महाकवि नजरुल इस्लाम: बगावत का बिगुल, संगीत का बुलबुल

काज़ी नजरुल इस्लाम को कुछ समीक्षक बंगलाभाषी कवियों में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित गुरुवर रवीन्द्रनाथ ठाकुर के बाद दूसरे स्थान या सम्मान का समुचित


अधिकारी घोषित करते हैं। अन्य कुछ विद्वान उन्हें कवि से भी कहीं अधिक एक महान् संगीतज्ञ मानते हैं। यह महाकवि मूलतः अपने आरम्भिक जीवन से ही संगीतकला पर मन-मस्तिष्क से न्यौछावर रहे हैं। अतः आलोचकों की सम्मति से सहज ही सहमत भी हुआ जा सकता है। एक तो नज़रुल ने उर्दू के महाकवियों की भाँति किसी भी व्यक्ति को आजीवन ही अपना काव्य-गुरु


धारण नहीं किया था; दूसरे, वे पराकोटि के स्वाभिमानी व्यक्ति और कलाकार थे। इसी दृष्टिविन्दु से वे अपने किसी भी समकालीन शाइर से व्यंग्यपूर्वक उर्दू शाइर 'अकबर इलाहाबादी के इस शेर को भी सुना सकते थे:-''तुम से उस्तादों में मेरी शाइरी बेकार है/साथ सारंगी का बुलबुल के लिए दुश्वार है।''


वैसे भी नज़रुल के जीवन में इनके बहुत कम समय तक जीवित रहने वाले ज्येष्ठ सुपुत्र का बड़ा हाथ रहा है, क्योंकि उसका भी नाम 'बुलबुल' ही था, जिसका जन्म कृष्ण नगर में हुआ था। उन दिनों राजनीतिक और साहित्यिक स्तर पर घोर दरिद्रता और निराशा में ग्रस्त नज़रुल के लिए वह बेटा अपने जन्म के साथ उनके मन में अपार आशा की रश्मियाँ लेकर इस धरती पर अवतरित हुआ था और उन्होंने अपने एक आरम्भिक कविता-गीत-संग्रह का नाम भी उसी के नाम पर रखा था। 'बुलबुल' संग्रह का प्रथम भाग सन् 1928 में और दूसरा भाग सन् 1952 में प्रकाशित हुआ था। उनकी एक कविता 'दारिद्रय' शीर्षक से भी उनकी लेखनी से प्रसूत हुई थी। नज़रुल ने अपने गाँव में एक प्राइमरी स्कूल भी खोला था। उन्होंने अपनी बंगला भाषा में 'कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल' का सर्वप्रथम अनुवाद किया था।


जीवन की प्रमुख घटनाएँ और प्रसंग:


नज़रुल के जीवन में रचित उनकी कविताओं और गीतों में क्रान्ति-चेतना के साथ-साथ संगीतकला को उनकी


अविस्मरणीय देन पर विचार आरम्भ करने से पहले पृष्ठपीठिका के रूप में उनके जीवन की प्रमुख घटनाओं पर यहाँ प्रकाश-प्रक्षेपण किया जा रहा है:


जन्म: मुगल बादशाह शाह आलम का काल था। एक मुस्लिम परिवार हाजीपुर को छोड़कर बर्दवान जिले में आसनसोल के समीप चुरुलिया नामक ग्राम में आ कर बस गया था। यह गाँव ब्रिटिश शासन में बंगाल के बड़े राज्य (च्तमेपकमदबल) के अन्तर्गत आता था, जोकि अब भारत के पश्चिमी बंगाल में स्थित है। नज़रुल के पूर्वजों में कभी किसी व्यक्ति को 'काज़ी का पद प्रदान किया गया था, जिसका शाब्दिक अर्थ है -चिन्तक या विचारक। नज़रुल के वंश में प्राचीन काल से ही नाम से पूर्व 'काज़ी' पद-नाम जोड़ने की परम्परा चली आ रही थी। उनके पिता का नाम था काज़ी फ़कीर अहमद । वे एक स्थानीय मस्जिद के इमाम और संरक्षक के पद पर काम किया करते थे। नज़रुल का जन्म 24 मई सन् 1899 को मंगलवार के दिन हुआ था। जलज भादुड़ी ने अपनी अनूदित पुस्तक में उनके जन्म की यही तिथि दी है।” नज़रुल की वालिदा (माता) का नाम जाहिदा ख़ातून था। नज़रुल तीन भाइयों और एक बहिन में दूसरे नम्बर की सन्तान थे।


गोपाल हालदार ने नज़रुल इस्लाम की जन्मतिथि का दिन 25 मई दिया है और साल वही सन् 1899 ई. ही है। जब नज़रुल की अवस्था केवल लगभग 8 वर्ष की ही थी, तभी उनके पिता दिवंगत हो गए थे। घर में दरिद्रता इस सीमा तक छाई हुई थी, कि घर-परिवार के सभी लोग नज़रुल को 'दुक्खू मियाँ' कहकर बुलाया करते थे। चूंकि उनकी माता जी एक तान्त्रिक साधु ख्यापा (या खेपा, जिसका शब्दिक अर्थ है 'देवी काला माता का भक्त') से अपने लिए एक पुत्र के जन्म के लिए प्रार्थनाएँ किया करती थी और उस इच्छा की पूर्ति होने के अनन्तर उसने अपने सर्वप्रथम सुपुत्र का नाम भी उसी तान्त्रिक साधु के नाम पर रख दिया था, किन्तु वह अधिक समय तक न चल पाया।


