सीप में मोती

डायरी का एक पन्ना


सीप में मोती


अभिनव इमरोज़ की एक विशेष उपलब्धि


 


आदरणीय बहल सर,


सादर प्रणाम


मन में कितने भाव उमड़ रहे हैं कि सही-सही बता पाना बड़ा मुश्किल है। सालों से डायरी लिख रही हूँ- आज पहली बार डायरी का सम्बोधन बदला है- हमेशा-प्रिय डायरी, सुन डायरी, पता है तुझे मेरी अच्छी डायरी- ऐसे ही


सम्बोधन रहे है। पर आज सुबह जब आप से बात हुई तब से जाने कैसा अद्भुत सा हो गया है दिन- एक लाईन याद आ रही है। ''रहमते ऐसे ही बरसती हैं''।


बचपन से लिखती हूँ पर खुद को लेखिका नहीं कह सकती पर एक आदत-सी है। दोस्तों को, प्रियजनों को, घर-परिवार में सब को उन के जन्मदिन या किसी और विशेष दिन पर छोटी-सी कविता या ख़त के ज़रिए अपनी भावनाएं काग़ज पर उकेर कर देने की। सब appreciate भी करते थे और अब तक भी ऐसा ही करती हूँ। आप हँसोगे शायद अपनी सगाई के बाद नियम से वीरेन को चिट्ठी लिखती थी और अक्सर अपनी Pocket money से telegraphically poems post  कर के ख़र्च करती थी। मुझे देखकर Telegram office वाले भी मुस्कुराने लगते थे। और Postman च्वेजउंद काका तो अक्सर छेड़ते थे-चाय पिलाओगी बिटिया तो चिट्ठी देंगे।


बहल सर, मैं हमेशा लेखिका बनाना चाहती थी पर मुझे यूँ समझिए न तो ये किसी से कहना ही आया न खुद को ही किसी दिशा में लगाना आया और कुछ ज़िन्दगी की जद्दो-जहद में लिखना डायरी तक ही सीमित रहा। वो नियम भी ज़्यादा निभा नहीं। माँ, बहू, पत्नी, अध्यापिका ऐसी ड्यूटी निभाते-निभाते कई बार अलसाई हुई डायरी पर धूल जमती भी देखी-


खुली आंखों के सपने कभी-कभी अनजाने ही


किस्मत से -


कुछ अल्फ़ाजों में घुल जाते हैं-


और घुल जाते हैं- आशंका के बादल


अचानक से-


इरादों को नये आयाम मिल जाते हैं-


'अभिनव इमरोज़' दे गया दस्तक-


चुपके से मेरी डायरी के दरवाज़े पे


बा'कमाल है उस खुदा की कुदरत-


कैसे कलम की नोक पर


खिल जाते हैं फूल उम्मीदों के


Facebook  पर अपनी wall पर कभी-कभी कोई च्वमउ चवेज कर देती हूँ। एक दोस्त ने कभी किसी रोज़ कुछ पढ़ा तो Phone पर कहा, 'आप शायद उर्दू भाषा के शब्द कुछ ज़्यादा ही इस्तेमाल करती हैं, क्या आप को उर्दू अच्छी लगती है? ''हाँ-बहुत मीठी लगती है- ग़ज़ल भी लिखना चाहती हूँ पर...... ''पर क्या दीदी'' किसी शायर को पढ़ती हूँ तो और सहम जाती हूँ कि कैसा मुश्किल काम है। न होगा मुझ से- उसने प्रेम 'नज़र' साहब का ज़िक्र किया और एक दिन उनसे मिलने चली गई।


सेहत ठीक नहीं रहती अब 'नज़र' साहब की, उन्होंने कहा- ''आप ने देर कर दी, ज़्यादा मदद तो न कर पाऊँगा-हाँ कभी-कभी आ जाएं जो लिखा है- कुछ नज़्में ले कर, मैं जितना हो सके आप को Guide कर दूंगा और हाँ अच्छे Magazine  पढ़िए Sub-standard  मत पढ़िए'' और वो अचानक उठे अन्दर गए और चार-पाँच Magazine उठा लाए मुझे थमाते हुए बोले ''यह देवेन्द बहल हमारे मित्र हैं- बहुत अच्छा Magazine निकालते हैं- पढ़िएगा।


