अन्तरव्यथा - डायरी के कुछ पृष्ठ

आज आठ अक्टूबर है! तो क्या। तारीखें, माह, वर्ष तो आते-जाते ही रहते हैं, हां कुछ तिथियां व्यक्तिगत रूप से


महत्त्वपूर्ण रहती हैं। मेरी मां ने बताया मैं पितृपक्ष की बुढ़िया नौंवी पर पैदा हुई थीं, तारीख आठ अक्टूबर थी। मेरे लिये इस दिन का कोई महत्त्व न था क्योंकि मेरे जन्म पर न तो धरती डोली न तूफान आया। एक साधारण सी लड़की पैदा हुई जैसी उस समय कई पैदा हुई होंगी। लड़की के जन्म का कोई अर्थ भी नहीं होता। वो भी कान्य कुब्ज घराने के ब्राह्मण परिवार में। यही क्या अच्छी बात नहीं कि उस समय तक बेटी को पलंग के पाये के नीचे दबाकर नहीं मारा जाता था! वरना कनौजियों की लड़की वो भी पैदा हुई राजस्थान में। पर इस आम लड़की की जन्मपत्री में दो बातें विशेष थीं, मां व्यंग्य से हँसकर कहती, 'ये कन्या पितृकुल के लिए शुभ है और पिता का नाम बढ़ायेगी' मुझे ये सब स्मरण न रहा, न अपने जन्म की कोई विशेषता भी स्मरण थीं। मेरे जेहन में तो एक भोली मासूम अल्हड़ सी लड़की है जो खंडवा की गलियों व चैबारों पर लहंगा ब्लाउज पहने उछलती कूदती हँसती बोलती किसी भी परिचित के घर की तिमंजली सीढ़ियां चढ़ती व तेजी से उतरती। उचकती फांदती चाचाओं, दीदीयों, दोस्तों को स्नेह बांटने में कोई चूक न करती, कुछ अपनों ने तगमा लगाया था, कृष्णा बहुत प्यारी लड़की है'।


लेकिन ये हंसती बोलती निडर सी लड़की भीतर से भी डरपोक व रोतड़ी थी। बातूनी तो थी पर सबकुछ में एक 'एटीट्यूड' हावी था वो यह कि मुझे सबको खुश रखकर ही भीतर से प्रसन्न होना है। लेकिन लंबी उम्र तक स्वयं के जन्म एवं जीवन को महत्त्व देना नहीं आया। मैं कोई संत नहीं थी। माता पिता के दबाव को मैंने एक आज्ञाकारी बेटी का आदर्श जरूर माना। यदि वे यह जताते हैं कि लड़की से अधिक लड़का परिवार के लिए महत्त्वपूर्ण है तो वो होगा ही। इसीलिये छोटे भाई का जन्मदिन तो साधारण तरीके से मनाया ही जाता, मां व पिता उसे तिलक लगा पटे पर बैठा खीर खिला कुछ भंेट में देते! मैं तो इस दृश्य पर खुश होती व खीर भी मजे से खा लेती।


मेरे जन्म दिन को में भूल गई। इसे महत्त्व दिया मेरी आत्मजा नीहार ने, शायद उसे अहसास हुआ होगा कि उसकी मां उसके जन्मदिन को बहुत महत्व देती है तो उसे भी देना चाहिए मेरे लिए नीहार लड़की लड़के के भेद से परे बहुत महत्त्वपूर्ण रहीं, इतनी कि उसे उसकी कमियों व दोषों को मैं कभी भी नहीं बता पाई। आज भी नीहार कुछ समय बाद भी मेरी ही बात की प्रमुखता दे देती है।