अतिप्राकृतिक और आध्यात्मिक विचारों से अभिभूत होने की ओर नज़रुल की प्रवृत्ति सदैव बनी रही थी। उन्होंने चुरुलिया में विद्यमान मात्र एक ही मक्तब (पाठशाला) में मौलवी फजल अहमद से अरबी और फारसी भाषा की आरम्भिक शिक्षा अच्छी प्रकार ग्रहण की थी। उसी पाठशाला में उन्होंने एक अध्यापक के रूप में भी कार्य किया था। एक कट्टर धार्मिक मुसल्मान होने पर भी अल्पावस्था में ही उन्होंने कुरान के अतिरिक्त बंगला भाषा में ही अनूदित रामायण, महाभारत, पुराण और हिन्दुओं के स्व अन्य अनेक धार्मिक ग्रन्थों का गहन स्वाध्याय करके अपने राष्ट्रीय एकता और साम्प्रदायिक सद्भावना वाले विचारों के निदर्शन देने आरम्भ कर दिए थे। वे प्रायः निकटस्थ ग्रामों के साधुओं, हाजी पहलवान जैसे फ़कीरों सूफी दर्शन से प्रभावित बाउल गायकों, विशेष रूप से स्वच्छन्दताप्रिय स्वभाव वाले सूफियों और दरवेशों की संगति में विशेष रूप से आनन्दित और परम सन्तुष्ट रहा करते थे। चूंकि उनके गाँव में शिक्षा-प्राप्ति की कोई विशेष व्यवस्था न थी, इसलिए वे 'लीटो दल' जैसी नाटकीय टोलियों की ओर प्रवृत्त होने लगे थे, जोकि विभिन्न सामाजिक और राजनीतिक समस्याओं पर प्रख़र व्यंग्य करने वाली नौटंकियाँ प्रस्तुत किया करती थीं। ऐसा करके वे दल जनसाधारण में विशेष रूप से लोकप्रिय हुई जा रही थीं। अपने सामाजिक परिवेश के विरुद्ध विद्रोह के अंकुर उनके व्यक्तित्व में उसी समय से रोपे जाने लगे थे। इसी से वे लोक- गीतों और साहित्यकारों से भी अतिशय प्रभावित होने लग गए थे। उनके एक चाचा 'लीटो बैंड' (स्मजव ठंदक) के सदस्य थे। वही अपने साथ उन्हें भी उसी दल में ले गए थे और धीरे-धीरे वे एक दिन उस दल के मुखिया तक बन गए थे।


अपनी यायावरी प्रकृति के ही कारण वे वहाँ भी अधिक दिनों तक न टिक सके थे और रानीगंज (बर्दवान) जाकर शीरशील गंज हाई स्कूल में 8वीं कक्षा में प्रविष्ट हो गए थे। वहाँ के राजा ने कृपा करके इनकी निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था कर दी थी। वहाँ इनकी शिक्षा तो निःशुल्क थी ही, इसके अतिरिक्त मुस्लिम होस्टल' में भोजन, वस्त्र आदि भी निःशुल्क मिला करते थे। इस पर भी इन्हें 7 रुपये मासिक छात्रवृत्ति भी प्राप्त हुआ करती थी। वहाँ वे अपनी कक्षा की परीक्षा में सर्वप्रथम भी आए थे। इसी छोटे नगर रानीगंज की ही एक अन्य पाठशाला में अपने सहपाठी और आगे चलकर बंगाल के सुप्रसिद्ध कहानीकार और उपन्यासकार के रूप में स्थापित हुए श्री शैलजानन्द मुखोपाध्याय इनके साहित्यिक मित्र बने और आजीवन तक रहे। वहीं निबारनचन्द्र घटिक भी इनके घनिष्ठ मित्र बन गए थे। एक बार परीक्षा के किसी पत्र में अनुत्तीर्ण हो जाने के कारण वे आसनसोल ही लौट आए थे। वे बाद में माथुरन हाई स्कूल में स्थानान्तरित कर दिए गए, जहाँ वे कवि श्री कुमुदरंजन मलिक के सुयोग्य निर्देशन में अध्ययन करते थे, किन्तु स्कूल की फीस न दे पाने के ही कारण वहाँ शिक्षा ग्रहण करना छोड़ कर कवियालों के एक दल में जाकर सम्मिलित हो गए थे।


