तुम यहां खुश हो ना...चन्द्रमोहन... (कहानी)

तुम यहां खुश हो ना...चन्द्रमोहन...


तुम्हें पहली बार देखा तो मुझे ताज्जुब नहीं हुआ था।


तुम्हारे जैसे कितने लड़के इसी तरह तो अपनी जान तोड़ते हैं...इसी तरह जरूरतों के रथ के आगे अंधे घोड़ों की तरह जुते रहते हैं। तुम भी तो एक अंधा घोड़ा ही हो...तुम्हें पता है...इस तरह इस उम्र में अंधा घोड़ा होना एक जुर्म होता है। तुम कभी ठंडे दिमाग से सोचो कि तुम्हारी यही भूल है ना कि तुम अपने परिवार की रोटी-रोजी का ज़रिया ही तो हो...शराब के अहाते में ही तो तुम्हें देखा था...शराबियों के गंधलाये हुए जूठे गिलास धोते हुए तुम्हें घिन नहीं आती...? शराबी जत्थों की गालियां तुम कैसे झेल लेते हो...? शराब की तीखी गंध के भभके नथुनों में कैसे झेल लेते हो...?


उस दिन...एक शराबी ने तुम्हारी गाल पर थप्पड़ लगा दिया था...तुम आग बबूला क्यों नहीं हुए थे...? तुम मां-बहन की गालियां खाने के लिए जन्मे थे...? तुम गालियां इसलिए झेल रहे हो ना कि तुम्हें महीना भर मशीन हो जाने के एवज में सात-आठ सौ रूपया पगार मिलती है...?...इस पगार से तुम अपने घर की भुरभुराती हुई आधारशिला को संभाल पाओगे...?


तुम्हें पहले दिन...गाड़ी अहाते वाले शराब के ठेके की बगल में खुले नये अहाते ही में देखा था ना...? तुम मशीन की तरह हमारी टेबल के सामने आ गये थे और तोते की तरह रटने लगे थे।


”क्या खायेंगे...स्साब...?“ तुमने पूछा था।


”क्या बना है आज...?“ मैंने कहा था।


”मच्छी...चिकन...आमलेट...दही...पकौड़े...“ तुमने पहाड़ा रटा था।


”मच्छी ताज़ा है ना...?“


”स्साब...क्या याद करोगे...कौन सी खाओगे...?“ तुमने मछली की कितनी प्रजातियां गिनवा दी थीं।


”तो लाओ एक प्लेट...दारू कौन सी है...ठेके में...?“ मैंने ऊंची आवाज़ में चिंगाड़ते हुए टेलीविज़न के शोर में बुलंद आवाज़ में पूछा था।


”सभी ब्रांड हैं...रम भी है...अंग्रेजी पीयेंगे ना...?“ तुमने अंग्रेजी दारू के कितने नाम गिनवा दिए थे...”लाइये पैसे...ला देता हूं...“


”चल बाहर...फटाफट मच्छी तो ला पहले...दारू है हमारे पास...“


तुम मशीन की तरह दौड़ उठे थे...मच्छी का लज़ीज़ ज़ायका तुम्हें पता है...?...नहीं ना...? तुम तो जूठी प्लेटें और


गंधलाए गिलास ही धोते हो ना...?


मैं तुम्हारा नाम पूछना चाहता था। तुम मेरे पास आ गए थे। तुम्हारा नाम जानते हो क्यों पूछा था...? तुमसे बतियाना चाहता था...इसलिए बातचीत का कोई ज़रिया तो होना चाहिए ना...? तुम मशीन की तरह भागते हो तो थक जाते हो ना...? रात के बारह बजे तक जागते हो ना...? तुम्हारे घर वाले तुम्हें यहीं क्यों छोड़ गये...? किसी हलवाई की दुकान पर भी तो यही झूठे बर्तन मांझने का धंधा कर सकते थे ना...? किसी ढाबे पर भी जूठन


धोने का काम कर सकते थे ना...?


