ग़ज़लें

उसका मुझे दीदार गर इक बार हो जाये


सोई हुई किस्मत मेरी बेदार हो जाये


करते हैं मतलब से मुहब्बत लोग दुनिया में


ऐसा न हो अब प्यार भी व्यापार हो जाये


उसको निभाना है ज़रूरी दोस्तो, समझो


जब भी किसी से भी कोई इक़्रार हो जाये


ग़मगीन को होगा नहीं एहसास तब ग़म का


हर आदमी गर ज़ीस्त में ग़मख्वार हो जाये


चलती है दो साँसों के तारों से सभी की जीस्त


जाने न कब किसका शिक्स्ता तार हो जाये


रखिए हमेशा हौसला अपना संभालकर


किसको ख़बर कब आफ़तों का वार हो जाये


हमको नहीं है नाखुदाओं पर भरोसा अब


उस पर ये डर, साहिल न ख़ुद मझधार हो जाये


फिर आपसी झगड़ों फ़सादों का न हो मंजर


सबका अगर सच्चाई का किरदार हो जाये


उस पर जो मालिक कुछ कर्म कर दे किसी दम भी


सहरा ज़माने में गुलो - गुज़ार हो जाये।


ऐसा करो कुछ तुम 'सुधाकर' बहरे-गेती से


ज़िन्दगानी का सफ़ीना पार हो जाये


                            —


ज़ख़्म खाकर दर्द को अपने दबा देता हूँ मैं


हौंसला यूँ ही सितमगर का बढ़ा देता हूँ मैं


ग़मज़दाओं के ग़मों को बाँटना भाता बहुत


जब भी मिलते ग़म मुझे उनको भुला देता हूँ मैं


आशियाँ मेरा जला देती है बिजली जब कभी


इक नया घर उसकी ज़द में फिर बना देता हूँ मैं


ठोकरें खाकर संभलने का हुनर भी आगया


राहे-मंजिल का हरकि पत्थर हटा देता हूँ मैं


वक्त से जो टूटकर लम्हें अलग होते उन्हें


अपने मुस्तक़बिल से ख़ुद फ़ौरन घटा देता हूँ मैं


दोस्तों उसकी इबादत के लिए ही हर जगह


आस्ताँ रब का समझकर सर झुका देता हूँ मैं


दुश्मनी करना किसी से भी मुझे आता नहीं


प्यार से ही दुश्मनी का भी सिला देता हूँ मैं


सोचते मेरा बुरा जो रात दिन ही बेसबब


दिल की तरह से उनको भी अच्छी दुवा देता हूँ मैं


ज़िन्दगी में मुझे पे जो अहसान करते हैं कभी


उनके अहसानों का भी बदला चुका देता हूँ मैं


और बढ़ जाती है वो सचमुच 'सुधाकर' मानिए


प्यार की दौलत को जिसदम भी लुटा देता हूँ मैं



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