वहाँ से नज़रुल एक बड़े रेलवे जंक्शन और कोयला-खानों के केन्द्रीय माने जाने वाले नगर आसनसोल चले गए थे। आरम्भ में तो उन्होंने रेलवेगार्ड-क्वार्टरों में घरेलू कामकाज किया था, किन्तु तदनन्तर वे एक प्रशिक्षु का काम त्यागकर आसनसोल में ही अब्दुल वहीद की बेकरी और टी-स्टाल में मात्र एक रुपए मासिक वेतन पर डबलरोटियाँ सेंकने वाली नौकरी करने लग गए थे। यह और बात है कि अपने कामकाज से अवकाश पाकर वे संगीत की गोष्ठियों और महफिलों में जाकर बाँसुरी भी बजाकर अपनी संगीतकला का यथासम्भव प्रदर्शन करते रहते थे। वे प्रथम विश्वयुद्ध (सन् 1914-1918) के दिन थे। पुलिस के सब-इंस्पेक्टर रफीकुल्ला इनकी संगीतकला से प्रभावित होकर इन्हें तब के बंगला देश में मैमनसिंह जिला के त्रिशाल में स्थित अपने गाँव लेकर चले गए थे। बर्तनिया शासन के ही शासक बंगाली लोगों को एक जुझारू जाति नहीं मानते थे और इसीलिए इन्हें आरम्भ में सेना में भर्ती के अयोग्य समझकर इन्हें भर्ती नहीं किया करते थे। यही देखकर नज़रुल 18 वर्ष की अवस्था में ही सन् 1917 में ही स्वतन्त्रय संग्राम की सफलता के ही दृष्टिगत सैनिक शिक्षा प्राप्त करने लग गए थे, क्योंकि देशप्रेम के भाव तो आरम्भ से ही इनकी शिराओं में तरंगित हो रहे थे। सन् 1917 में स्कूल के अन्तिम वर्ष में इन्होंने अपनी पढ़ाई छोड़ दी थी। फिर जाकर 'डबल कम्पनी' में अपना नाम लिखवा लिया था। वे 49वीं बंगाल रेजीमेंट के साथ नौशेरा (उत्तरपश्चिमी सीमान्त) भेज दिए गए थे। वहाँ से वे कराची छावनी प्रस्थान कर गए थे। वहाँ वे इस रेजीमेंट के टूटने तक अर्थात् सन् 1917 से सन् 1919 तक रहे थे। वहाँ वे एक कार्पोरल के निम्न पद से उन्नति करते हुए भारतीय कमीशनप्राप्त अफ्सर के रूप में एक हवलदार के उच्च पद तक जा पहुँचे थे। बर्तानवी सेना में सेवा करते हुए उन्होंने एक पत्रकार के रूप में भी अच्छा नाम कमा लिया था। इसके अतिरिक्त वे कराची की बैरकों में अपने सुशीलता, स्नेह, स्वच्छन्दताप्रिय स्वभाव और संगीतात्मक काव्य से अपने सहकर्मियों के मनों में प्राण फूँक दिया करते थे। एक पंजाबी मौलवी की सहायता से उन्होंने फारसी भाषा से सम्बद्ध अपने ज्ञान और समझ में पर्याप्त अभिवृद्धि कर ली थी। वहीं उन्होंने फारसी शाइर हाफिज की रुबाइयों का 'रुबाइयाते-हाफिज' नाम से एक अनुवाद करना आरम्भ कर दिया था, जोकि इनकी राजनीतिक व्यस्तताओं के कारण बडी देर से सन 1930 ई. में ही जाकर सम्पूर्ण कर के प्रकाशित करवा डाला था। इनका दूसरा अनुवाद 'काब्यापारा' सन् 1933 में और तीसरा अनुवाद 'रुबाइयाते उमरखैयाम' नाम से सन् 1959-60 में प्रकाशित हुआ था। अपनी भाषा में यदि वे रवीन्द्रनाथ ठाकुर और शरत चन्द्र चटर्जी के साहित्य से अतिशय प्रभावित थे, तो फारसी के कुछेक कवियों से भी अतिशय प्रभावित थे उदाहरणतः टैगोर का स्वर्गवास 8 अगस्त सन् 1941 ई. में हुआ था। नज़रुल ने इनकी सुमधुर स्मृतियों को अपनी दो विशिष्ट कविताओं में शब्दबद्ध किया था, जिनमें एक का शीर्षक था 'राबीहारा'। यह आल इण्डिया रेडियो से प्रसारित भी हुई थी।