”इधर आ ओए...क्या नाम है तेरा...?“ मैंने पूछा था।


”चंदू...“ तुमने इतना ही कहा था।


”असली नाम क्या है...?“


”सभी चंदू ही कहते हैं...“


”तेर बाप ने यही नाम रखा था...?“


”स्कूल में यह नाम थोड़े था मेरा...“


”क्या नाम था...?“


”चन्द्रमोहन...लेकिन...चंदू ही कहते हैं सभी...“


”स्कूल क्यों नहीं जाते...?“


”बापू ने हटा लिया था...“


”क्यों हटा लिया था...?“


”कैता था...पढ़ाई करके लफटैन तो बनेगा नहीं...“


”तो क्या बनना था तूने...?“


”मुझे क्या मालूम...बापू ने कहा...नहीं पढ़ना...“


”तुम पढ़ लेते तो क्या जाता...?“


”बापू का कहना ना मानता...तो पिटाई होनी थी ना...?“


”और तू...यहां आ गया...अब गालियां खा यहां शराबियों की...“


”पैसे भी तो देते हैं...बख़्शीश में...यह देखिए...कितने रूपये हो जाते हैं रोज...“ तुमने अपनी कमीज की जेब से पांच और दस के मुड़े-तुड़े नोट निकालते हुए कहा था।


”तेरा बाप क्या करता है...?“


”पंडिताई करता है...और दारू भी पीता है...यहीं तो आता है शाम को...“


”तुमने मना करना था ना...कहीं और लगवा देता तुम्हें...?“


”हाते वाला किशना...बापू का यार है...बापू ने कहा...वह मान गया...महीने के आठ सौ रूपये देता है...“


”तू यहां खुश है...?“


”मुझे क्या पता...बापू खुश है...घरवाले खुश हैं...“


”तुम्हें पता है...लड़कों को इस उम्र में नौकरी नहीं करनी चाहिए...?“


”क्या करना चाहिए...?“


”पढ़ना चाहिए...“


”क्यों पहेलियां बूझा रहो हो...बाऊजी...बोलिए और क्या लाऊं...“


”सिगरेट ला कहीं से एक...“


”अभी लो...“ तुमने जेब से 'फोर स्कवेयर' की डिब्बी में से एक सिगरेट निकालते हुए कहा था...”पांच रूपये स्साब...लीजिए...माचिस भी दूं...?“


”डिब्बी जेब में ही रखते हो...?“


”मुझे पता होता है...लोग पैले शराब पीते हैं...फिर मच्छी...फिर सिगरेट...कौन बार-बार सामने वाले खोखे में जाए...बीड़ियां भी रखी हैं दूसरी जेब में...यह देखो...“ तूने जेब दिखाई थी।


”बड़ा सयाना हो गया है तू...“


तुम कुछ नहीं बोले थे। तुम्हारे मालिक ने तुम्हें क्यों डपट दिया था...? तुम्हारे भीतर लावा क्यों नहीं खौलता...? मालिक की डांट इसीलिए खाते हो ना कि तुम किसी शराबी से बतियाते क्यों हो...? तुम्हारे हिस्से का काम तुम ही तो निपटाते हो ना...? फिर तुम तुरंत किसी दूसरे शराबी के इशारे पर मशीन की तरह दौड़ उठे थे ना...?


तुम्हारे आगे जूठी गिलासियों का ढेर लग जाता है...तुम उफ नहीं करते...किस मिट्टी के बने हो तुम...? तुम्हें कभी बैठे हुए नहीं देखा...तुम्हें इधर-उधर दौड़ते हुए तो देखा है...तुम्हें पता है कि तुम्हारे बाप ने किस नरक में धकेल दिया है...अब तुम लाख कहो कि तुम यहां पर खुश हो लेकिन...


उस दिन साथ वाली टेबल पर दिहाडी़दार किस्म के लोग तुम्हें मारने दौड़े थे ना...?


क्या बात हुई थी...?...गिलास साफ नहीं था...इसलिए तुम्हें मारने लगे थे...? तूने माफी मांग ली थी...


”भैण चो...करूं शिकायत तेरे मालिक से...?“ एक जना बोला था।


मैं तरल हो उठा था...”बच्चा है भाई साब...क्या करोगे शिकायत करके...इसे और मार पड़ेगी तो खुश हो जाओगे...“


”यहां आकर गंद-मंद तो नहीं ना खाने आते...?“


”जा ओए...दूसरी गिलासी ला दे इसके लिए...“


”यह हुई ना बात बाऊजी...बच्चा कैते हैं इसे...साला बिगड़ा हुआ है...“


”यहां आकर यह सुधरेगा...? इस माहौल में...?...भांत-भांत के लोगों से पल्ला पड़ता है इसका...भांत-भांत की गालियां सुनता है रोज...“


