मैं लौट आया हूँ - कविता
शिमला!
तुम्हें छोड़ गया था मैं
बादलों की गोद में
बरसाती झरनों, चीड़ों की चांदनी
हरे पत्तों, सफेद धुंध में चिपके
ठण्ड के -
एक गौरव बिन्दु के रूप में।
सौंप गया था।
मैं/हिमालय की चोटियों को
तिब्बत रोड पर पहरा देती
गर्म पानी के चश्मों के साथ
कलेवा करती
सफेद और मटमैली
भेड़ों, बकरियों, बोझा उठाए
हिनहिनाती खच्चरों के
काफलों में/खेलते
बर्फ से, वर्षा से
पतझड़ से और वसंत से।
हां तेरह हेमन्त तो
मैंने भी भोगे थे
तुम्हारे साथ
छोटे-छोटे दस्तानों
बन्दरनुमा टोपियों में
और याद है मुझे
बर्फ की सफेद चादर पर
नन्हें.....नन्हें कदमों के निशान
मेरे नन्हें साथियों के
पीछा करते हुए
एक दूसरे का
देखा था मैंने बीमारी में
पीली पड़ गयी
माँ की चारपाई के पास
उस दिन
डरे सिमटे निस्तेज
सूरज को, डूबते हुए
पहाड़ियों के उस ओर
भरे पूरे दिन में
कितना अजीब होता है
डूबते को देखना
वह भी पूरे दिन में
कोल्डब्लडेड मर्डर की दहशत
महसूसी है कभी आपने
हिचकॉक के भी विजन से क्रूर
प्रकृति और जीवन के
अनुभव वाली/शिमला,
मैं तो बलखाती सड़कों,
चट्टानों और पक्षियों का
साथी रहा हूँ।
मुझे याद है
मैं रात-रात भर उन पक्षियों का
इन्तजार किया करता था।
जो बर्फ की ठण्डक से डर
मैदानों में चले जाते थे
हर साल
रास्तों में ही
बिछुड़ते सम्बन्ध बनाते
जब वापिस आते
तो दो से तीन
या दो से शून्य
होकर आते थे!
शिमला!
कई वसन्तों के बाद
मैं आज फिर लौट रहा हूँ
बादलों की गोद में
देखने कि मेरे साथियों के
नन्हें.......नन्हें पैरों का
क्या हुआ?
कि मेरे पंछी
गर्मियों में लौटे कि नहीं
कि पहाड़ी झरनों की मिठास का
क्या हुआ?
क्या सूरज अब भी
वैसा ही पीला
सिमटा
निस्तेज घूमता है शहर में
और.......मां......।
शिमला! मैं लौट रहा हूँ
एक बार फिर छोटा होकर।
सचमुच कितना
अजीब लगता है
भरे पूरे आदमी का
भरे पूरे दिन में
एकदम छोटा हो जाना
शिमला! मैं लौट आया हूँ....।