हाँ उस दिन आठ अक्टूबर था, मैं कृषि विश्वविद्यालय से लौट जब अपने फ्लैट में पहुंची तो मेरी किराये की डिनर टेबल सजी हुई थी और कुछ खुशबू भी आ रही थी। बीच में छोटी सी केक व मोमबत्ती लगी थी। मेरे पहुंचते ही मेरी बारह वर्ष की कोमल सुंदर बेटी ने मेरे गले में बांह डाल कहा 'हैप्पी बर्थडे मम्मी' और अपने हाथ से बनाया ग्रीटिंग कार्ड थमा दिया, पुराने कुक रूपनारायण के सहयोग से उसने यह सब किया। यह सिलसिला आज तक जारी है, अब ऊषा बहन मंजु के साथ मोहनी बाजपेयी भी जुड़ गई हैं, कुछ देश के पी.एच.डी. विद्यार्थी भी शुभकामनाएं देते हैं। इस वर्ष वीरेन्द्र सक्सेना ने भी शुभकामनाएं दी हैं।


मैं स्वयं नहीं जानती कि किस मनोविज्ञान के तहत मैं अपने जन्मदिन पर खुश नहीं हो पाती, हां एक बार मैंने कम परिचित इतिहास के प्रोफेसर के घर प्रातः जा कहा, “मुझे चाय नाश्ता खाना है सुरेश। जब लौटने का समय हुआ तो सुरेश ने ही देवल पर लिखी छोटी सी सूचना मुझे थमाई और मैंने उस पर कहानी लिखी एक 'अनकही गजल'। मैंने ऑटो में बैठने के बाद कहा, “धन्यवाद सुरेश आज मेरा जन्मदिन था'' दोनों मियां-बीबी चीखे, बुरी बात हमें बताना तो था - तब तक ऑटो चल पड़ा था, अनजाने में छोटी सी स्नेह व प्यार की सहलाहट मुझे


अधिक अच्छी लगती है। मुझमें नम्रता व विनम्रता ने अकिंचनता पैदा कर दी जब कई लेखिकाएं अपनी महानता का डंका पीटती हैं तब मैं मिमियाई सी हां-हां ठीक है ही दुहराती हूं, अपने विषय में कुछ नहीं कह पाती आघात करने पर भी आघाती को क्षमा कर देती हूं। बस कभी-कभी खंडवा भीतर से चीखता है और कस्बे की खुशबू याद हो आती है।


धूप छांह व आत्मीयता भरा आंगन भूलता नहीं। कहां कैसे एक रात विमला अग्रवाल प्राचार्या शास. महा. मेरी परम प्रिय मित्र का अंधा कत्ल हो गया व कत्ल गुथ्थी सुलझी नहीं, डन्डेल ने आत्महत्या कर ली, निनोहरिया प्रेम में असफल हो दूर हो गई। राजरानी, विमला, खन्ना मैडिकल हैल्प की कमी के कारण जल्दी चली गई। सुरैय्या का 'लालजार' तो खड़ा है पर सुरैय्या ट्रेन ही मैं रह गई। अब मुहब्बत की नजर से देखने वाली कहां से ढूंढे? इतने सारे अपने छोड़ गए और जिंदगी में सूनापन बढ़ा दिया। खंडवा के मित्र व कलीग्ज तो अब मिलने से रहे जो मेरी प्रत्येक उपलब्धि पर खुलकर बधाई देते। सुरैय्या भाग दौड़कर भरवा बैंगन बनातीं, श्रीमती अग्रवाल टिफिन भेजती और राजरानी प्यार से भोजन परोसतीं। कुक्कू तो खिलाये बिना छोड़ती ही नहीं थी, अब समय विकास का है।


जिंदगी सभी की युद्ध नहीं होती, अच्छा ही है कि अस्तित्व व स्वाभिमान से जीने के लिए जो प्रयास रहे वे भीतर की ताकत को बढाते रहे। अन्यथा मां के दिये आदेशों ने बहुत खामोश रखा। वे कहती थीं कौमार्य-सुरक्षित रहना चाहिए। पतिव्रत