”साला पेग भी लगाता है...मैंने कितनी बार देखा है...“


”शराबी लोग देते हैं तो ही पीता है...“


”नई बाऊजी...अब तो मांगकर पीता है...“


”हैं...!“


”सच्ची कै रिया हूं जी...उस दिन मैंने बख़्शीश दी तो बोला...रहने दे...एक पेग पिला दे...तगड़ा सा...अब तो इसकी खूब कैपिसिटी हो गई है...“


”इस माहौल में रहा तो...पूरी पगार भी यहीं गंवाने लगेगा...“


”नईं बाऊजी...इसका बाप...छोड़ता है पगार...पहली ही तारिख़ वाले दिन आ धमकता है...इसकी पगार जेब में डालता है और सौ का एक पत्ता थमा देता है इसकी हथेली पर...“


”फिर कमबख़्त क्यों अपनी जान तोड़ता है यहां...?“


”इसका बाप मारता भी तो है...पिछले महीने यह छोकरा भाग गया था...इसके बाप ने दूसरे ही दिन इसकी छित्तर परेड कर दी थी...और फिर यहीं ला फेंका था...“


”हमें क्या...?...भाड़ में जाए...“ मैंने माथे को झटका था।


उस दिन...पता है...मैंने तुम्हारे बारे में कितना सोचा था। तुम कितने दिनों तक मेरे ज़ेहन में मंडराते रहे थे...इस उम्र में


धंधा करने की सज़ा जानते हो...? तुम्हें पुलिस वाले पकड़ सकते हैं...पता है तुम्हें...? कानून के पोथों से क्या लेना-देना...? तुम्हें इसी तरह जीना है। इसी तरह अंधे घोड़े की तरह भागना है...अपने शराबी बाप की लत के लिए बैसाखी बनना है...तुम्हें पता है...अगर तुम्हें पुलिस वाले पकड़ कर ले जाएं तो तुम्हारा बाप तुम्हें छुड़ाने आएगा...? तुम्हारा अहाते वाला मालिक भी तो कानूनी पचड़ों में पड़ सकता है...तुम्हें पता है...?...लेकिन इस दुनिया में किस के पास समय है जो तुम्हारे खि़लाफ़ रपट लिखवाये...तुम्हारे जैसे लड़के इसी तरह...अलग-अलग शहरों में अलग-अलग


धंधों में लगे हैं...किसी की मां बीमार है...किसी के घर का चूल्हा नहीं जलता...किसी के घर में कोई कुंवारी बहन बैठी है...किसी के घर में खांसता...बलगम थूकता किसी का बाप...इलाज के लिए मोहताज है...सभी की एक ही कहानी है...सभी का एक ही राग है...सभी की एक ही डफली है...


तुम फिक्र क्यों करते हो...? तुम्हारी रपट कोई नहीं लिखवाएगा थाने में...


तुम अब खुश हो ना...? तुम्हें उदास ही कब देखा है...? तुम तो मजे कर रहे हो...शराबी लोग तुम्हें बिगाड़ नहीं रहे...? तुमने अपने शराबी बाप की हालत देखी है...यहीं तो आता है वह तुम्हारी पगार झपटने...


तुम्हें पता है...तुम्हें इस तरह कच्ची उम्र में यह सब नहीं करना चाहिए...? मेरा खून खौल उठता है...तुम्हारी चर्चा इधर अपने परिचितों से भी करता हूं...तुम्हारी जिं़दगी चर्चा का विषय हो रही है...तुम्हें क्या...तुम घर से आते हो...मशीन की तरह भागते हो...शराबियों की गालियां सुनते हो...शराबियों की दी हुई बख़्शीश जेब में ठूंसते हो...उनके जूठे गिलास धोते हो...मच्छी वाली जूठी प्लेटों से कांटे कूड़े के ढेर में फेंकते हो...शराबियों की चूसी हुई मुर्गे की हड्डियों को हाते के बाहर बैठे कुत्तों की ओर फेंकते हो...और...थक जाते हो...किसी को तुम्हारी फिक्र नहीं...और...तुम्हारी आंखें इसी ताक में रहती हैं...कब कोई शराबी तुम पर मेहरबान हो...तुम उसकी जूठी शराब पीओ...बहको...झूमो...मशीन की तरह भागो...और रात को थक कर धड़ाम से चारपाई पर जा गिरो...


कल...पता है...पड़ोस वाले वर्मा जी इसी बात पर अड़ गये थे...पता है तुम्हारी रपट थाने में लिखवाने को उकसा रहे थे मुझे...?


