मरघट - कहानी

कहानी


मरघट


''कैसी तबीयत है नननी की।'' मुर्दा जला कर शाम को घर लौटे बिसम्बर ने पत्नी से पूछा। चूल्हे में कंडे जोड़ कर आग सुलगाती पत्नी की मरियल सी आवाज ने झोंपड़ी की निस्बधता को तोड़ा ''बुखार तो बिल्कुल नहीं उतर रहा है, मंझनिया से एकदम बेहोश पड़ी हैं।'' बिसम्बर खटिया पर हड्डी की ढाँचा सी बेटी ननकी के पास जमीन पर बैठ कर उसका सर सहलाने लगा।


गाँव के आसपास के हर मन्दिर में मनौती माँग, आई थी, बैध गुनिया, टोटका ताबिज कुछ भी तो नहीं छूटा..शादी के सात साल बाद ही नननी की सूरत देखने को मिली। ग्यारह बरस की हो गई एक दिन बुखार-जर ने छुआ तक नहीं। गाँव की हवा में कोई बीमारी फैली है सायद... एक महिना हो गया...बैध हकीम की दवा लेते हुए...कुच्छैइ फरक नहीं पड़ रहा है...का करें...हार गए....।


'वो तुम्हारा मितान गोरे लाल काछी शहर से आया है। लौटते ही चैपाल में भेज देने को कह गया है।'' चुल्हे की बुझी आग में फुकनी से फूँक मारती हुई ननकी की माँ ने सूचना दी। बिसम्बर ने आज ननकी की उम्र की लड़की का शव जलाया था...तब से मन में अजीब सा डर भर गया...गाँव में हर दूसरे-तीसरे दिन इस अनजानी बीमारी से मरने वाला, कभी कोई बूढा, कोई बच्चा...या...कोई औरत.... मौत का इतना विकराल रूप देखकर दिल दहल गया था बिसम्बर का। खटिया पर लेटी ननकी की जुगुर-जुगुर बरती दो निस्तेज आँखों से आँख मिलाए बिना ही वह अँधेरे में ही बाहर निकल पड़ा और पगडंडी के दोनों तरफ खड़े ईख के खेतों में बोलते झिंगुरों की आवाज और चैपाल के चबूतरे पर जल रही लालटेन के प्रकाश के सहारे बढ़ने लगा। ...सन्नाटे को चीरती कहकहों की आवाजों का सम्बल मन को हल्का करने लगा। गाँव के बाहर बस्तियाँ बसा कर रह रहे दलित वर्ग के लोग दिन भर की मेहनत के बाद शाम को चैपाल पर इकट्ठे होते...सुख-दुख बाँटते...भविष्य में कभी न पूरे होने वाले मंसूबों के ख्वाब सजाते और चाँद के चढ़ते अपनी-अपनी झोपड़ियों में लौट आते। युवा काछियों के बीच बैठे गोरे-लाल का पक्का काला रंग लालटेन की रोशनी में चमका... ''आओ बिसम्बर...कहाँ रहे..? अब तो बोतल भी खत्म होने वाली है जल्दी आओ, गला तर कर लो...तुम भी....'' गोरे लाल के अन्दाज में वहीं बेलौस अपनापन था. ..जो आज से पच्चीस साल पहले बिना लंगोट के तलैया में डुबकियाँ लगाते वक्त हुआ करता था। गोरे लाल के काछी संगी साथियों को अपनी मंडली में किसी डोम का आना नागवार गुजर रहा था लेकिन गोरे लाल के शहरी दबदबे ने सबका मुँह बंद कर दिया था। गोरे लाल की बदौलत ही तो विलायती चखने को मिली, नहीं...तो...रोज की देसी...कलेजा जला कर रख देती है स्साली... फिर पीने पिलाने की संगत में जात बिरादरी कहाँ देखी जाती है...सब हम निवाला...हम...प्याला...डोम के आने से क्या फर्क..


