नवजागरण और उर्दू अदब (संदर्भ 1857)

उर्दू भाषा में विद्रोह के तेवर उसके शुरुआती दौर से आज तक बरकरार हैं। इसके कारण क्या हो सकते हैं। इस पर शोध किया जा सकता है फिलहाल हम उस जागरूकता की यहाँ चर्चा करेंगे जिसने उर्दू भाषा के कवियों को 'शह आशोब' (नज़्म की एक ऐसी क़िस्म जिसमें राज्य की कुव्यवस्था, शासक की कमजोरियों एवं प्रजा की दुर्गति का वर्णन होता है) लिखने के लिए प्रेरित किया। उर्दू भाषा दरबारों से निकल कर बाजार की जबान जल्द ही बन गई। या यूँ कहा जाए कि इन्सान की जिस जरूरत ने विभिन्न भाषाओं के शब्दों से मिल कर बाजार में एक भाषा को जन्म दिया था वह दरअसल एक लम्बी यात्रा हिन्दुस्तानी फौजी कैम्पों और बाजारों से करती 'शोरफा' तक पहुँची जो अपनी सृजनात्मक ऊर्जा के चलते उसको माँज और निखार कर अदबी महफिलों से होकर दरबार तक पहुँची मगर उर्दू दरबारों की रौनक बन कर भी अपने जन्म स्थल को नहीं भुला पाई और न अपने को प्रजा से जुदा कर पाई। उसकी


धमनियों में बहता खून सुर्ख और गर्म था! जिसमें कई संस्कृतियों एवं इलाकों की तपिश मौजूद थी ! फौजियों द्वारा जन्मी यह भाषा अपने रंगे रेशों से न विद्रोह के तेवर खत्म कर पाई न वह जोश खरोश और कर्तव्यबोध जो योद्धाओं के सीने में तूफानी घटा बन उमड़ता घुमड़ता रहता है।


उर्दू भाषा के द्वारा नवजागरण का पहला ऐतिहासिक दस्तावेज कवियों द्वारा कागज पर दर्ज हुआ जिसके पढ़ने के बाद हमको महसूस होता है कि उर्दू के क्लासिक कवियों ने जो भी आलोचना या निन्दा अपने समय के प्रशासन या व्यवस्था में की वह संकेत में है। उसके कई कारण हो सकते हैं पहला, उस समय सृजन में संकेत ही


महत्वपूर्ण भूमिका निभाता हो और अभिव्यक्ति में अनुशासन का होना अनिवार्य समझा जाता हो। दूसरे वह दौर आज की तरह राष्ट्रवाद और वतनपरस्ती को लेकर इतना जागरूक न हो और भाषा ने इतनी व्यग्र शब्दावली को जन्म न दिया हो या फिर लोग इतने संवेदनशील थे कि संकेत की चुभन को खंजर के घाव की तरह गहरे सहने की क्षमता ही नहीं सूझबूझ रखते हों। कारण कुछ भी तलाश किया जा सकता है मगर हमारे लिए


महत्वपूर्ण वह सामाजिक चेतना है जो किसी भी रूप से पहली बार दर्ज हुई हो। इस तरह से हम देखते हैं कि सांकेतिक भाषा में लिखी सबसे पुरानी रचना 'राजा राम नारायण मौजू' की है। यह शेर उन्होंने नवाब सिराजुद्दौला के देहान्त पर कहा थाः


ग़ज़ाला तुम तो वाक़िफ हो कहो मजनंू के मरने की


दिवाना मर गया आखिर तो वीराने पे क्या गुजरी। ?


दूसरा नमूना शाहमुबारक आबरू का देखें:


जब ज़माना है बेतरह बिगड़ा


क्या बने रोज़गार की सूरत


उसी दौर में कुछ कवि ऐसे भी थे जिन्होंने आलोचना का तीखा स्वर अपनाने का जोखिम उठाया है। जिसमें उस समय की आर्थिक खस्ताहाली और सियासी बेचैनी साफ़ झलकती है। ऐसे कवियों में हातिम, सौदा, मीर, कायम, जाफर अली, हसरत, कमालुद्दीन कमाल आदि हैं। अब्दुल हई तांबा ने देश के बहुमूल्य सिंहासन के छिन जाने पर अपना रोष एवं दुःख खुल कर व्यक्त किया था:


