बचा न इनसे वस्त्र कफन का

चश्का लगा है काले धन का


बचा न इनसे वस्त्र कफन का


दौलत यहीं धरी रह जाती


अंत सुनिश्चित है जीवन का


ए.सी. में रहने वालों को


कैसे हो अहसास तपन का


कितनी भरी उड़ाने लेकिन


छोर नहीं मिल सका गगन का


जिनका जीवन पराधीन है


उनसे पूछो अर्थ घुटन का


कब हंडी की पाले खोल दे


कौन भरोसा है ढक्कन का


डाकू, चोर लुटेरा कोई


क्या बिगाड़ लेगा निर्धन का


 


मारकर ठोकर गया


ढाई आखर प्रेम के, बोकर गया


रूढ़ियों को मारकर ठोकर गया


ज्ञान का साबुन लिए आया कबीर


दाग सब पाखंड के धोकर गया


कंटकों के बीच ज्ञानी खुश रहा


मूढ़ अज्ञानी मगर रोकर गया


लेने-देने वाले दोनों लुट गये


फायदा लेकर मगर ब्रोकर गया


उसने पाया जो रहा सक्रिय सजग


सोने वाला गाँठ का खोकर गया


धुन लिया सिर पाठकों, श्रोताओं ने


काव्य जिस दिन गद्यमय होकर गया


मंच पर साहित्य अपमानित हुआ


वाहवाही लूटकर, जोकर गया



Popular posts from this blog

अभिशप्त कहानी

हिन्दी का वैश्विक महत्व

भारतीय साहित्य में अन्तर्निहित जीवन-मूल्य