मई सन् 1919 में इनकी सर्वप्रथम गद्य-रचना 'बाउडीलीयर आत्मकथा' प्रकाशित हुई थी। इन शब्दों का अर्थ है 'आवारा की आत्मकथा'। इनकी सुप्रसिद्ध कविता 'मुक्ति' जुलाई सन् 1919 में ' बंगला मुसल्मान साहित्य पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। ऐसी कविताओं के ही कारण इन्हें रैजीमेंट में 'काज़ी नज़रुल कवि' के नाम से ही जाना जाने लगा था। उस काल में अली अकबर ख़ाँ विशेष रूप से बाल-साहित्य के प्रकाशक के रूप में विशेष लब्ध प्रतिष्ठ थे। वे एक दिन 'मुस्लिम भारत' समाचार-पत्र के कार्यालय में पधारे और उन्होंने नज़रुल को अपना परम मित्र बना लिया था। उन्होंने उनसे न केवल उनकी एक विशेष नज़्म 'लीची-चोर' उन्हीं से प्राप्त कर ली थी, अपितु वे अपने साथ उन्हें भी पूर्वी बंगाल के गाँव दौलतपुर (तिपेरा जिला, अब हैड ऑफिस कोमिल्ला) कांदीपाड़ लेकर चले गए। मार्च-अप्रैल सन् 1921 में जब उन्हें कांदीर पार में स्थित जिस भव्य निवासस्थल में ठहराया गया, उसके स्वामी थे श्री इन्द्रकुमार सेनगुप्त और गृहस्वामिनी थीं उनकी पत्नी बिराजसुन्दरी। चूंकि इन्द्र जी के सुपुत्र श्री वीरेन्द्र कुमार सेनगुप्त अली अकबर खाँ के स्कूली समय के परम मित्र थे, इसीलिए उस घर में नज़रुल का आतिथ्य-सत्कार भी उनके मित्र के नाते ही किया जाता था। नजरुल ने बिराजसुन्दरी की प्रौढ़ावस्था और उच्चपद के अनुसार उन्हें 'माँ' शब्द से ही सम्बोधन करना आरम्म कर दिया था। उनके ही सम्बन्धियों में उनकी एक बहिन गिरिबाला देवी भी थीं। उनकी इकलौती सुपुत्री प्रमिला थी, जिसका घरेलू नाम दूली या दोलन था। वह उस समय केवल 13 वर्ष की अवस्था की ही थी। अभी दो मास ही बीते थे कि नज़रुल के कुछेक मित्रों को अप्रत्याशित रूप से नज़रुल के विवाह का एक निमन्त्रण-पत्र प्राप्त हुआ, जिसमें यह छपा था कि अली अकबर खाँ की विधवा बहन की बेटी नर्गिस बेगम के साथ नज़रुल का विवाह आगामी 17 जून सन् 1921 को हो रहा है। नज़रुल को साधारणतया अधिकतर कवियों के ही समान शीघ्रताप्रिय स्वभाव और अधिकतर अप्रत्याशित कार्य सम्पन्न करने वाले व्यक्ति समझा जाता था। एक तो नर्गिस निपट देहाती और अशिक्षित युवती ही नहीं, अपितु सामाजिक कार्यों और तौर-तरीकों से एकदम अनजान थी; दूसरे, निकाह वाले दिन अली अकबर ख़ाँ साहिब ने उनकी रचनाएँ स्वयं रख लेने और निकाह के बाद नज़रुल के वहीं दौलतपुर में ही रहने जैसी कठिन शर्ते रख दीं। अतः नज़रुल ने नर्गिस के सम्बन्ध में अपनी कुछ प्रेम-प्रवृत्ति होने पर भी अतिशय स्वाभिमानी और अहंवादी स्वभाव के कारण उसके साथ निकाह करने और एक घर-जमाई बनकर वहीं रहने से एकदम इन्कार कर दिया। इसके बाद वे दौलतपुर से कौमिल्ला ही लौट आए थे।


श्री अशोक कुमार 'यमन' ने अपने बृहद् ग्रन्थ 'संगीत-रत्नावली' में जो विचारव्यक्त किए हैं, वे इस प्रकार हैं, ''ये भारत में अंग्रेजी भाषा के कट्टर विरोधी थे। इसी कारण ये देश की स्वाधीनता के लिए सदा तत्पर रहते थे। अंग्रेज सरकार ने इनको 'सब-रजिस्ट्रार' के पद (पर' शब्द छूटा है) नियुक्त करना चाहा, लेकिन इन्होंने उसका बहिष्कार कर दिया और


धूमकेतु' नामक पत्रिका के साथ जुड़ गए। तदनन्तर वे और भी तीव्र गति से विद्रोही रचनाओं का प्रणयन करने लगे थे। इसका परिणाम यह हुआ कि अंग्रेज सरकार ने सन् 1923 में उनको गिरफ्तार कर लिया और एक वर्ष श्रम कारावास के लिए जेल भेज दिया। जेल से निकलने के बाद ये कृष्ण नगर नामक स्थान पर चले गए।


इनकी अनेक कविताओं और गीतों का संकेत स्पष्ट रूप में नर्गिस बेगम की ओर हुआ करता था। इसके बाद नजरुल कौमिल्ला में सेनगुप्त-परिवार की छत्रछाया में सन् 1921 में 18 जून से 6 जुलाई लगभग तीन सप्ताह तक रहे थे। इस प्रकार सेनगुप्त परिवार के साथ अपने निकटस्थ सम्बन्धों का ही रेखांकन वे अपनी नज्म 'रेशमी डोर' में इस प्रकार से करते हैं:-'तोरा कोथा होते केमने एशे मनीमालार मतो, आमार कण्ठे जड़ा ली। ”अर्थात् “तुम लोग कहाँ से आए हो और तुम लोग कैसे मेरे गले से मणिमाला की तरह से लिपट गए हो?'' इसी प्रकार 'स्नेहातुर' कविता भी उसी घर के पारिवारिक जनों के प्रति एक प्रकार से स्नेहांजलि कही जा सकती है। इस प्रकार यद्यपि नज़रुल ने अपने मस्तिष्कीय शून्य को भरने का यथाशक्ति कार्य किया था, तथापि घोर निराशा और टूटन का वातावरण ही इनकी असंख्य कविताओं का वर्ण्य विषय या प्रतिपाद्य रहा था। केवल अपवादस्वरूप इनकी एक कविता 'पलक' अवश्य देखी जा सकती है, जिसमें निराशावाद की अपेक्षा आशावाद का ही स्वर उभरता है। सामाजिक सुधारों से सम्बद्ध एक संस्था 'ब्रह्म समाज' से जुड़ी हुई एक हिन्दू युवती पूर्वकथित युवती प्रमिला से प्रेम हो जाने पर उसके साथ नज़रुल ने 24 अप्रैल सन् 1925 में विवाह कर लिया था। इससे वह और नज़रुल दोनों ही संस्था के कोप का भाजन बन गए थे, क्योंकि वह संस्था इसे अपने


