व्यक्ति एवं सृजन

शख़्सियत


व्यक्ति एवं सृजन


नंदीग्राम नगरी के लिए फरवरी महीना सुख-दुखात्मक प्रतीति का महीना है। दुःख इसलिए कि नंदीग्राम के जिस महनीय व्यक्ति ने अपनी वैचारिक आभा से महाराष्ट्र को दीप्त किया, वे कै. नरहर कुरुंदकरजी के अचानक चले जाने की घटना। सुख इसलिए कि इस दिन को दुखात्मक न रहने देकर, नंदीग्राम नगरी के विवेकशील एवं प्रतिभाशाली व्यक्तियों को इस स्मृति में


बौद्धिक भोजन परोसने वाली 'नरहर कुरुंदकर व्याख्यानमाला'; जिसका इंतजार, पूरे साल तक मराठवाडा के लोग करते रहते हैं। इस साल, यह व्याख्îानमाला हिंदी के विख्यात कवि, नाटककार, आलोचक नरेंद्र मोहन से साक्षात्कार करवायेगी। नरेंद्र मोहन हमें एक बार फिर 'भारतीय कहानियों' के माध्यम से विभाजन की दर्दभरी दास्तान की दुनिया से रूबरू करायेंगे' और महाराष्ट्र में पधारकर महाराष्ट्र के ही संत एवं कवि तुकाराम का अपने नाटक 'अभंग गाथा' के माध्यम से परिचय करायेंगे। निश्चित ही दोनों विषय हमारे दिल दिमाग पर छाये हुए हैं। उसकी टीस हमारे दिल में बसी है।


मोहन जी का जन्म 30 जुलाई 1935 में अखंड हिंदुस्तान के लाहौर शहर में हुआ और उनकी परवरिश विभाजित भारत में हुई। माँ के गर्भ में रहते हुए विभाजन की त्रासदी को महसूस करते-करते उन्होंने जन्म लिया तो बाहरी दुनिया कफ्र्यू के सन्नाटे में खोई थी। आँखें खोलीं तो विभाजन के खौफनाक दृश्य को देखा। विस्थापन की पीड़ा का अनुभव करते-करते उनका बचपन बीता। पर यह चमत्कार ही है कि इतनी कठोरता, क्रूरता देखने एवं महसूस करने के बावजूद उनके भीतर का 'पानी' तत्व बचा रहा। यह कठोरता उनके भीतर की 'हरियाली' को ख़त्म नहीं कर पायी। उनके साहित्य में 'वृक्ष' और 'नदी' के वर्णन मिलना इस बात की ओर ही संकेत करते हैं। पर यह इनके भीतर की संवेदनशीलता ही है (पानी) कि वें नई ज़मीन से भी अपना गहरा रिश्ता बना लेते हैं। उनका यह रिश्ता 'जल' में 'जल' के मिलने जैसा है। 'रचना बोलेगी मैं नहीं' में वे लिखते हैं। ''शुरु-शुरू में दिल्ली अपरिचित, बेगानी और बेरहम लगी थी लेकिन आहिस्ता-आहिस्ता वह मेरे अहसास और वजूद का हिस्सा बनती गयी। मेरा वुजूद जो रावी, सतलुज और व्यास से बना था यमुना से टकराने लगा और तालमेल बिठाने लगा'' वे लौकिक दृष्टि से गृहस्थ हैं। पिता रूपलाल शर्मा भाषाप्रिय व्यक्ति थे, माँ का व्यक्तित्व दिये की लौ के समान था। पत्नी अनुराधाजी ने सदैव उन्हें सृजन के लिए प्रेरित किया है। दो कन्याएँ, दामाद, सुपुत्र, बहू तथा पोते-पोतियों, नवासे-नवासियों से भरापूरा परिवार पाना सौभाग्य की बात है। परिस्थितियाँ व्यक्ति का मिज़ाज बनाती है, यह सत्य मोहनजी के व्यक्तित्व को देखने के बाद कमजोर पड़ता है। इतनी भयावह और क्रूर परिस्थितियों में बचपन बीतने के बावजूद मोहनजी का व्यक्तित्व मधुर तथा अपने नाम की तरह ही आकर्षक और मंत्रमुग्ध करनेवाला रहा है। मुस्कुराता हुआ चेहरा, मृदु व्यवहार, बातचीत का मीठा लहजा उनके व्यक्तित्व की विशेषताएँ हैं। उनके छात्रों ने लिखा है मुस्कुराते हुए नाराज होना और नाराजगी प्रकट करते हुए प्यार करना यह उनकी कला है। उनमें कमाल का संयम है। 'चुप रहना' और 'अपने बारे में नहीं बोलना उन्हें बखूबी भाता है। वे एक साथ पंजाबी, उर्दू, हिंदी, अंग्रेजी और मराठी पर समान