धर्म नारी का गुण है तो कुंवारेपन को खंडित करने के प्रयास करने वाले सांपों से भी सुरक्षित रहना सिखाती ! पति के कठोर पंजों से जकड़ी बेटी को बचना समझाती ! ये तो समझाया कि पिता, भाई, पति-पुत्र की छत्रछाया अनिवार्य है तो इस बेटी को आश्रयहीन हो क्यों सामाजिक प्रताड़नाओं को भुगतना पड़ा। ये तो प्रारब्ध था कि मां दुर्गा की दया को पतली गलियों से गुजर अपनी विनम्रता के जिरह बख्तर में लिपटी सुरक्षित बाहर आ गई। भले ही जिंदगी जैसी जिंदगी न रही पर उसे बदसूरत व घिनौनी भी तो नहीं बनने दिया। जानती हूं मेरे जैसे सामान्य साधारण लेखक को कॉलोनी में कोई नहीं जानता। नेता होती तो सभी हाथों हाथ लेते। मैं भी तो कॉलोनी में फैलती गंदगी, सुअरों व कुत्तों के ढेर एवं उजाड़ पार्क में खेलते बच्चों के शोर से लोहा नहीं ले सकी। साईं कृपा जाती थी, वहां आमने सामने दो पुलियाओं में महिलाएं अपनी बैठक जमा लेती। सावित्री अग्रवाल, आशा शर्मा, श्रीमती पाठक ममता से मेरे सर पर हाथ फिरा देतीं पर बंजारों ने वहां मल त्याग पुलिया की ईंटें उखाड़ उसे ध्वंस किया जैसा नीचे का बाबू ऑफिस को ध्वंस करता है। मेरा महिला मंडल लुप्त हो गया। यहां यह कॉलोनी और यहां का रहवासी संघ न पार्क बनाता है न उखड़ी बैंचें टिकती हैं। दादागिरी चलती है और महिलाएं भजन के साथ नाचती खेलती रात में गरम रोटी परोसती जीने में जिंदगी सार्थक समझती हैं।


ऐसा नहीं है कि मैंने जन्मदिन पर विदेश यात्रा नहीं करनी चाही। बहनोई खुर्शीद खान व बहन ऊषा ने अरब तो घुमा दिया शेष कहीं नहीं जा पाई। एक बार गहरी लालसा जागी थी, कि काश मुझे भी इन्दु सम्मान मिले तो मैं लंदन देख लूँ, पर मुझे ये सुख कैसे व क्यों मिलता। तब इन्दिराजी पर लिखा उपन्यास 'बित्ताभर की छोकरी' वहां भेजा लेकिन कुछ भी पी.आर.ओ. का काम ढंग से नहीं किया। ऊपर से लांछनाएं आरोप मिले कि मैं कांग्रेसी हूँ आदि। जबकि मैं आज भी किसी पार्टी से नहीं जुड़ी। लिखती रही हूं और टपरे वाले, नीलोफर, मैं अपराधी हूं, नानी अम्मा मान जाओ आदि विविधतापूर्ण उपन्यासों व पन्द्रह कहानी संग्रहों के बावजूद मैं किसी बड़े पुरस्कार या मान के योग्य भारत के मठाधिकारियों द्वारा नहीं स्वीकारी गई। इसलिए सामान्य महिला की भांति भी ऐसी पीड़ाओं के कारण जन्मदिन पर खुश नहीं हो रही। जिंदगी रौनकमय नहीं थी पर इसे रौंदने का हक भी किसी को नहीं दिया। हां अभी तक आत्मकथा के दो भागों के पश्चात् भी लगता है श्रेष्ठ नहीं लिखा। भारत में श्रेष्ठ सिद्ध करना व श्रेष्ठ होने में भी मरणासन्न अवस्था में उसे स्वीकारने की प्रथा है। लेखक देश में कोई सुविधा नहीं पाता प्रकाशकों, सम्पादकों, पत्रिकाओं से जद्दोजहद चिरौरी करते ही लेखन होता है। समीक्षाओं व प्रकाशन में ऐसे निवेदन करो जैसे भिखारी हों, तब भी सुनने को मिलता है, पुस्तक खो गई, रचना गुम हो गई। प्रकाशन में भीड़ है अभी तो सन् 2000 की पुस्तकें भी नहीं निपटीं हम लोग समस्याओं से घिरे हैं आदि। मेरे जैसी लेखक महिलाओं को क्या इनसे निपटना सरल है? मैं हत्बुद्धि रही हूं यहां। इस उम्र में पंगा लेने का स्वास्थ्य भी नहीं। मैं कलक्टर या नेता तो हूं नहीं, हूं तो पत्रकार के अनुसार एक वरिष्ठ साहित्यकार जिसे महिलाएं अजूबा समझ एक दूरी बनाये रखती है। स्वयं को वे सती साध्वी महान पत्नी समझती है। वे घँूघट काढ़ती हैं। भजनों पर नाचती हैं और पतियों को रात गरम रोटी परोस धन्य हो जाती है। उन्हें कटे बाल व लिखने-पढ़ने वाली स्त्री से भय बना रहता है। मेरे आस-पास नियम विरुद्ध माल्टियां उग रही है एवं देखरेख हेतु चैकीदारों के टपरे तैयार हैं जिनमें फ्रिज, मोबाइल, मोटर-साइकल के साथ बकरियां भी है। उनकी दादागिरी है वे सड़क पर ही थूकते कुल्ला करते हैं और मेरे घर के पीछे वाले खाली प्लाट पर पेशाब की दुर्गंध फैलाते हैं। हां मच्छर फैले बीमारी तो फैले। शाम होते ही सरकारी बिजली के तारों से खींच बिजली ले टपरे रौशन होते हैं और टी.वी. आन। प्रातः ही शीशी उठा इधर-उधर ताक किसी खाली स्थान पर मल त्याग देते हैं। शासन ने जो रुपये बाथरूम लैटरीन के दिये हैं उसे कमरे बनवा किराये से उठा दिये। जो निरीक्षक आया उसे पिलाई शराब व बेटी परोस दी। बात खत्म स्वयं का मूड हुआ तो बेटी बेटा अंदर माता-पिता सड़क पर ही निर्वस्त्र काम लीला में मदमस्त ! कर लो जो करना हो ! अब कितने हजार अन्ना हजारे आयेंगे और किन-किन पार्टियों के इन दादाओं को लोकपाल के दायरे में घसीटेंगे।