धार्मिक-सामाजिक नियमों का घोर विरोध समझती थी।


काव्य में विद्रोह-भाव:


किसी अफ्रीकी कवि ने कभी लिखा था कि काव्य तो सदैव क्रोध या रोष की ही उपज हुआ करता है। (च्वमजतल इसवेेवउे वनज व िंदहमत'')। यह कथन यद्यपि किसी सीमा तक विवादास्पद हो सकता है, तथापि नज़रुल के काव्य पर लगभग चरितार्थ किया जा सकता है। इनके प्रकाशित नाटकों के नाम हैं:-1. चाशार शौंग 2. शौकुनी बोध 3. राजा युधीष्ठीर 4. दाता कोर्ना 5. अकबर बादशाह 6. कोबी कालिदास 7. बिद्यान होतुम (अर्थात् विद्वान् उल्लू) इत्यादि । इनके अतिरिक्त इनके ये नाटक भी विशेष प्रख्यात हुए थे:-1. आले आ (सन् 1925, 1931)



  1. मधुमाला (1959-60) 3. झली मली (1930)। इनका गीत 'भृंगार गान' इसी सन्दर्भ में विशेषकर ध्यातव्य है। इसमें इनका यही युयुत्सु और जुझारू तेवर रेखांकित हुआ है। वे कहते हैं कि:-''कारार ओई लौह कपाट, भेंगे फेल कार-रे लोपाट, रक्त जामात सिकाल पूजार पाषाण-वेदी।'-भावार्थ यह है कि ''इस बंदीखाने के लोहे के द्वारों को तोड़ डालो, रक्त से स्नात पत्थर की वेदी को पाश-पाश कर दो, जोकि मात्र बेड़ियों के देवता की पूजा के लक्ष्य से ही खड़ी की गई है।''


उस कविता की यह पंक्ति विशेष रूप से जनता को कण्ठस्थ हो चुकी थी:-“बॉलो, वीर, बॉलो ! उन्नत मम शीर,,,,''- अर्थात् “बोलो, ओ वीर बोलो कि मेरा सिर उन्नत है !''


श्री वारीन्द्र कुमार घोष ने अपने सम्पादकत्व में प्रकाशित होने वाली साप्ताहिक पत्रिका 'बिजली' में महाकवि नज़रुल से सम्पर्क स्थापित करके उनकी इसी कविता को प्रकाशित कर दिया था। जनसाधारण ने इस कविता को महात्मा गांधी जी के असहयोग आन्दोलन से जोड़ कर देखा और पत्रिका के उस अंक को पाठकों आदि की प्रबल माँग की पूर्ति-हेतु पुनः प्रकाशित करना पड़ा था। जब नज़रुल ने गुरुवर रवीन्द्रनाथ ठाकुर के सामने उपस्थित होकर स्वयं इस कविता का पूरा पाठ किया, तब उन्होंने उनके भावी काल के प्रति उन्हें हार्दिक आशीर्वाद दिया, जिससे वे रातोंरात जनता में और भी अधिक प्रसिद्ध एवं लोकप्रिय हो गए थे।


सन् 1922 में नज़रुल ने साप्ताहिक पत्रिका 'धूमकेतु' का प्रकाशन करना प्रारम्भ कर दिया था। इससे पत्रिका निकालने की उनकी एक पुरानी इच्छा की पूर्ति हो गई थी। पत्रिका का प्रवेशांक 12 अगस्त सन् 1922 को सर्वश्री रवीन्द्रनाथ ठाकुर, शरतचन्द्र चटर्जी, वारीन्द्रकुमार घोष इत्यादि सम्मान्य विभूतियों की शुभ कामनाओं के साथ प्रकाशित हुआ था। इसकी ये पंक्तियाँ विशेष रूप से उल्लेख्य थीं:-''जागिये दे रे चमक मेरे, आछे जारा अर्द्ध-चेतन !”-अर्थात् “जो जन अब भी अर्द्धचेतन या


आधे जागे हुए हैं, उनको चमक मारते हुए जगाओ !”