चांदनी की चमक काली भूस्स जमीन पर पड़ने लगी तो...एक-एक करके...सब गोरे लाल को जै राम जी कह कर खपरैल की छतों वाले मकानों की तरफ लड़खड़ाते हुए बढ़ने लगे...''कैसी गुजर रही है।'' बिसम्बर से पूछ कर गोरे लाल ने बारूद के पलीते में आग लगा दी। विदेशी के सुरूर ने घर की मर्यादा के सारे बाँध तोड़ डाले। “कोई काम नहीं है यहाँ, मुर्दा जलाने से क्या मिलता, थोड़ा सा दाल-चावल, दस-पाँच रूपए...बस। खेती-बाड़ी नहीं, मजदूरी नहीं, दाने-दाने की मोहताजी है...उस पर काल भैरवी सी ननकी की बीमारी...लगता है उसे लील जायेगी...।


''तू चिन्ता न कर, चल मेरे साथ शहर चल, मेरे सेठ बहुत ही धर्मात्मा है...गरीबों के लिए अस्पताल खुलवाए हैं, मुफ्त में इलाज हो जायेगा...। मेहरिया से बात कर ले...और चल कल ही चलते हैं...।'


“लेकिन अपना गाँव, अपना घर, अपनी चैपाल, अपनी मिट्टी...इन सब को छोड़कर...कैसे..?''


बिसम्बर की आवाज थरथरा गई....


“जिस गाँव चैपाल, मिट्टी की तू दुहाई दे रहा है न, जरा उससे ही पूछ...क्या तेरे परिवार के लिए रोटी है इसके पास...? तेरी बेटी के इलाज के लिए दवाई है इसके पास? नहीं है बिसम्बर...अब गाँव में कुछ भी नहीं धरा है...हरे-हरे पेड़ों की पत्तियाँ खाकर पेट की आग नहीं बुझाई जा सकती? ये पोखर ये कुएँ...तेरी बेटी का इलाज नहीं कर सकते...झाड़फूक, वैध गुनिया सब तो हार गए... अब क्या तू बेटी की लाश को जला कर ही दम लेगा...।' गोरेलाल की तल्ख आवाज बिसम्बर का अन्तस कँपकँपा गई।


''देख बिसम्बर...शहर में तेरे परिवार के रहने और रोटी की व्यवस्था, कुछ महिने मैं कर दूंगा। आगे तेरी मेहनत।''


''वहाँ कौनो काम नहीं मिला तो'? बिसम्बर घबराया। सेठ जी अपनी बिरादरी के लिए मरघट की जमीन लिए है...वहीं तुम्हें काम मिल जायेगा...देख शहर में कौनो जाति बिरादरी नहीं पूछता...बस मेहनत करने वाला चाहिए...मजूरी मिल ही जाती है...आदमी इतना तो कमा लेता है कि परिवार के मुँह में कौर डाल सके...गाँव की तरह हाथ जोड़ कर भी भूखे मरने की नौबत नहीं आती...समझा।''


बड़ी मुश्किल से दिल कड़ा करके परिवार के साथ गाँव की सरहद से निकलते हुए ओझल होने तक गाँव की पीछे मुड़-मुड़ कर देखता रहा बिसम्बर।


ननकी को अस्पताल में भरती कराके, अपनी खोली में ही जगह दे दी गोरेलाल ने। सेठ ने मरघट की जिम्मेदारी बिसम्बर डोम को दे दी। बिसम्बर की पत्नी अचरा भर-भर कर गोरेलाल को दुआएँ देती। ननकी अब उठ कर बैठने लगी...उसकी माँ ने पास की कोठियों में चैका बरतन का काम ले लिया और बिसम्बर मरघटे में जब कोई मुर्दा नहीं आता तो सेठ के फार्म हाऊस की साफ सफाई, पेड पौधों की निराई गुडाई करता उस पर विश्वास हो जाने पर गोरेलाल के कहने से सेठ ने फार्महाऊस के पिछवाड़े खोली दे दी. ..बिजली, पानी...दो वक्त की भरपेट रोटी...ननकी को स्कूल में भर्ती करवा दिया। युनिफार्म पहन कर गोरी चिट्टी ननकी बड़े घर की लड़की लगती। साईकल पर उसे स्कूल आते जाते देखकर बिसम्बर की छाती जुड़ा जाती। मगर बेटी के शरीर की बदलती आभा को देखकर माँ अकसर कहने लगी ''ननकी को अकेले स्कूल भेजना ठीक नहीं है। फार्महाउस से शहर तक की तीन कि.मी.की दूरी के रास्ते के दोनों तरफ बहुत सूना रहता है...उसे लौटते-लौटते शाम हो जाती है...ऊपर से फार्महाऊस में सेठ के बेटे, भतीजे, दोस्तों के साथ आकर आए दिन पार्टी करते, हुडदंग मचाते रहते है... “मुझे कुछ ठीक नहीं लगता...अब ननकी के लिए कोई रिश्ता...।'' माँ का दिल, किसी अनहोनी की आशंका से डूब जाता।