मैं शुक्रिया कर के घर आ गई। रात के खाने से free हो कर वो Magazine उठाए और जानते हो आप- नाम पढ़ा- ''अभिनव इमरोज़'' मैं कल्पना करने लगी- आप की, आप की सोच की आप के अन्दाज़ की, आपके चेहरे की, आवाज़ की, जाने कुछ नये ही तरह का महसूस हो रहा था। नाम पढ़ के 'अभिनव इमरोज़'- अमृता इमरोज की प्रेम कहानी की मैं कायल हूं। तब से जाना कि प्यार, मोहब्बत क्या है? और 'अभिनव इमरोज़' के प्यार में तो मैं झट से डूब गई। सारे Magazine एक ही बैठक में पढ़ डाले। आप का नाम चेहरा, Phone-number देखा। कैसी बच्चों वाली हरकत की रात को 11 बजे आप को Phone मिला दिया। झट से अक्ल ने टोका तो काट दिया। शायद Magazine न हो सका था तब तक।


उनींदी रातों का क्या - ?


अधूरी बातों का क्या ?


मेरे अश्कों का क्या-


और तबस्सुम का क्या ?


जलवा तो उस का है-


और वो भी जानता है-


मुकद्दर में किस को-


कब और कैसे


मिलेगा क्या ?


उस रात तकिए के नीचे 'अभिनव इमरोज़' को रख कर सोई। लगा कोई अनमोल चीज़ हाथ लगी है- खो न जाए। मैं भावुक हो रही हूँ सर कोई भी पढ़ेगा तो सोचेगा एक Magazine ही तो थी- इतनी मोहब्बत। Sir, local Magazine भी देखें थे मैंने कई बार- पर जो printing, material, layout और -नज़र' साहब का यह कह कर देना- लो अच्छे Magazine पढ़ो- शायद आप अन्दाज़ा नहीं लगा सकते मुझे- यूँ लगा जैसे 'खुल जा सिम-सिम' जैसे जादुई शब्द मिल गए हैं जो सालों से सहेजे सपने की राहों पर चलने की प्रेरणा देंगे। बहुत देर रात तक मैं फिर से कविताएं पढ़ती रही और सोने से पहले खुद से कहा कि सुबह स्कूल में free period में आप को Call करके Subscription के लिए प्रौसीज़र पूछँगी। Magazine की कविताएं दोबारा-दोबारा पढ़ीं-


आप को call किया आज सुबह आप ने Hello कहा- कितना अपनापन था आप की आवाज में। जो anxiety सी हो रही थी, घबराहट-सी कि इतने बड़े Magazine के editor सर से बात करनी है- उससे राहत मिली। मैंने 'नज़र सर' के हवाले से आप से बात की और आप कितने अपनेपन से मेरी बात सुनते रहे और फिर आप ने कहा, ''देखिए, पहले तो मैं आप को Magazine भेजता हूँ। आप उन्हें पढ़िए- subscription बाद में देखेंगे-


I was totally pleasantly surprised- someone of your status could be that humbale, I couldn't believe or better to put like I never imagined.


sir मेरा बहुत मन था आप से लम्बी बात हो, आप को खूब सुनूं पर आप खूब व्यस्त भी होंगे और बहुत विनम्रता से आप ने कहा कि मैं आप को अपना कुछ लिखा हुआ भेजूं- और अच्छे दिन की शुभकामना देते हुए जब आपने कहा कि 'अभिनव-इमरोज़ परिवार में आपका स्वागत है।' शायद आप महसूस न कर पाएँ हों मेरी आँखों में आंसू होने के कारण मेरा स्वर भी भीगा हुआ था।


मैं नहीं जानती ये डायरी का पन्ना मैं आप के साथ कभी share कर पाऊंगी या नहीं पर इसे सवेम lose sheets पर इस लिए लिख रही हूँ कि शायद कभी हिम्मत कर के इसे post कर सकूं।


