साक्षात्कार धरावाहिक


धरावाहिक (पाँचवी किस्त)


साक्षात्कार


कवि, नाटककार, कथाकार प्रताप सहगल से वरिष्ठ बाल साहित्यकार डा. शाकुंतला कालरा की बातचीत


शकुंतला कालराः क्या आपने बाल नाटकों की नाट्य-वस्तु और शिल्प में कुछ प्रयोग भी किए हैं। यदि ऐसा है तो अपने किसी एक बाल नाटक के संदर्भ में इसकी चर्चा करेंगे?


प्रताप सहगलः वैसे तो हर नाटक और इस मायने में हर रचना अपने-आप में लेखक के लिए एक चुनौती होती है। मैं इस संदर्भ में अपने बाल नाटक 'आओ खेलें एक कहानी' की चर्चा करना चाहता हूँ। इस नाटक की कथा का सूत्र पंचतंत्र की प्रसिद्ध कव्वे और लोमड़ी की कहानी से जुड़ता है। इस कहानी में लोमड़ी को 'विनर' और कव्वे को 'लूजर' दिखाया गया है। कव्वा मूर्खतावश लोमड़ी की झूठी खुशामद में फंस कर अपनी रोटी गंवा बैठता है। मैंने इसी कहानी को पीढ़ी-दर-पीढ़ी बदला है। मुझे लगा कि हजारों साल पहले विष्णुचंद्र शर्मा ने जिस उद्देश्य की पूर्ति के लिए इस कहानी को बुना, हर पीढ़ी ने कव्वे को और लोमड़ी को अपने-अपने नजरिये से देखा और अंततः लोमड़ी को परास्त होना पड़ा। लेकिन यह भी प्रश्न उठा दिया है कि आज हमारे समाज में जो लोमड़ोयाँ हैं, क्या वे सचमुच परास्त होती हैं? याकि उन्हें परास्त करने के लिए कव्वों को समझदारी के साथ एकजुट होकर लोमड़ी से लड़ना पड़ता है। इस नाटक में शैल्पिक दृष्टि से भी मैंने छोटे-छोटे गीतों और संवादों के माध्यम से प्रयोग किया है। सूत्रधार के रूप में अग्रज पीढ़ी को रखा है ताकि अग्रज और नई पीढ़ी के बीच एक संवाद बन सके।


शकुंतला कालराः वर्तमान इतना बहुस्तरीय, बहुकोणीय और बहुरंगी है कि इसके हर मूड, हर भाव, विचार की सामग्री किसी भी कल्पनाशील सर्जक को मिल सकती है, फिर भी क्या कारण है कि नाटककार चाहे बड़ों का हो चाहे बालकों/किशोरों के लिए, वह इतिहास और पुराण की ओर आकृष्ट होता है?


प्रताप सहगलः चाहे नाटककार इतिहास और पुराण की ओर आकृष्ट होता है, लेकिन कहीं भी वह वर्तमान से बाहर नहीं होता। रचनाकार को इतिहास और वर्तमान में एक साथ रहना है। यह काम कहीं अधिक चुनौतीपूर्ण है। पहले इतिहास की बात लेता हूँ। इतिहास में राजा होता है, प्रजा होती है, कुछ घटनाएँ होती हैं, खूब उथल-पुथल होती है। राजा के द्वारा किए गए काम और न्याय आदि होते हैं। इतिहास हमें राजाओं, मंत्रियों, रानियों को एक व्यक्ति के रूप में कम और राजा/रानी/मंत्री/अमात्य आदि रूप में अधिक रूपायित करता है। इतिहास की किताबों में व्यक्ति के अन्तर्मन लगभग अनुपस्थित होते हैं। उनके व्यैक्तिक संघर्ष, उनकी पीड़ाएँ नजर अंदाज हो जाती हैं। इतिहास में अनुपस्थित की पूर्ति साहित्य और कलाएँ करती हैं। नाटक सबसे ज्यादा इसलिए करता है कि नाटक सभी साहित्यिक विधाओं में से सर्वाधिक जीवंत विधा है। नाटक के माध्यम से नाटकाकार का 'संप्रेष्य' सीधा और अधिक जीवंतता के साथ दर्शक तक पहुँचता है। नाटक में न केवल इतिहास की पुनर्सजना होती है, इतिहास की पुनर्व्याख्या भी होती है। पौराणिक पात्रों या घटनाओं की बात करें तो वहाँ भी किसी लोक-प्रसिद्ध एवं लोक-मन में स्थापित पात्रों के माध्यम से लेखक अपनी बात ही कह रहा होता है। कथा या पात्र भले ही पौराणिक हों, नाटक की 'वस्तु' लेखक की ही होती है। वरना एक राम को लेकर तीन सौ से अधिक रामायण और उससे भी ज्यादा रामकथा या रामकथा के किसी प्रसंग को लेकर ढेरों रचनाएँ सामने न आतीं। बाल्मीकि का राम तुलसी के राम से, मैथिलीशरण गुप्त का राम जगदीश गुप्त के राम से अलग न होता। नरेन्द्र कोहली का राम 'संशय की एक रात' के राम से अलग है। होता यह है कि किसी लोक-विश्रुत पौराणिक पात्र के माध्यम से पाठक के लिए रचना अपेक्षाकृत अधिक ग्राह्य हो जाती है। पौराणिक पात्र, पौराणिक प्रतीक और पौराणिक घटनाएँ बदलते हुए परिवेश में नए अर्थ देने लगती हैं, तो यह कौशल तो रचनाकार का ही मानना चाहिए न।