गोरेलाल ने बतलाया था रिश्ता...उसी के साथ गया था लड़के के घर। डोम बिरादरी का रखरखाव शहरी । हवा में अपना रंग बदल चुका था...ट्रे में चाय का कप, शर्टपेन्ट पहना बाप...टाइल्स लगा घर...लड़का तो नहीं मिला..हाँ फोटो देखकर तसल्ली जरूर हुई...जोड़ी ठीक रहेगी...।


लौटते वक्त पिता ने पूछ ही लिया...'शादी कितने की करोगे।''


शहरी संस्कृति की सौदेबाजी से अनजान बिसम्बर की आँखे विस्मय से फैल गई...तो गोरेलाल ने बात सम्भाली...''अपनी हैसियत के मुताबिक...कोई कसर बाकी नहीं रखेंगे।'' कह तो दिया गोरेलाल ने लेकिन बिसम्बर भीतर ही भीतर शंकित होते रहा...अगर तीन चार लाख...की कह दी तो क्या करेगा वह...कहाँ से लायेगा...?


सेठ के बेटे भतीजे नई-नई कारों में दोस्तों के साथ अक्सर फार्म हाउस में जमघट लगाते। कई बार सोचा सेठ से शिकायत करें लेकिन अगर सेठ ने उसे ही काम पर से निकाल दिया तो... क्या करेगा...? सोच कर सीपी के जीव सा खोल में ही मुँह छिपा लिया...उस दिन रात दो बजे किसी ने कुंडी खटखटाई...


सामने सेठ का छोटा बेटा खड़ा था...शराब का भभका...मुँह खोलते ही...बिसम्बर के नथुनों में घुस गया. ..'' मुर्दा जलाना है।''


इस टैम!।


'हाँ...अभी...इसी समय...।''


बिसम्बर टार्च हाथ में लेकर मरघट पहुँचा। अँधेरे की चादर ने रात को ढॉक रखा था...''ये मुर्दे की चादर खून से सनी क्यों है।''


“अबे...तू अपना काम कर...ज्यादा तीन पाँच किया तो यहीं घुसेड़ दूंगा।'' ...लपलपाना चाकु उसके पेट में चुभाता हुआ बोला...लम्बे बालों वाला उसका दोस्त....।


“लेकिन मालिक ये तो खून का मामला दिख रहा है...अगर कोई पुलिस का...मैं गरीब बाल बच्चेदार आदमी...तो मारा जाऊँगा...।'' कॉप गया बिसम्बर।


“ये साला अपनी औकात दिखा रहा है... ले पकड़...।'' नोट की गड्डी बिसम्बर की हथेली में थमा कर घुड़काया सेठ के बेटे ने...अपने कान और मुँह बंद रखनाचल-चल जल्दी...कर...। दस हजार की गड्डी.... हलाल होते बकरे की नीरिह निगाहें...अगले ही पल...बिजली सी कौंधी... ''इत्ते पैसे तो एक साथ पूरी जिन्दगी में नहीं देखे...।'


सुबह होते ही गोरे लाल का दरवाजा खटखटाया...बदहवासी...में मुँह से शब्द नहीं निकल रहे थे... लाल-लाल बड़ी-बड़ी पनीली आँखें खौफ की आँधी...हलक सूखा...।


''छोड़ न तू क्यों फिकर करता है...मूर्दा एक बार जल गया...हडिड्याँ चुन कर नहर में एक एक करके बहा दे...कोई पुलिस का लफड़ा-वफड़ा नई...फिर दस हजार की रकम कुछ कम तो नहीं होती...बैठे बिठाए ही मिल रही है...तो बुरा क्या है...।'' ये गौरेलाल बोल रहा है कानों को विश्वास नहीं आया...आठ सालों ने उसे खोली से चाल में खड़ा कर दिया था...भरी जेब की गर्मी, चेहरे पर दकदक...लेकिन बिसम्बर. ..शहरी हवा से एकदम अछूता डरा सहमा सा...अपनी ही उच्छवासों से विचलित होने वाला।


''बिसम्बर ननकी का ब्याह करना है...ऐसे दस बारह मुर्दे और जला दिए न तो हो जायेगा शादी का इन्तजाम। सारी जिन्दगी ही खटते रहोगे न मेहरारू के साथ, तो भी नहीं कर पाओगे...इन्तजाम...बिसम्बर समझ ही नहीं पा रहा था...गोरेलाल उसे परेशानियों का हल सुझा रहा है या मौकापरस्ती और मक्कारी का पाठ पढ़ा रहा है दोस्त को।