अधिकार रखते हैं। एक प्राध्यापक के रूप में वे आजीवन अध्ययन, अध्यापन तथा अनुसंधान में रत रहे।


मोहनजी का रचना-संसार बहु आयामी है। वे मूलतः कवि, नाटककार और आलोचक हैं। इसके अलावा उन्होंने डायरी, संस्मरण, जीवनी और आत्मकथा भी लिखी है। वे हिंदी के साथ-साथ पंजाबी में भी लिखते रहे हैं। अनकी समग्र रचनाएँ, रचनावली के बारह खण्डों में प्रकाशित है। 12 कविता संग्रह, 07 नाटक, 14 आलोचनात्मक पुस्तकें, 18 किताबों का उन्होंने संपादन किया है। उनके साहित्य पर कई शोधार्थियों ने


अनुसंधान किया है, आलोचकों ने आलोचनाएँ लिखी हैं। अनुवादकों ने मराठी तथा अन्य भारतीय भाषाओं के साथ अंग्रेजी में अनुवाद किए हैं। भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला में विभाजन और भारतीय कहानियाँ इस विषय पर उन्होंने विशेष व्याख्यान दिए हैं। उन्हें हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा 'आजीवन साहित्य साधना राष्ट्रीय सम्मान' से सम्मानित किया गया। इसके अलावा पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, तथा उ.प्र. सरकार द्वारा उन्हें कई पुरस्कारों से नवाजा गया है। उन्होंने भारतीय लेखक संगठन' के महासचिव के पद पर तीन साल तक काम किया है।


एक रचनाकार के रूप में वे निश्चित भूमिका लेकर चलते हैं और एक आलोचक के रूप में अन्य लेखकों से भी यही अपेक्षा करते हैं। उनकी दृष्टि में कविता- “एक सुविचारित कार्यवाही है/भावुक व्यापारों एवं ग्लानियों के विरुद्ध/यह स्थायीभाव की खूटी पर टँगा/ रस सिद्धांत नहीं है/यह एक व्यूह रचना है/सोचनेवाले आदमी की।” उनका कहना है मूल्यवान लेखन इतिहास के बाहर संभव नहीं है, पर वे जीवन के यथार्थ के प्रति भी जागरूक हैं। वे माक्र्स और लोहिया के विचारों से प्रभावित हैं पर उन्हें किसी भी वाद के साथ नहीं बाँधा जा सकता। प्रेम, प्रकृति राग, काम संबंधों का मनोविज्ञान, सामान्य जन की


पक्षधरता, यथास्थितिवाद की बेचैनी, व्यवस्था का विरोध आदि उनकी कविता के महत्वपूर्ण विषय हैं। प्रयोगशीलता उनकी आदत है। अपने ही बनाये रास्ते के रूढ़ि बनने से पहले ही वे उससे बाहर निकल पड़ते हैं। जीवन की विसंगतियों को देखकर उनकी वाणी व्यंग्यात्मक बनती है। हिंदी में विचार कविता'का आन्दोलन तथा 'लंबी कविता' को विमर्श में लाने का काम उन्होंने ही किया है। 'इस हादसे में', 'एक अग्निकांड जगहें बदलता', 'एक सुलगती खामोशी' आदि उनके प्रमुख काव्य-संग्रह हैं।