नज़रुल रूस की क्रान्ति और रूसो के सिद्धान्त ''स्वतन्त्रता, समानता और भ्रातृत्व” से अत्यधिक प्रभावित थे। 16 जनवरी सन् 1923 ई. में उनकी कैद के ही कारण 'धूमकेतु' का प्रकाशन बन्द कर देना पड़ा था। 'धूमकेतु नाम से ही उनके एक


निबन्ध-संकलन का प्रकाशन सन् 1961 में हुआ था। इससे पूर्व जब नजरुल ने 'नौजूग (=नवयुग) नाम से भी एक पत्रिका निकाली थी, तब तक वे अपनी क्रान्तिकारी पत्रकारिता के कारण बंगाल की कम्युनिस्ट पार्टी के मुखिया बन चुके थे। यौवन में ही वे इस राजनीतिक दल के एक अग्रणी मुजफ्फर आमेद से अपना सम्पर्क स्थापित कर चुके थे। सन् 1922 में भी उन्होंने 'जूग बानी' (=युगवाणी) नाम से एक पत्रिका प्रकाशित करनी प्रारम्भ कर दी थी। उनकी व्यापक लोकप्रियता का एक प्रमाण यह भी है कि हिन्दी भाषा और काव्य के प्रमुख और लोकप्रिय महाकवि श्री सुमित्रानन्दन पन्त जी ने भी अपने एक कविता-संग्रह का यही नाम 'युग-वाणी' रखा था। बर्तानिया सरकार उनकी ऐसी ही क्रान्तिकारी गतिविधियों और रचनाओं से अतिशय कुपित थी और इन्हें बार-बार जेलों में भेजती रहती थी। जनवरी सन् 1923 में 40 दिनों तक जेल में उन्होंने भूख-हड़ताल तक की थी। जब सम्मान्य टैगोर ने इन्हें स्वयं एक पत्र लिख कर अनशन का त्याग करने के लिए प्रार्थना की, तब भी वे न माने, किन्तु एक दिन जेल में अपनी पूज्य माता जी के आकर उपस्थित हो जाने पर ही उन्होंने अपना वह अनशन समाप्त किया था। एक बार तो नेताजी श्री सुभाषचन्द्र बोस ने भी जेल में ही बैठकर उनके क्रान्तिकारी भावों की प्रशंसा करते हुए ये शब्द कहे थे, “हम जैसे इंसान, जो संगीत से दूर भागते हैं, हमारे अन्दर तक भी एक जबरदस्त जोश जाग रहा है कि हम भी नज़रुल की तरह गीत गाने लग जाएँगे। अब आगे से हम लोग 'मार्च-पास्ट' के वक्त ऐसे ही गीत गाया करेंगे। इनके गीत सुनने और गाने से तो हमें यह कैद भी कैद महसूस नहीं होती है।''


15 दिसम्बर सन् 1923 को जेल की 11 मास की कैद समाप्त करके ये बाहर आए थे। उन्होंने वहाँ जेल में रहकर असंख्य गीतों और कविताओं की रचना की थी। उदाहरणतः 'सुपेर बन्दना' (सुपेर अर्थात् 'सुपरिंटेंडेंट की प्रार्थना') इनकी एक व्यंग्यपरक कविता थी।


इनका जो दूसरा गीत जनसामान्य को उन दिनों कण्ठस्थ हो चुका था, वह इन पंक्तियों से प्रारम्भ होता था, “एई शिकलपोरा छल आमादेर शिक-पोरा छल।-इस पंक्ति का भावार्थ यह था कि जो बेड़ियाँ हमने पहनी हैं, वे तो मात्र एक छल और दिखावा भर ही हैं, क्योंकि वास्तव में इन्हें धारण करके तो हम निर्दयियों को एक कठिनता में ही डाल देंगे।''


12 अगस्त सन् 1922 से स्वयं प्रारम्भ की गई पत्रिका


'धूमकेतु' में नज़रुल ने अपने लिखित सम्पादकीयों में जो विभिन्न टिप्पणियाँ लिखी थीं, वही आगे चलकर इनके कविता-संग्रहों यथा 'अग्निबीना' (सन् 1922), निबन्ध -संकलनों यथा दुर्दिनेर जात्री' (1938) और 'रुद्र मंगल' संग्रहों में भी संकलित हुई थीं। इसी पत्रिका की अन्य रचनाएँ भी इन्हीं के 'वशीर बंसी' और 'भंगारन' में भी सम्मिलित हुई थीं। उसके बाद सरकार ने इन रचनाओं को अवैध घोषित कर दिया था। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद तो वे साहित्य और संगीत के साथ पूरी तरह से जुड़ गए थे। यद्यपि दूसरी ओर, इनकी आर्थिक दशा बहुत हीन चल रही थी, तथापि स्वातन्त्र्य संघर्ष की गतिविधियों में रंच मात्र कमी नहीं आने पाई थी। सन् 1924 ई. में सारा बंगाल एक ओर महात्मा गांधी जी के असहयोग आन्दोलन के पृष्ठपोषण में व्यस्त था; दूसरी ओर, नज़रुल के राजनीतिक गीत और कविताएँ अतिशय लोकप्रिय हुई जा रही थीं। उदाहरणतः उनके 'मरन मरन' गीत की प्रथम पंक्ति ही अवलोकनीय है:- ”एशो एशो ओगो मरन!“-अर्थात् “आओ, तुम मृत्यु, आओ !''वास्तव में ऐसा कहकर वे जनता को देश की स्वाधीनता की शीघ्र प्राप्ति हेतु प्रेरित ही कर रहे थे। इसके बाद भी लिखी कुछेक रचनाओं में इनके निजी जीवन के प्रतिबिम्ब देखे जा सकते हैं। यथा वे 'दुपहिर अभिसार' रचना में कहते हैं ”-जाश कोथा शोई एकेला ओ तुई अलस बैसाखे ?“10. ''अरी मेरी प्रिया ! तू कहाँ जा रही है। अकेली ही इस अलसाए बैसाख में ?''