सौ-सौ मन के बोझ लिए पैरों से वापस घर लौटा बिसम्बर। मरघट पर अर्थी के लिए एक-एक लकड़ी सजाते हुए आँखों के सामने बार-बार तैरने लगा ननकी का मासूम चेहरा। शादी के जोड़े में लिपटी उसकी कंचन काया। माँग में सिंदूर...ऊँगलियों में मुंदरी, पैरों में पायल, बेटी को दुल्हन बनी देखने का सपना आँखों में सजने लगा। धोती में खोंसे दस हजार रुपयों की गड्डी की गरमाहट महसूस हुई।


बिसम्बर फिर लड़के वालों के घर पहुँचा “देखो भई, लड़का सहर में पला बढ़ा है...दो लाख तो वो खर्च हुआ...दलितों की सरकारी नौकरी के लिए भी बाबू लोग रिश्वत माँग रहे है...? लाख... दो लाख तो दान दहेज बरातियों की आवभगत में खर्च होगा ही...अगर ये सब करो तो पंडित से बरिक्षा की तारीख तय कर लेंगे।'' सुनकर सिहर गया बिसम्बर। गाँव में तो दान दहेज न लेते देखा न ही देते देखा...बस बरातियों को बढ़िया कलेवा...रात को देसी दारु...दो चार साड़ी पोलका में विदा हो जाती बेटी। लेकिन यहाँ तो बेटी का ब्याह अग्नि पुल से गुजरने की तरह...अगर सेठ जी से माँगेगा भी तो एडवांस में कितने देंगे...चालीस पचास हजार, वो भी गरिया-गरिया कर। गोरे लाल मेहरबानी करेगा तो कितनी पन्द्रह बीस हजार, गाँव में सरकार ने दलितों को एक-एक बीधा जमीन बाँटी है...उसे तो आँखों से भी देखा नहीं अभी तक...ननकी के ब्याह के बाद आखिरी समय गाँव में ही बितायेगा। अपनी मिट्टी की सोंधी खुशबू...अपने पेड़ों की ठंडी छाँव...उसी मिट्टी को बेच दूँ... उसी का मोह तो उसे हर साल ननकी की स्कूल की छुट्टियों में गाँव ले जाता रहा है...अपनी झोपड़ी...पोखर...के शीतल जल में अपनी बेबसी की खारी बूंदे मिला कर मन हल्का कर लेता था...नहीं...नहीं...आत्मा में बसे गाँव की एक टुकड़ा जमीन ही तो उसकी बाकी जिन्दगी का सहारा है...उसे कैसे...बेचेगा। जोर से सिर झटक कर मुर्दा खड़ा न होने पाए इसलिए धधकती अर्थी को डंडे से कोचने लगा।


महिने बीस दिन के अन्तराल में सेठ के लड़के दोस्तों के साथ नशे ने घुत लड़खड़ाती आवाज में चाकू खोल कर उसे मुर्दा जलाने के लिए घमकाते...दस पन्द्रह हजार की गड्डी के सूए से उसके थरथराते होठों को सिल देते। लड़के फार्म हाऊस में देर रात तक शराब पीते। बची खुची उसकी तरफ भी लुढ़का देते. ..पीने के बाद चढ़ती तो बिसम्बर मरघट के पत्थरों पर बैठ कर जी भर के उन्हें गाली देकर अपने मन का अवसाद निकालता।


अब वह बार-बार गड्डियों का हिसाब लगा जमीन पर पत्थर से लकीर खींचता रहता और ननकी की सगाई के मंसुबे बनाता।


अँधेरा घिरने लगा था...लेकिन बारिश थमने का नाम ही नहीं ले रही थी...ननकी सुबह से स्कूल गई शाम तक लौटी नहीं थी...बिजली की तड़...तड़ आँखों को चकाचैंध कर रही थी...ननकी की माँ अपने पिता की तेरहवीं में गाँव गई थी...अभी तक लौटी क्यों नहीं ननकी...कभी-कभी देर होने पर गोरेलाल के घर रूक जाती है...अंधेरा हो जाने पर फार्महाऊस का रास्ता सूनसान पड़ जाता है।


रात को दरवाजे पर ही बैठा बिसम्बर ननकी की बाट जोह रहा था कि सामने से किसी गाड़ी की लाईट उसी की झोपड़ी की तरफ आती दिखलाई पड़ी...