”हम ही बिगाड़ रहे हैं इन छोकरों को...थाने में इत्तला दी हो तो देखिए कैसे सुधरते हैं यह लोग...“ वर्मा जी ने लैक्चर झाड़ा था।


”बात तो ठीक है तुम्हारी...पर...हमें क्या जरूरत है जी...क्यों पड़ें पंगों में...अगर गरीब का बच्चा अपने घर के लिए जान तोड़ता है तो हमें क्या...?“ मैंने कहा था।


”पर है तो ग़ैर कानूनी काम...कौन देखता है...पुलिस वाले भी तो शाम को यहीं आकर बैठते हैं...उन्हें नहीं दिखते यह छोकरे...शराबियों के हुक्म ढोते हुए...“


”आते हैं सभी जानते हैं...कानून के पचड़ों में कौन पड़े...“


”उस दिन हवलदार के साथ...उसके माताहत पुलिस वाले भी यहीं बैठकर दारू पी रहे थे...देखा नहीं था...अहाते वाला खुद हाज़िर हो रहा था...क्या बढ़िया मुर्गा खिलाया था...उन्हें नहीं दिखा था यह छोकरा...?“


”दिखा होगा...उन्हें क्या लेना है जी...कौन अपना मजा किरकिरा करे...“


”तो इसी तरह चलता रहेगा...? रोज अख़बारों में आता है...कच्ची उम्र के छोकरे पढ़ते हैं अखबारें...??...ऐसे ही होता है...कभी ढंग से कार्रवाई हो ही नहीं सकती इस देश में...“


”कहां-कहां की बात करें...हलवाइयों की दुकानों में...चाय के खोखो में...स्कूटर मैकेनिकों के खोखों में और अब...शराब के अहातों में भी देख लो...अंधेरगर्दी नहीं यह सब...? शराब से बच सकेंगे यह छोकरे...? इस उम्र में दुनिया भर की जानकारियां बटोर रहे हैं...“


”रहती कसर...शराब पीने वाली जुन्डलियां पूरी कर रही हैं...नाशपीटे...बिगड़ैल छोकरों की नयी नस्ल तैयार कर रहे हैं...अहातों से निकलकर क्या यह छोकरे नये गुल नहीं खिलायेंगे...?...भाड़ में जाएं...“


तुम्हारी चर्चा अक्सर अधूरी रह जाती है...तुम चर्चा के घेरे में रहने वाले शख़्स हो गये हो...


कहीं से तुम्हारा चेहरा फिर मेरे भीतर सरसराने लगता है। मैं तुमसे किस अधिकार से सुधर जाने की प्रतीक्षा करूं...?? तुम सुधर सकते हो...? तुम अपने कंधों पर लदी अपने शराबी बाप की घिनौनी इच्छा का वध क्यों नहीं कर देते...? तुम्हारी मां मर गयी है...अच्छा हुआ...शराबी बाप की बीवी का अभावों की सलीब ढोने से बेहतर नहीं कि वह मर जाए...अगर नहीं मरती तो अब तक जरूर मर जाना था उसने...अपने घर की भुरभुराती हुई दीवारें तुमने देखीं नहीं...?


तुम्हें इससे क्या सरोकार...?


तुमने कभी सोचा है...तुम्हारा आने वाला समय कैसा होगा...? क्या बनोगे बड़े होकर...? इन्हीं जूठे गिलासों को धोते रहोगे...? बख़्शीशों की बैसाखियों से भला गृहस्थी की खटियल गाड़ी को खींच पाओगे...??...और...अपने बाप के दिखाए इस रास्ते पर ही चलते रहोगे...?


उस दिन तुम्हारी तस्वीरें खींची थीं ना...? तुम मेरे साथ देर तक बतियाते रहे थे।


जाने किसने तुम्हारे दढ़ियल मालिक से कह दिया था कि मैं दूसरी किसम का आदमी हूं...अख़बारों में तुम्हारे बारे में कुछ लिखने वाला हूं...तुम्हें मैं ऐसा-वैसा आदमी लगा था...? तुम्हारे बारे में क्या लिखूंगा मैं...? अख़बारों से तुम्हारा दढ़ियल मालिक इसी लिए डरता है कि तुम जैसे छोटे बच्चों को उसने अहाते में रखा हुआ है...उसे भी मालूम है...इस तरह कानून के पचड़ों में कोई पड़ना चाहेगा...?


