किसी तरह से वर्षों तक जुड़े रहे। ऐसी मुहब्बत आजकल देखने-सुनने को नहीं मिलती। पर फिर भी धीरे-धीरे व्यवसाय की प्राथमिकता और जीवन की व्यस्तता ने माँ सदके को अपनों से थोड़ा दूर कर दिया था। पर दूर होते हुए भी एक दूसरे की याद कहीं हृदय में संजोये ही रहे।


अब तो पोत बहू गृह प्रवेश कर चुकी थी। उसी के लाड़-मल्हार का वक्त था...इस उम्र में भी क्या जज्बा था। सुबह-सुबह उनकी रसोई से चकले बेलन पर इलायची पीसने की आवाज आ रही होती। पोत बहू आधुनिका थी. ..पाश्चात्य रंग में रंगी पर उनके हाथ की प्रेम व देसी घी में पगी परांठी व आम का पंचफोरनी अचार उस इलायची वाली चाय के साथ नाश्ते में उसे खूब रास आते। 'माँ सदके' आज तीसरी पीढ़ी को अपनी सामथ्र्य के हिसाब से सुख पहुंचाने में लगी थीं।


पर धीरे-धीरे जर्जर होता शरीर मुरझाता जा रहा था....चेहरे पर अनेक झुर्रियां पड़ गई थीं जो पोते द्वारा लाई विदेशी क्रीम से भी कम नहीं हुई बल्कि वह उनके सांवले रंग पर अजीब सफेदी लगा उन्हें और अनाकर्षक बना देती। नब्बे की हो चली थीं और अभी भी सीधे खड़े होकर ही चलती वे। अपना नहाना-धोना, खाना-पीना स्वयं ही करतीं। पर बढ़ती उम्र ने किसको बक्शा है....बूढ़ा शरीर धीरे-धीरे झुकने ही लगा, पर छड़ी को कभी हाथ नहीं लगाया। घर में ही इधर-उधर चलने के लिए दरवाजे-दीवारों का सहारा ले लेतीं। धीरे-धीरे वे अपनी उम्र को जैसे स्वीकारने लगीं और घर के सबसे छोटे कमरे में खुद के लिए जगह बना ली, अपने जर्जर होते शरीर से किसी को कष्ट न देते हुए वहीं समा कर रहने लगीं। कमरा छोटा था पर इसी में पलंग पर गद्दा लगा अपने थोड़े से कपड़ों की गठरी का ही तकिया सा बना वहीं दिन रात पड़ी रहतीं। जानती थीं चाह कर भी अब वे किसी के लिए कुछ नहीं कर पाएंगी। बहू अच्छी थी, चाहे वह स्वयं बढ़ती उम्र के पड़ाव पर थी...फिर भी वक्त से बीजी के उस छोटे से कमरे में उनकी जरूरियात की चीजें पहुंचाती ही रहती। कभी उनकी सेवा में दूध गाढ़ा कर रबड़ी बना रही होती तो कभी नुक्कड़ वाले हलवाई की दुकान से उनके लिए गरम कड़ाही से उतरती जलेबियां खरीद कर ला रही होती। जितना प्यार 'माँ सदके ने दुनिया को दिया था उतना ही उन्हें वापस भी मिला था चाहे उम्र के अंतिम पड़ाव में बहू से या पोत बहू से।


कहते हैं मूल से ब्याज ज्यादा प्यारा होता है और बात जब ब्याज के व्याज की होने लगे तो चैथी पीढ़ी की खुशी देखने के लिए माँ सदके मचल उठती। उम्र से बेहाल बुखार से तपता बदन....पड़पोती की सगाई की खबर कानों में पड़ी तो आंसी सी होकर बोली, “सानू ते सदया कोई न” (हमें तो बुलाया नहीं)। शायद अपनी उम्र से जूझते अभी भी मन में हिरस बाकी थी कि अपनी चैथी पीढ़ी की खुशी भी देखे। पर ऐसे जर्जर होते शरीर को कहीं भी ले जाना आसान नहीं था। वह कभी पुराने वक्त को याद कर रोने लगतीं और कहती, ''किथे गये ओ दिन। मेरे बचयो, माँ सदके जाये। माँ वारी जाये।”


फिर एक दिन खबर मिली, माँ सदके नहीं रहीं। उनका एक कमरे से दूसरे कमरे में डोलता झुर्रियों पड़ा शरीर पार्थिव हो गया। उनकी खबर सुन सबको एक झटका सा लगा। 'माँ सदके यह शब्द शायद सबके लिए अमर सा था, यानि कभी न मरने वाला।


वे अपनी उम्र जी कर गई थीं। शरीर धीरे-धीरे सूख कर कांटा हो गया था। आखिर चैरानवे वर्ष की उम्र में बचता भी क्या है। बहू के मुंह से निकल ही गया 'बीजी ते अपनी देह बी एथे ही हंडा के गई। फिर वे आज्ञाकारिणी बहू की तरह सारी रस्में करने लगी...नहलाना, धुलाना, लोई ओढ़ाना आदि। सब पहुंचे। माँ सदके के चहेते भांजे-भांजियां, भतीजे-भतीजियां उनके जैसी जहीन शख्सियत के आखिरी दर्शन करने। वर्षों से सबने उन्हें भुला सा दिया था। पंडाल उनके चाहने वालों से भरा था। भोज हुआ। सत्संग हुआ। माँ सदके चली गई। जाते-जाते भी परिवार को बहुत कुछ दे गई। वर्षों बाद सारा परिवार एक हुआ था।


माँ सदके माँ वारी, / सब पर जाती बलिहारी। / पाया रंग सांवरा, /पर लगती सबको प्यारी।


बाबूजी कहते चाँद चैदहवीं का, / रंग सांवल है तो क्या। / संग जीने-मरने की कसमें खाते, / दुनिया देखे तो उससे क्या।


करते-करते सबकी मनुहारी, / हो गई सबकी स्वयं दुलारी। / प्रेम रंग में रंगती सबको, / उसकी यही बात थी सबसे न्यारी। / माँ सदके माँ वारी


जर्जर हो काया लगी कुम्हलाने, / पर चेहरे पर मुस्कान अभी भी बाकी / झुकने लगी कमर तो क्या, / जीने की चाह अभी भी बाकी।


चैथी पीढ़ी की खुशी देखने, / मृत्यु भी थी उससे हारी। / जीवट जीवन जीकर उसने, / कर ली दुनिया से जाने की तैयारी। / माँ सदके माँ वारी।


 



 


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