''चल जल्दी से बैठ...मरघटे चलना है।'' कह कर सेठ का बेटा उसके उत्तर की प्रतिक्षा किए बिना ही जीप की तरफ उसे खींचता चला गया। गालियों का भभका फूटना चाहता था मुँह से, लेकिन...होंठ. ..फड़फड़ा कर रह गए। जाने किन अभागों की बेटी बहूओं को जोर जबरदस्ती उठा लाते हैं ये अमीर बापों के कमीने बच्चे। उनका बलात्कार करके गला घोंट देते हैं... खूँखार दरिदें...मुर्दा जलाने की निर्वाध सुविधा ने इन्हें और शय दी है...इस पाशविक कुकर्म के ये आदि होते जा रहे है...लेकिन नहीं...आज बस...ये आखिरी मुर्दा...फिर सेठ को सब कुछ बतला कर ननकी को लेकर गाँव वापस चला जायेगा। नहीं रहना है मुझे इन दरिदों के शहर में...जहाँ बहन बेटी बहू महफूज नहीं...गाँव में ही शादी करेगा ननकी की...आत्मा पर पड़ा भारी बोझ दिन रात कचोटता है...धिक्कारता है...थूकता है उसके मुँह पर... अपने स्वार्थ के लिए घिनौने काम में...भागीदारी...मर जाना अच्छा है ऐसे कामुक लोलुप घृणित सम्यता की जहरीली हवा में सॉस लेने से...।


बारिश तेज हो गई। मुर्दे को जीप से उतार कर लड़कों ने रोड के नीचे रख दिया...और जल्दीकर'' बिसम्बर की तरफ आदेश उछाल कर जीप की तरफ लपके। बिसम्बर बारिश में भीग गया था। सर्द हवाएँ पसलियों में चुभने लगी...तभी सेठ का बेटा दोस्त के साथ वापस आया 'ले ये बीस हजार रुपया...मुर्दा जलाने के बाद हड्डियाँ चुन कर अलग-अलग गड्ढों में गाड देना समझा...अगर कोई लापरवाही की तो...समझ लेना...और ले ये बोतल... बड़ी शिद्दत से दारू की तलब लगने लगी। इतने सालों से आदत बन गई थी, बिना दारू पिए मुर्दा जलाने में डर लगता। ऐसा लगा जैसे मुर्दा अर्थी पर से उठ कर सीधा उसका गला दबाने लगेगा...।


लड़कों ने जीप मोड़ ली थी और अब उस निर्जन मरघट पर कौंधती बिजलियों के साथ वह अकेला खड़ा था रोड के नीचे...मुर्दा जलाने से पहले बिसम्बर ने मुर्दे के गहने उतारने के लिए हाथ बढ़ाया। कभी-कभी ये काम बड़ा अच्छा लगता था। थोड़ी मेहनत में ज्यादा कमाई...दारु की बोतल, गहने पैसे. ..सब तो मिल रहा है लेकिन आत्मा...मानती ही नहीं...इस बार उसकी सुनेगा। गाँव जाते ही...ननकी की शादी तय करूंगा।


बारिश थमने लगी थी मरघट का पानी नाले में उतरने लगा...शराब असर दिखाने लगी थी...बिसम्बर ने कान के पास का कफन उठाया लाश का झुमका अंधेरे में चमका...जानी पहचानी बनावट कहाँ देखा है। ऐसा झुमका...सुनार की दुकान पर...नहीं तो...फिर... इस स्साली दारु ने तो दिमाग के तन्तु ही हिला कर रख दिए...जेब से भीगी माचिस निकाल कर बार बार जलाने की कोशिश करने लगा...टाँगों से पैर पट्टी निकालने के लिए। माचिस सील गई थी...अँधेरे में शेड के नीचे लगे पत्थर के नीचे से पोलिथिन में लिपटा लाइटर उठा लाया...लाइटर जला कर पैर पट्टी उतारने के लिए हाथ बढ़ाया तो सलवार का कपड़ा जाना पहचाना लगा...कहाँ देखा है ये कपड़ा? नशे से दिमाग भन्ना रहा था। दिमाग पर जोर डाला... कुछ याद आने लगा लेकिन आँखों को यकीन ही नहीं आया...हाथ क्यों काँप रहे हैं...पैर अचानक क्यों थरथराने लगे...तभी झटके से उसने लाश पर पड़ी चादर को खींच कर अलग कर दिया। हाथ हवा में उठा तो उठा ही रह गया...एक गगनभेदी चींख मुर्दाघाट का सन्नाटा चीर गई...जिसे तूफानी रात ने सनसनाती हवा के भयानक अट्टहास के साथ दबा दिया...सुबह लोगों ने देखा बिसम्बर ननकी की लाश के पास


औंधा मरा पड़ा था।         



 


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