मैं ? मैं भारत की एक स्त्री कोने में बैठी चाणक्य के सर में घुसी विष कड़ियों की पीड़ा से व्यथित होती हूं कि अखंड भारत के सपने देखने वालों बताओ सत्य व ईमानदार जिंदगी जीने वाले कब तक यूं विषपान करते एक अर्थ खोजेंगे!


हमारी कॉलोनी में मल्टी न बनने की बात थी पर सरपंच ने चप्पे-चप्पे के बीच ढेरों मल्टी बनवा दी। कौनसा नियम कैसा कानून! पैसा दो कुछ भी बनवा लो। मैं भ्रष्टाचार विरोध की बात क्यों करती हूं जब मैं स्वयं विरोध नहीं कर पाती। साहित्य, अकादमी, पत्रिकाएं, प्रकाशक इसे सबसे अछूते नहीं तब भी छपने, व ख्याति की इच्छा हमें उनसे काट तो नहीं सकती है। योग्यता कोई मानदंड नहीं, मानदंड है आपका पी.आर.ओ. का काम। जो विज्ञापन दिलवाये, किताबों की खरीदी में सहयोग दे या इतना रोमानी लिखे कि पढ़ते ही आप चित्त हो जाये तो और बात है। अच्छा हुआ सातवें, आठवें दशक में यह रोग


अधिक फैला नहीं था अन्यथा मेरी जैसी आम साधारण महिला कस्बे से अपनी लेखन यात्रा ही न प्रारंभ कर पाती। यूं तो अभी भी कुछ पत्रिकाएं व प्रकाशक अच्छे लेखन को महत्व देते हैं परन्तु कहानी संग्रह, साक्षात्कार, नाटक, लघुकथाएं, कविताएं छपना आसान नहीं रहा। समीक्षाएं अपने आप नहीं होती, उनके लिए भी भिखारियों सा गिड़गिड़ाना पड़ता है तब भी झिड़की सुनो, 'भीड़ है पुस्तकों की'। वे खो गई पुनः भेजो ! फिर खोई पुनः भेजो! साहित्य सोच पैदा करता है उसे ही मरणासन्न कर दोगे तो क्या होगा? अनुवाद, आदि में तो खड़े-खड़े बेहोश हो जायेंगे, या रुपया पानी सा बहाकर अनुवाद करायें व झूठे गर्व से कहें हमारी तो इतनी रचनाओं का अनुवाद हुआ है। प्रकाशक से रायल्टी लेने की बात भी की तो एग्रीमैंट न होगा और वे आपको नकार देंगे, लघु पत्रिकाएं अर्थ की कमी वश बड़े प्रतिष्ठानों से टक्कर लेने में असमर्थ हैं, अब ऐसी परिस्थितियों में अकेला व्यक्ति 'वर दे वीणा वादिनी' गाकर ही अपनी पीड़ा दूर करेगा शेष तो ईश्वर ही मालिक है। न छपेगा न अनुवाद होगा न पुरस्कार प्राप्त होगा। इतिहास व समय की प्रतीक्षा में स्वयं ही काल में समा जायेगा।