तुम्हारी तस्वीरें बहुत अच्छी आयी थीं। तुम्हारे बारे में अगर कोई रपट करवानी होती तो अब तक मैं चुप बैठा होता...? फिर किसे पड़ी है इन कामों में टाइम बर्बाद करने की...?


उस दिन तुम्हारा मालिक तैश में आ गया था।


वह भड़का था, ”देख बाऊ...मुझे पता है...तुम किस इरादे से यहां आते हो...अहाते में...“


”क्यों...यहां आने से कोई रोक सकता है...यहां बैठते हैं तो कुछ देकर ही जाते हैं...“


”तुम उस छोकरे को हर वक़्त भड़काते रहते हो...वह मेरा नौकर है...तुम कौन होते हो...?“


”कुछ भी नहीं...उस पर तरस आता है...मैं उसे क्यों भड़काऊंगा...?“


”तो ले जाओ ना अपने साथ...बाऊ...उसे काम करने दो ना...? बेचारे का रोजगार लगा है...“


”मुझे तो खुशी होती है...चार पैसे कमा रहा है...ऐसे मेहनती बच्चे बहुत कम होते हैं...“


”तो क्यों चले आते हो यहां...उसे बिगाड़ोगे अब...?“


”पहले से बिगड़े हुए को मैं क्या बिगाडूंगा...“


”सुना है बाऊ...तुम उसकी फोटो खींच रहे थे उस दिन...“


”फिर क्या हुआ...? फोटो खींचने में कोई हर्ज़ है...?“


”अगर...कहीं पंगा लिया ना...बाऊ...तेरा वो हाल करूंगा...याद करेगा...“


”तुम्हें किसी ने ग़लत कह दिया है...“


”अख़बार में लिखेगा...हमारे खि़लाफ़...?“


”मुझे क्या पड़ी है...बेचारे का रोजगार है...तुम जानो...और वो जाने...“


”अगर ऐसी बात है तो बता दे...बाऊ...“


”कहा ना ऐसी कोई बात नहीं...“


”फिर...क्यों चले आते हो...उसके बारे में पूछने...क्या लगता है वो तेरा...?“


”अगर कहूं मेरे बेटे की तरह है तो...?“


”देख बाऊ...ड्रामेबाजी करता है ना...?“


”देख ओए...भाड़ में जाओ...मुझे क्या पड़ी है...मैं ड्रामा क्यूं करूंगा...?“


”तो बाऊ...चुपचाप दूसरे लोगों की तरह दारू पीओ...खाओ और मजे करो...“


अहाते वाला दढ़ियल आदमी वहां से चला गया था। डलहौज़ी रोड की चहल-पहल भीतर से पारदर्शी कांच वाले दरवाजे से दिखने लगी थी...और...तुम हाथ में मच्छी...चिकन...आमलेट वाली प्लेटें थामे हुए ग्राहकों की टेबलों की तरफ चल दिये थे।


और...सुनो...तुम्हारा भला ही चाहा है मैंने...अगर तुम्हारे दढ़ियल मालिक के खि़लाफ़ कोई कार्रवाई करनी होती तो अब तक कर दी होती...फिर इस मुल्क में कौन पूछता है...? तुम्हारी रोजी पर लात मार देता...? तुम्हारे घर की खस्ता हालत मैं जानता हूं...तुम यहां रहो...या कहीं और...तुम्हारे मालिक को कोई फ़र्क पड़ेगा...? तुम जैसे कितने लड़के हैं...पता है...? सभी को तो रोजगार नहीं मिल जाता ना...? फिर तुम परिश्रम कर रहे हो...एक बात कहूं...यही काम मिला था तुम्हें...?? शराबियों की गालियां सुनने के लिए ही जन्मे थे तुम...?


अपने बाप से टकरा सकोगे...? उसे तुम्हारी पगार झपटने का क्या हक़ है...?


तुम कब तक यहीं पड़े सड़ते रहोगे...? तब तक तो बहुत देर हो चुकी होगी...पता है...तब तक तो तुम भी इन्हीं शराबियों की तरह गटागट दारू पीने के अभयस्त हो चुके होंगे...


और...तुम्हारी जगह...तुम्हारी तरह ही भूख से लड़ने वाले छोकरों ने हथिया ली होगी...


क्योंकि...ऐसी जगहों पर तुम जैसे छोटी उम्र वाले छोकरों को ही रखा जाता है...      


 



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