शकुंतला कालराः जन मानसिकता और सामाजिक परिवर्तन में नाटक और रंगमंच की क्या भूमिका है?


प्रताप सहगलः किसी भी अन्य कला से अधिक। नुक्कड़ नाटकों की भूमिका जन-मानस को बदलने में कहीं ज्यादा होती है जबकि आभिजात्य रंगमंच मनोरंजन के साथ-साथ ही प्रेक्षक को संस्कारित करता है। हाँ, जन-रुचियों एवं सामाजिक परिवर्तन में फिल्म का मुकाबला रंगमंच अभी भी नहीं कर सकता। रंगमंच करने वाले लोग भी आपको अधिक संस्कारित, अधिक आत्मविश्वासी और मन से अधिक खुले हुए मिलेंगे।


शकुंतला कालराः अनुकरण बालकों की प्रकृति का अंग है और अनुकरण का ही दूसरा नाम नाटक है। बालकों के चरित्र-निर्माण में नाटकों की कितनी भूमिका है?


प्रताप सहगलः अरस्तू ने तो काव्य (कला) को अनुकरण ही कहा है और उसने इसे त्याज्य भी माना है लेकिन समय के साथ-साथ अनुकरण-सिद्धांत का भी विकास हुआ है और मनुष्य जब प्रकृति का अनुकरण करता है तो उसमें मनुष्य के अंदर निहित सृजन-क्षमता का पक्ष भी जुड़ जाता है। इसलिए नाटक या कला मात्र अनुकरण नहीं है, प्रस्तुत का सर्जनात्मक


विधान है। बच्चों में सीखने की क्षमता बड़ों की अपेक्षा कई गुणा ज्यादा होती है। इसलिए नाटक करने में जितना मजा उन्हें आता है, शायद ही किसी और को आता हो। बस एक बार शुरू करने की देर है। शुरू करने से पहले तक उन्हें नाटक का अनुशासन हासिल नहीं होता। प्रशिक्षण नहीं होता। लेकिन यह सब मिलते ही बच्चों का आत्मविश्वास कई गुणा बढ़ जाता है और वे खेल-खेल में बहुत सी ऐसी बातें सीख जाते हैं जो उनके चरित्र का हिस्सा बन जाती हैं। ऐसी बातें शायद वे शिक्षक या अभिभावक से उपदेश के रूप में सुनना पसंद न करते हों, लेकिन नाटक खेलते हुए सीख जाते हैं। बस दिक्कत यह है कि नाटक में हिस्सा लेने का अवसर भारत में बहुत ही कम बच्चों को मिल पाता है।


शकुंतला कालराः ऐतिहासिक, पौराणिक, सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, राष्ट्रीय, हास्य-प्रधान और विशुद्ध मनोरंजन के अतिरिक्त बच्चों के नाट्य-विषयों का विस्तार कहाँ तक है? क्या बच्चों के लिए यथार्थवादी समस्यामूलक नाटक होने चाहिएँ?