हिंदी नाट्य विधा में एक दौर ऐसा आता है, जहाँ पाठ्य नाटक और रंगमंचीय नाटक यह भेद होने लगता है। मोहनजी रंगमंच के नाटककार हैं। वे अपने नाटकों के सभी प्रदर्शनों में रंगमंडलियों का हिस्सा बने। शैली की भिन्नता, विषय की नवीनता, पारंपरिक रचनाविधान को छोड़कर नया प्रयोग यह उनके नाटकों की प्रमुख विशेषताएँ हैं। नाट्य भाषा के प्रति सजग होने के कारण ही वे कहते हैं कि, नाटक के शब्दों में दृश्य समाहित होते हैं। उनके नाटक आज के मनुष्य और समाज को समझने, उनकी विसंगतियों और तनावों को उभारने के कारण सीधे आम आदमी से जुड़ जाते हैं। उनके नाटकों में 'कहै कबीर सुनो भाई साधो', 'कलंदर' और 'अभंग-गाथा' विशेष हैं। नाटककार ने खुद कहा है कि कबीर उन्हें तुकाराम तक ले आए। तीनों नाटकों के प्रमुख चरित्र, क्रमशः - 'कबीर', 'कलंदर' और तुकाराम हैं। (इनमें से कबीर और तुकाराम वास्तविक चरित्र हैं तो कलंदर प्रतीकात्मक चरित्र है।) सच के प्रति निष्ठा और उसे अमल में लाने का साहस तीनों चरित्रों में समान है। अन्याय, असत्य और अधर्म के खिलाफ संघर्ष करते हुए सच्चाई के लिए मर मिटने का जोश है। तीनों मस्तमौला, दबंग, अक्खड़ - फक्कड़ मिजाज के हैं। तीनों क्रांतिकारक हैं और उनकी चेतना विद्रोही है। कबीर और तुकाराम की जिंदगी के अनुभव नाटककार के अनुभवों के साथ एकमेक हो गए हैं। उनकी बेचैनी युग के रचनाकारों की बेचैनी है। ये अनुभव आज के दहकते हुए सन्दर्भो के साथ एकरुप हो रहे हैं। 'अभंग गाथा' का संघर्ष दोहरा है - एक सत्य के प्रति निष्ठा और उसे अमल में लाने का साहस तथा दूसरा सृजनात्मक स्तर पर तुकाराम की आस्था शब्द की शक्ति में है। शब्द उनके लिए जीवन का पर्याय है। शब्द ही रत्न है, शब्द ही प्राण। सारी बेरहम दुनिया उनके अस्तित्व को लीलने के लिए तैयार और तुकाराम अपने अस्तित्व को बचाने के लिए शब्द का शस्त्र के रूप में प्रयोग कर रहे हैं। दुनिया से मिला रिसता हुआ घाव लेकर उजाले के स्वर आलाप रहें है। वे लिखते हैं - ''इस सच के कारण ही बीच में एक बेरहम दुनिया .... मेरे विरुद्ध खड़ी.....मेरे होने को नोचती-खसोटती ... हर पल मुझे झुकाती, गिराती, गुलाम बनाती, मेरे अंतर को झकझोरती, नंगा करती ....'' - अभंग गाथा एक समय आता है जब शब्द (शस्त्र) भी भयावह अन्याय और क्रूरता के सामने स्तब्ध हो जाते हैं। इससे चिंतित तुकाराम की माँ को देखकर उनकी पत्नी, रखमा कहती है - “क्या बोलू माँ/तुम डरी हुई हो प्यार से/ये बेजुबाँ हो गए हैं डर से” पर यह नाटक यही नहीं रुकता/शब्दों की अपार शक्ति का अहसास कराता है। शब्दों को कोई ख़तम कर सकता है? अभंग इंद्रायणी में डूब गए तो क्या हो गया ... हजारों कंठों से गूंजते उनके अभंग लोगों की याददाश्त की नदी में तैरते हुए उन तक पहुँच जाते हैं, उनके कंठों से होकर ......।


विभाजन का दर्द एवं उसकी चुभन तथा दहकते अनुभवों की बेचैनी और शब्द शक्ति की यह गाथा लेकर आ रहें है नरेंद्र मोहनजी.....           


 



Popular posts from this blog

अभिशप्त कहानी

हिन्दी का वैश्विक महत्व

भारतीय साहित्य में अन्तर्निहित जीवन-मूल्य