खूब रात हो गई और पचास बार मैं आप के साथ हुई मेरी बात को खुद से दोहराती जा रही हूँ- मेरी बेटी मेरे husband सब हँस रहे थे कि आज क्या हो गया है? बड़ी खुश हो। उन्हें बताया भी पर किसी एक के लिए कोई घटना क्या मायने रखती है-ये वो ही जान सकता है आज मैं खुश हूँ-बहुत ही खुश और उदास भी। खुश इस लिए हूँ कि आप के सुन्दर से साहित्यिक परिवार से जुड़ी और दुःखी इस लिए कि कितनी जाहिल हूँ कि अभी तक अभिनव इमरोज़ जैसी पत्रिका से अनभिज्ञ क्यों रही। हाँ- आपने बात करते हुए कहा था कि मीनाक्षी जी, अगर आप ने magazine पढ़ा तो Cover पर हमारा mission देखा- मौलिक चिंतन और उभरती प्रतिभा को प्रोत्साहन'।


आपको 'हाँ सर' तो कह दिया मैंने 'सर' पर आप को कैसे बताती कि उसी Punch line सपदम ने तो सोने न दिया रात भर। सर पता नहीं मेरे में प्रतिभा है भी या नहीं जिसे आप प्रोत्साहित कर सकें- कैसे जानूं कि मेरा लेखन आप को भाएगा- पता नहीं। डराया भी इस बात ने- रुलाया भी और गुदगुदाया भी, मन में छिपे बैठे किसी अहसास ने कि शायद एक कुशल मूर्तिकार को नज़र आ जाए मेरी लेखक बनने की दमित महत्वाकंक्षा।


आप को पता है- अभी कुछ देर पहले वीरेन की आँख खुली तो झल्ला के बोले 'क्या lobby में खिलारा डाल के बैठी हो' इतनी रात हो गई। सुबह स्कूल नहीं जाना'' हाँ आ रही हूँ बस' कह तो दिया पर अब कोई उन्हें क्या समझाए। आप ने कह तो दिया कुछ अपना लिखा हुआ भेजिए- अब कुछ इस लायक लग ही नहीं रहा। माँ सरिता, गृहशोभा वगैरह पढ़ती थीं सो यदा-कदा हम बहनें भी पढ़ लेती थीं वहीं।


कोई और Hindi literary magzine मैंने पढ़ा ही नहीं। सर, अब अभिनव इमरोज़ के editor श्री देवेन्द्र कुमार बहल जी को पढ़वाने के लिए क्या भेजूँ- वीरेन मेरी मुश्किल को समझ पाएँगे क्या? नहीं, कभी नहीं।


लेकिन एक बात है सर, ये दिन मेरी ज़िन्दगी का बहुत खूबसूरत दिन है- आप से बात करके वो भी आप का magzine पढ़ने के बाद मैं क्या महसूस कर रही हूँ बताना तो डायरी को ये चाहा था पर आप से मुख़ातिब होकर पता नहीं क्या का क्या कहा गया- अगर कहीं कुछ असाहित्यिक लगे तो क्षमा कीजिएगा।


त्वरित स्फुरित


तुम ने पूछा 'क्या लाऊँ'? यूँ तो तुम्हारा आ जाना ही काफ़ी है- और हाँ देखो- मिले तो ले आना आते हुए बस थोड़ा-सा समान। बिरह की कड़ी धूप में झुलसते यादों के कुछ फूलों के लिए छम-छम करती एक पारदर्शी बरसात ताकि ताज़ा दम होके महक सके इस मिलन की बेला में।


ले आना - फ़ासलों की ठिठुरती सर्द रातों में दुबके ख़्याबों के परिंदों के लिए खिली-खिली धूप के बोसे ताकि पंख पसार कर उड़ सकें अकांक्षाओं के आकाश में।


ले आना - नीरस दिनों के लिए रसीली-सी तानों पे बजती दिलों की धड़कनें, बे सुआदी-सी रातों में चाँदनुुमां कुछ खट्टी-मिट्ठी गोलियाँ।


और हाँ - उनींदी रातों के लिए नज़दीकियों की थपकियाँ ले आना- थके से मेरे तन के लिए नींद की कुछ झपकियाँ ले आना तुम।


ले आना - रीते हाथों के लिए गीली मेंहदी के पत्तों की खुशबू कुछ किस्से सुनाती-मेहदीं की कुछ आड़ी तिरछी लकीरे कि रीझ जाए जिन से हथेलियों का सूनापन।


ले आना नज़र की शोखियाँ दिलों की बेताबियाँ धड़कनों की ताल पे बजतीं कुछ फ़रमायशों की नर्मियां कि सुन के जिस को प्रोलोलित हो जाय तन-मन बस! यही सब ले आना और हाँ-सुनो देखो ज़रा जल्दी आना।


 



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