सरकारी तंत्र को फेल करने में हमारी महिलाएं कम नहीं। सरकार ने 75 हजार रुपये बाथरूम लैटरीन बनाने को दिये उन्होंने कमरे बनवा किराये से चढ़ा दिये। निरीक्षक को अच्छी शराब व लड़की भेज दी, वे भी खुश ये भी खुश!


लेखक बंधु संवेदना के अधिकारी अपने ही बंधुओं से प्रतिस्पर्धा करते हैं जड़े काटते हैं। अपनी पंक्ति बड़ी न कर दूसरे की पंक्ति मिटाते हैं। तब उनसे आत्मीयता, सहयोग, मार्गदर्शन पाने की कल्पना मृगमरीचिका ही तो सिद्ध होगी।


माना समय परिवर्तित होता है। पुराने पत्ते झड़ते हैं, नये आते हैं, पर बूढा बरगद छांह देता है और अच्छा बीज ही अच्छा पेड़ बनता है। तब भारत के बीजों का क्या हुआ? आज सुबह मंदिर जाते समय उस बड़े मैदान में एक भीड़ के सामने मुंह पर नकाब बांधे एक लड़की लड़के को पीट रही थी और वो उसे पीट रहा था।


न उन्हें भीड़ से लज्जा थी न भीड़ में कोई उन्हें रोकने की चेष्टा कर रहा था। विकास के इस दौर में स्त्रियों की यह स्थिति मुझे कचोट गई। माना कि सदियों से स्त्री सताई गई है पर क्या आप गलत व्यवहार के अनुकरण ही से पुरुष के समकक्ष खड़ी होंगी। अभी तक तो आपने अवांछनीय पाश्चात्य जीवन शैली व सोच को जीवन समझा है और तब स्त्री-विमर्श का नारा कितना बेमानी लगता है। मैं भी सोच रही हूं क्या स्त्री-पुरुष के खुले संबंध ही विकास के पर्याय हैं? स्त्री को मैं शील के कठोर


बंधनों में नहीं बांध रही पर जानवरों सा मुक्त जीवन क्या उन्हें चैन और सुकून दे सकेगा? पुरुष प्रकृति से भावुक नहीं तब तुम्हें क्या आत्महत्या ही का रास्ता ठीक लगेगा। इससे तो अच्छा यही है कि मैंने युद्ध भरी जिंदगी जी, तीरों की पीड़ा सही पर भीतर यह सुकून है कि अपने को हीन, दयनीय व सस्ता नहीं बनाया। यदि कुछ छीनने नहीं दिया तो कुछ छीना भी नहीं। स्वार्थ की नदी में स्नान न कर स्वयं की निर्मल छोटी बावड़ी निर्मित करनी चाही तो वो सुखकर तो है। ठीक है इतने महान न भी बन पाये पर अपने अस्तित्व को इतनी शांति में न रखा कि अकर्मण्य रहें, इसलिए यह विश्वास तो है कि मेरा जन्मदिन कोई तो स्मरण रखेगा इतिहास में दो पंक्ति तो मिलेगी। अभी दरवाजे की घंटी बजी और एक पत्रकार महोदय स्वयं को बहुत महत्त्वपूर्ण सिद्ध कर बोले 'कृष्णाजी हम एक स्टोरी कर रहे हैं। आपके कुछ लेख पढ़े हैं इसलिए...' जिन्होंने लेख पढ़े हैं उन्हें क्या कहूं क्या बात करूं? कहानी लेख में अंतर तो समझे! अपने जन्मदिन पर झुंझलाहट है कि अब ऐसे पत्रकारों से भी निपटना पड़ेगा। जिन्हें अभिनेताओं की बच्ची के फोटो हेतु पांच करोड़ खर्च करना अच्छा लगता है पर जो साहित्यिक व लघु पत्रिकाओं पर खर्च नहीं कर सकते। जो देश में विभिन्न विचारों व सोच को प्रवाहित करती है।