प्रताप सहगलः बाप रे, शकुंतला जी, आपने एक ही सवाल में कई सारे सवाल समाहित कर दिए हैं। नाटकों के लिए इतने वर्गीकरण की जरूरत नहीं है। नाटक सबसे पहले नाटक होना चाहिए। यानी रंजन के साथ अपनी बात प्रेक्षक तक पहुँचाने की क्षमता हो नाटक में। उसे मंचित किया जाना संभव हो सके। बच्चों के लिए हर तरह एक नाटक हो सकते हैं। आयु का ध्यान रखना पड़ेगा। यथार्थवादी नाटक भी बच्चों को वही समझ में आएगा, जिसमें बच्चों की कोई समस्या जुड़ी हो। लेकिन फिर वही, ध्यान रहे कि हमें खेल-खेल में ही यथार्थ को बाल-मन के लिए ग्राह्य बनाना है। बहुत उपदेश या मनोवैज्ञानिक बारीकियाँ बच्चों की पकड़ से बाहर ही होंगी।


 शकुंतला कालराः बच्चों के नाटक कितने प्रकार के हैं? जैसे बड़ों के लिए काव्य नाटक, नृत्य नाटक, कठपुतली नाटक और रेडियो नाटक आदि हैं। क्या बच्चों के लिए भी यही श्रेणियाँ हैं? बच्चों के लिए नुक्कड़ नाटक कितने उपयोगी हैं?


प्रताप सहगलः नाटक सबसे पहले नाटक होना चाहिए। नाटक साहित्य की एक विधा है जबकि जिन प्रकारों के नाम आपने ऊपर गिनवाए हैं, वे उस विधा के कई रूप हैं यानी नाटक को गूंथने के अलग-अलग तरीके। कविता, नृत्य, कठपुतली का खेल भला किसे अच्छा नहीं लगता है। सवाल यह है कि नाटक का कथ्य और नाटक की बुनावट बच्चों के स्वभाव के अनुरूप हैं कि नहीं। नाटक बच्चों के अनुभव-संसार में कुछ इजाफा करता है या नहीं या फिर उसे कुछ संस्कारित करता  है या नहीं। रेडियो नाटक भी एक विकल्प है और नुक्कड़ नाटक भी बच्चों के लिए बेहद उपयोगी हो सकता है। बस सबसे पहले नाटक एक नाटक के रूप में उपस्थित हो।


शकुंतला कालराः नाट्य-लेखन और मंचन का अन्योन्याश्रित संबंध है। मंचन प्रस्तुति के अभाव में नाटक की प्रभावशीलता और उसके गुण-दोष प्रकट नहीं हो पाते। बच्चों के नाटकों के मंचन के लिए रंगमंच की क्या स्थिति है? क्या आप इससे संतुष्ट हैं?


प्रताप सहगलः संतुष्ट होने का मतलब है विकास को विराम। खड़े हुए जल की तरह से सड़ना होता है संतुष्ट होना। लेकिन एक बात निश्चित रूप से कह सकता हूँ कि बाल रंगमंच की जो स्थिति पचास, साठ, सत्तर या अस्सी के दशक में थी, आज उससे बहुत बेहतर है। आज से तीस साल पहले बाल रंगमंच कोई स्वरूप था ही नहीं, लेकिन धीरे-धीरे बाल रंगमंच विकसित हुआ। रेखा जैन की भूमिका हम सब जानते हैं। बाद में जब थियेटर इन एजुकेशन कार्यक्रम शुरू हुआ और संस्कार टोली के माध्यम से बाल रंगमंच का स्वरूप बनने लगा। दिल्ली में ही साहित्य कला परिषद और बाद में हिन्दी अकादमी ने इस ओर अपने कदम बढ़ाए। बाल भवन के माध्यम से थोड़ा बहुत बाल नाटक पहले से ही सामने आ रहे थे। लेकिन यह कहना कि आज बाल रंगमंच का विकसित रूप हमारे सामने है, सही नहीं होगा। दूसरी बात य्ह कि यह बाल रंगमंच दिल्ली या फिर कुछ और बड़े शहरों में भले ही देखने को मिल जाए लेकिन छोटे शहरों और कस्बों, गांवों में बड़ों का रंगमंच ही नहीं है तो बच्चों का कहाँ से होगा। हाँ, अगर मैं तीस साल या पचास साल पीछे पलट कर देखता हूँ, थोड़ी-बहुत स्थिति बेहतर जरूर हुई है लेकिन इस दिशा में अभी बहुत कुछ करना शेष है। और फिर लेखक बड़ों के लिए ही नाटक नहीं लिखते तो बच्चों के लिए क्या लिखेंगे। जरूरत है कि लेखकगण रंगमंच से जुड़कर बच्चों के लिए नए से नए नाटक लिखें। ऐसे नाटक जिनसे बच्चों की कल्पनाशीलता उड़ान ले और खेल खेल में वे कुछ नया सीख सकें।



 


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