लखनऊ पैक्ट में कांग्रेस और मुस्लिम लीग दोनों राजनीतिक दलों की कृत्रिम राजनीतिक और राष्ट्रीय एकता पर व्यंग्य करते हुए उन्होंने तब एक गीत लिखा था 'बदना गाडूर पैक्ट''। इसमें वे कहना चाहते थे कि ख़िलाफत आन्दोलन के कारण से हिन्दुओं और मुसलमानों की एकता केवल दो दिनों की चांदनी की तरह से स्थायी न होकर केवल एक सामयिक चेष्टा भर ही है। उन्होंने 40 कोटि भारतीयों को चेतावनी देते हुए स्पष्ट रूप में यह लिखा था कि, “चालीस कोटि मनुष्य हम भारतवासी भिन्न-भिन्न बने, ढाओं ढाओं बसे पराधीन खो दी आजादी।'-अर्थात् हम भारतीय जन 40 करोड़ की संख्या में हैं, किन्तु हम सभी जन भिन्न-भिन्न स्थानों पर निवास करते हैं और अलग-अलग मत रखते हैं। इसी के कारण गुलाम भी हैं और फलस्वरूप हमने अपनी स्वतन्त्रता गँवा डाली है।” इसी प्रकार वे सभी प्रकार के दंगों-फसादों का समाधान बताते हुए अपने देश के निवासियों को यह उपदेश भी करते थे, कि 'फिर एक बार हम संगठित होवें, जाति, धर्म, भेद-भाव भुला देवें, तो शान्ति,साम्य,अन्न,वस्त्र,पुण्य सभी कुछ पावें ।'-अर्थात् हम सभी को एक बार पुनः परस्पर संगठित हो जाना चाहिए। जातियों, धर्मों और धार्मिक मतभेदों को भुला दें और शान्ति-सुखचैन के साथ इस प्रकार से हम सब समानताओं, अन्न, वस्त्र आदि फिर से प्राप्त कर सकते हैं।


नज़रुल ने अपने चारों बेटों के ये जो नाम रखे थे, वे उनकी राष्ट्रीय एकता और धार्मिक सद्भावना के ही अकाट्य प्रमाण माने जाएँगे-1. कृष्ण मुहम्मद 2. अरिन्दम (।तपदकंउ) (अरिन्दम' शब्द का संस्कृत भाषा में अर्थ है शत्रु को विजय करने वाला) 3. सव्यसाची (ैंअलं ैंबीप) (संस्कृत भाषा में अर्थ है अर्जुन)। 4. अनिरुद्ध (संस्कृत भाषा में अर्थ है भगवान् श्रीकृष्ण का पोता और उषा का पति ।)।


वे हिमालय पर्वत को निर्दय और क्रूर अंग्रेज शासकों का प्रतीक बनाते हुए यह लिखकर अपनी जवाँमर्दी और दिलेरी का ही प्रमाण देते हैं:-''बोल वीर क्रान्त सिर शिखर हिमाद्रि ने किया नत अपना देख उन्नत मेरा सिर अर्थात् ऐ वीर ! अपने सिर को ऊँचा कर और बता मुझे कि हिमालय की चोटियों ने भी क्या अपना उच्च सिर आज तक कभी भी झुकाया है ? कहने का आशय यही है कि कभी भी नहीं झुकाया है। अतः तुम वीरों को भी अपना उन्नत सिर कदापि नहीं झुकाना चाहिए।


नज़रुल की परवर्ती कविताओं में विवाह वाली पुरानी दुर्घटना की प्रतिध्वनियाँ बार-बार सुनी जाती रही हैं। आगे चलकर भी नर्गिस बेगम उनसे सम्पर्क स्थापित करने की असफल चेष्टाएँ करती रही, किन्तु उन्होंने उसके अन्तिम पत्र का अस्वीकारात्मक उत्तर दे डाला था। इसके साथ ही 1 जुलाई सन् 1937 की ही तिथि को एच.एम.वी. (भ्ण्डण्टण्) कम्पनी के रिकार्ड के लिए जिस गीत की विशेष रूप से रचना की थी, उसकी सर्वप्रथम पंक्ति में ही उनके विगत प्रेम का निजी संस्पर्श अवलोकनीय था-''जार हाथ दिये माला, दिते पारो नाईं/कैनी मने राखा तारे ? भूले जाओ तारे, भूले जाओ, एके बारे ! -अर्थात् जिसके हाथ में माला देकर भी तुम दे न सके थे, उसे क्यों याद रखते हो उसको भूल जाओ, भूल जाओ एकदम !


कोमिल्ला में निवास करते हुए नज़रुल ने महात्मा गांधी के असहयोग आन्दोलन से उत्थापित एवं प्रेरित होकर असंख्य कविताओं और गीतों की रचना करके अतिशय लोकप्रियता प्राप्त कर ली थी। उन्होंने गांधी जी का अभिनन्दन इन शब्दों के


द्वारा किया था-''ए कोन पागल पथिक छोटे एलो बंदिनी मार आंगिनाये। त्रीस कोटि भाई मरण हरण गान गेये तार संगे जाए।“  अर्थात् पराधीन माता के आंगन में भला यह कौन पगला पथिक दौड़ता ही चला जा रहा है ? उसके पीछे उसी के तीस करोड़ भाई भी उसके साथ ही मौत को चुनौती देते हुए गीत गाते हुए चले जा रहे हैं !