पत्रकारों को न्यूज छापने के लिए भी अनुनय विनय की आवश्यकता है। एक बार दूरदर्शन पर मैंने, सूर्यबाला, सुधा अरोड़ा व एक और कवयित्री ने अपनी रचनाएं पढ़ीं, लोकल पेपर्स में मैं गायब थी। पता नहीं ऐसा कैसे हो गया। स्टोरी के नाम पर फोन ही से कभी-कभी बात हो जाती है और वे जो भी छापें वही स्टोरी होती है। वो भी बहुत संक्षिप्त क्योंकि विकास के दौर में यदि कपड़े छोटे हो सकते हैं तो स्टोरी क्यों नहीं छोटी हो सकती? कुछ भय तो है कि कहीं साहित्य को शोर्ट करते-करते उसे आऊट ही न कर दिया जाये ! यही तो हुआ! उन पत्रकार महोदय ने एक नवोदित कवयित्री की घमासान स्टोरी ही छापी।


रात आठ बज रहे हैं। नन्दिता आई, वो पी.एच.डी. आत्मकथाओं पर कर रही है। मैं छात्रों के लिये विशेष नम्र हूं, उससे कहा कुछ प्रश्न पूछे कुछ बाद में लिखकर पूछ ले। कई प्रश्नों के बाद शर्माकर उसने पूछा- 'मैडम आपने कहीं लिखा है कि आप अब भी प्यार कर सकती हैं और प्यार पाना चाहती हैं?'' 'हां, मैं मृत्यु शैय्या पर भी प्यार पाना चाहूंगी ! क्यों क्या प्यार उम्र-जाति, धर्म से पाया जाता है? मैं हँसी, बेटे प्यार को


संकीर्णता से मत देखो! प्यार पाना व देना इंसान की फितरत है ! प्यार मां, बाप, भाई, बहन, मित्र, प्रेमी सबसे मिलता है। मुझे भी किसी भी रिश्ते से प्यार पाना अच्छा लगता है और सभी रिश्तों को प्यार देना भी उचित लगता है। ये तो प्राणी की अदम्य लालसा है। वैसे तो मैं- दर्द का इतिहास हूं, दुःखों का टूटा आईना हूं। तब भी सरस्वती-आराधना से प्रेम है जो सदा करती रहूंगी, उनसे पाने की कामना है।



व्यक्तिनुसार प्यार का उदात्तीकरण हो सकता है। उसे कठोर शब्द 'सैक्स' में न बांधो। वो एक खुशनुमा अहसास है। पवित्र जज्बा है जो कहीं भी कभी भी आहिस्ते से आंख खोल देता है। प्यार उपहास की नहीं आदर की भावना है। ये जो आपकी नई पीढ़ी क्षणों के आवेश व सैक्स को प्यार कहते हैं न वह आपके ही गले का फंदा बनेगा ! मैं तो प्यार को पवित्र कोमल अनुभूति मानती हूं जो बंधन मुक्त है और आपको कभी भी जाने या अनजाने में दबोच लेती है। जब उसके आने जाने से ही हम परिचित नहीं तो उसके विषय में कोई भी दावा प्रस्तुत करना उचित नहीं। मनुष्य अगले पल की खबर नहीं जानता तो यह दावा कितना अर्थहीन है कि वो किसी भी उम्र में क्या नहीं कर सकता या उसके साथ क्या हो जायेगा? . नन्दिता खुश हो चली गई। मैंने नीहार के एक अनुरोध को पूरा किया डब्बे से मिठाई निकाल कर खाई व नींद की गोली खा कर सोने का प्रयास किया।                 


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