नज़रुल गांधी जी के असहयोग आन्दोलन में 'स्वराज' (ैूंतंर त्र ेमस िळवअमतदउमदज) के मत से पूर्णतः सहमत न थे, क्योंकि वे उसके स्थान पर प्राचीन नियमों और सिद्धान्तों की ही शिक्षा देने को वरीयता प्रदान करते थे। इसी सन्दर्भ में उनका यह वक्तव्य विशेषतः द्रष्टव्य है, ''राजबन्दीर जबानबन्दी” का लक्ष्य स्पष्ट है। गांधी जी जिसे 'दुष्ट सरकार' कहते थे, उस सरकार की और अधिक वैध और सामूहिक उपकरणों से खुली भर्सना करना ही आज उद्दिष्ट है। एक कवि मूलतः ईश्वर की एक ऐसी चुनी हुई आवाज हुआ करता है, जो सदैव यथार्थ और सत्य बात का ही पृष्ठपोषण किया करती है। वह ईश्वर और न्याय का पक्ष-ग्रहण करती है और सभी घृण्य वस्तुओं को नष्ट-भ्रष्ट करने का एक उपकरण या साधन है।'' उर्दू के शाइर फैज अहमद फैज' ने भी जेल की कैद काटते हुए विदेशी शासन के विरुद्ध जबानबन्दी की आपत्ति करते हुए कहा था-1. ''मताए लौहो-कलम छिन गई, तो क्या गम है/कि खूने-दिल में डुबो ली हैं उँगलियाँ मैंने/जबाँ पर मुहर लगी है तो क्या, कि रख दी है/हरेक हल्कए जंजीर में जबाँ मैंने।''


इससे आगे भी वे आध्यात्मिक, दैवी और अतिप्राकृतिक शक्ति में अपनी आस्था ज्ञापित करते हुए कहते थे कि, “मुझे स्पष्ट रूप में यह पता चल गया है कि मैं सांसारिक विद्रोह करने के लिए ही उस ईश्वर का पठाया हुआ एक लाल सैनिक हूँ। सत्य की रक्षा और न्याय की प्राप्ति के हेतु मैं एक सैनिक भर हूँ। उस दिव्य परम शक्ति ने मुझे बंगाल की इस हरी-भरी धरती पर, जोकि आजकल किसी वशीकरण से अभिभूत है, मैं तो मात्र एक साधारण-सा सैनिक भर ही हूँ और उसी ईश्वर के सभी निर्देशों की पूर्ति करने के लिए मैंने कुछ यथासम्भव चेष्टा ही की है।''


अग्रलिखित तीन राष्ट्रीय गीतों में भी नजरुल के क्रान्तिकारी और विद्रोही विचारों को रेखांकित देखा जा सकता है।



  1. दुर्गम गिरि कान्तार मरु दुस्तर पारावार,


लांघिते हॉबे रात्रि निशीथे, यात्रिरा हुँशियार।


अर्थात् दुर्गम पर्वत, विकट मरुस्थल और सागर फैले हुए हैं। रात के गहरे अन्धकार में उन्हें फिर से पार करना होगा, यात्रियो , सावधान !''



  1. नजरुल ने एक छात्र-सम्मेलन का उद्घाटन करते समय एक कोरस-गीत का भी नेतृत्व किया था। उन्होंने उस प्रयाण-गीत को स्वयं भी गाया था, जिसकी आरम्भिक पंक्ति बहुत ही प्रेरक थी -''आमरा शक्ति आमरा बल, आमरा छात्र-दल !”-अर्थात् छात्रों का समूह ही हमारी पूरी शक्ति या बल है।


एक अन्य सामूहिक प्रयाण-गीत (डंतबीपदह ैवदह) की शैली में ही रचा गया था- ''चल, चल रे, ऊर्ध्व गगने बाजे मादल, निम्ने


धरनी तल, अरुन प्रान्तेर तरुन दल! चल रे, चल रे, चल ! अर्थात् चलो, चलो, आकाश पर ढोल बज रहे हैं, नीचे धरती कम्पायमान हो रही है। समय उषा काल के युवको ! आगे, आगे और आगे बढ़ो !” नज़रुल ने नवनिर्मित बंगला देश के लिए जो राष्ट्रीय गीत रचा था, वह अब 'चल, चल, चल नाम से ही विश्वजनीन हो चुका है।


संगीत में प्रवीणता:


नजरुल प्रारम्भिक काल से ही काव्य से कहीं अधिक संगीतकला की ओर प्रवृत्त थे और उनकी इस रुचि को उनके ग्राम के शास्त्रीय संगीत के प्रकाण्ड विद्वान् शितीशचन्द्र कांजीलाल ने विशेष रूप से और भी


अधिक पुष्पित-पल्लवित किया था। इनको हारमोनियम, ढोलक और तबला बजाने में विशेष महारत थी। वे स्वयं इन वाद्य-यन्त्रों का वादन करते हुए साथ ही गान भी किया करते थे। उन्होंने लगभग 4 हजार गीतों की रचना की थी।



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