दाग़ है हाथ से नादिर के मेरा दिल तांबा


नहीं मक़दूर कि जा छीन लू तख़्तेताऊस


इस दौर के कवियों के शह आशूब का जब हम अध्ययन करते हैं तो हमें साफ़ पता चलता है कि यह गमे जाना को अपनी सलाहियतों से गमे जमाना में बदल देते हैं और पढ़ने वाला महसूस करता है कि यह उसकी भावना की ही तर्जुमानी है। सौदा के शह आशूब में मुगल साम्राज्य का पतन, दरबारियों और मंसबदारों की बदहाली, प्रजा में फैली असंतोष की भावना और गरीबी से त्रस्त उनका जीवन किस खूबी से झलकता है। उन्होंने घोड़े पर जो 'हिजो' (निन्दा) लिखी है वास्तव में उस दौर की हुकूमत पर गहरा कटाक्ष है। उनकी दूसरी नज्म और भी दिलचस्प है जिसमें उन्होंने एक फकीर की जबानी राज प्रणाली बताई है। उन्होंने न केवल शासन नियमावली पर बल्कि स्वयं बादशाह पर भी गहरे कटाक्ष किये हैं। यही रंग मीर के यहाँ भी झलकता है जिसमें सामाजिक एवं सियासी स्थिति के उल्लेख के साथ बादशाह पर गहरी छींटाकशी मौजूद है। अपने समय के आर्थिक विखराव पर भी उनकी तीखी प्रतिक्रियाएँ दर्ज हैं:


हैं सिपाही, जो भूखे मरते हैं,


लहू पी पी के जीस्त करते हैं।


एक तलवार, पीछे एक ही ढाल।


न बैठ अब अमीरों की सोहब्त में मीर


हुए हैं फ़़क़ीर इनकी दौलत से हम


क्या कहिये अपने अहद में जितने अमीर थे


टुकड़ों पे जान देते थे सारे फक़ीर थे।


यह रंग हमको अब्दुल हई तांबा के शेरों में नजर आता है जो समाजशास्त्र की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं जिनमें हालात के बयान के साथ इतिहास के उस कालखण्ड का भी जिक्र हमको मिलता है जब समय ने करवट बदली और राजा रंक में परिवर्तित हो गए। उस दौर में कब किसी ने सोचा था कि मुगल शहजादियाँ अपनी पहचान छुपा कर लोगों के घरों का खाना पकायेंगी और जब घर की मालकिन उनको नपा तुला खाना देंगी तो वे अपनी रुलाई रोकने के लिए दुपट्टा मुँह में ठूँस लेंगी।


फ़र्श पर मखमल के जो सोते थे हाय!


अब नहीं होता मयस्सर उनको टाट।


दूसरा शेर विदेशी सत्ता पर गहरी चोट करता है: 


घर के घर ख़ाक में मिलते हैं फ़लक के हाथों


पर नहीं उसकी ख़राबी के कुछ आसार हनूज


ये सारे शेर अपने मतलब और बयान में आज भी ताजा और समसामायिक लगते हैं। कवि कायम ने जमाने का सितम केवल देखा नहीं था बल्कि झेला भी था। उनका अपना घर तबाही की आग में जल कर खाक़ हो गया था। उनके दिल से निकले उद्गार किसी कलात्मक संकेत के मोहताज न थे। उन्होंने अपनी बर्बादी का जिम्मेदार शासन और शासक को माना और बिना किसी लाग-लपेट के उन्होंने बादशाह को खरी खोटी सुनाई:


कैसा ये शह कि जुल्म पे उसकी निगाह है


हाथों से उसके एक जहाँ, दादख्वाह है।


ये एक आप, साथ में सारी सिपाह हैं


नामूसे-ख़ल्क साए में उसके तबाह है।


शैतान का ये जिल 1 है न जिल्लेइलाह 2 है।


उस समय क़ायम की यह बेबाक बयानी पसंदीदा नजरों से 'कला' की दृष्टि से नहीं देखी गई थी। जिसमें दुःख और क्रोध का सीधा सपाट बयान था। जाफ़र अली हसरत के यहाँ कायम की तरह सीधी मुठभेड़ नहीं है। बल्कि बदलते सियासी परिदृश्य में देश की गिरती साख की गहरी पीड़ा है जो उनके आत्म सम्मान को ठेस पहुँचाती है:


जो बादशाह का वहाँ रकखे था तख़्तो ताज


वह अपनी कूृवते इतफाल का हुआ मुहताज


खुदाई है जिसे देता था सारा हिन्द खेराज 3।


गनीम आन के ले उससे उसके शहर से बाज


वे शक्ल है कि करे शेर को शिकार शग़ाल


शाह कमालुद्दीन कमाल के शहआशूब में 'शाह आलम' के दौर को केवल अपनी आलोचना का शिकार नहीं बनाया बल्कि अंग्रेजों को भी जी भर कर लपेटा है। इसमें कोई शक नहीं था कि शाह आलम न केवल सियासी समझ रखते थे बल्कि धार्मिक भी मगर वह यह भी समझते थे कि आर्थिक ढाँचा जब किसी देश का चरमरा जाता है तो लाख समझदारी और हजार कोशिशों के बाद उसको एकाएक संभाला नहीं जा सकता है। शाह औरंगजेब के देहान्त के बाद मुगल साम्राज्य बिखरना शुरू हो गया था। आसपास के इलाके से विद्रोही शक्तियाँ पर उठाने लगीं थीं। अमीर व ओमरा अपना दबदबा खो चुके थे। आर्थिक व्यवस्था के खराब होने के कारण कोई भी योजना चलाना और नए सिरे से कार्यान्वित करना जहाँ कठिन था वहीं स्थिति को संभालना मुश्किल था। उसी दौर पर लिखी कमाल की यह शह्रआशूब के कुछ नमूने हैं:


वजीरो शाह जो हैं उनके मुल्क का है ये ढंग


कि अपने बख्त से रहती है उनको नित आठ जंग


वज़ीर तो हैं गिरफ्तार याँ बेकैदे फिरंग


सिख और मराठों ने वां पर किया है शाह को तंग


नहीं रहा है कुछ इक़बाल उनका जुज अदबार है


वहीं ये शह्र है और है वहीं ये हिन्दुस्तां


कि जिसको रश्के जहाँ जानते हैं सब इन्साँ


फिरंगियों की सौ कसरत से होके सब वीराँ


नज़र पड़े है बस अब सूरते फिरंगिस्ताँ ।


नहीं सवार रहे याँ सिवाए तुर्क सवार ।


जहाँ कि नौबतो शहनाई, झाँझ की थी सदा


फिरंगियों का है उस जा पे, टप टप अब बजता


इसी से समझो, रहा सल्तनत में, क्या रूतबा ।


हो जबकि महल सराओं में गोरों का पहरा


न शाह है न वज़ीर, अब फिरंगी है मुख्तार


अवध की हिन्दू - मुसलमान एकता और गंगा - जमनी


संस्कृति अंग्रेजों की आँखों में काँटे की तरह चुभने लगी, विशेषकर तब जब दोनों ही समुदायों की अभिव्यक्ति का स्रोत इकलौती भाषा उर्दू थी। इस एकता की दीवार में उनकी कूटनीति ने सेंध लगाना शुरू कर दिया। आसिफद्दौला के बाद तख्त के हकदार वजीर अली खां थे मगर साअदत अली खां ने अंग्रेजों से मिलकर उनके विरोध में षड्यंत्र किया और आसिफद्दौला ने खून बहाने की जगह जिलावतनी मंजूर की। इस तबाही पर कवि जुर्रत ने कहा:


समझे न अमीर उनको अहले तौक़ीर


अंग्रेजों के हाथ से क़फस में है असीर


जो कुछ वह पढ़ाएं वही मुँह से बोले


बंगाल की मैना है ये योरूप के अमीर


कवि मुसहफी का यह शेर भी बहुत महत्वपूर्ण है जो वास्तव में अंग्रेजों द्वारा किये गये हमारे शोषण की सच्ची तस्वीर है:


हिन्दोस्ताँ की दौलतो हशमत जो कुछ कि थी


काफिर फिरंगियों ने बतदबीर खींच ली


लानत है ऐसे सिक्के और ज़र चलाने में


सर कम्पनी का कट के बिका सोलाह आने में


क्या सस्ती क़ीमत हो गई टप्पे की राह की


दो पैसे मंडी बिकती है, लन्दन के शाह की


इन शेरों में कवियों ने जिस तरह जनता की भावनाओं की अक्कासी की है उससे साफ झलकता है कि घोर अंकुश में भी उनके अन्दर उबलता घृणा और तिरस्कार का लावा कितना


धधक रहा था। जब जनता को अपनी आवाज की प्रतिध्वनि कवियों के मुँह से सुनने को मिली तो उनके मन में लालसा उभरी कि कोई मंच ऐसा मिले जहाँ वह सरल और सीधी भाषा में अपने विचारों का आदान-प्रदान कर सकें। उनकी सियासी चेतना को एक सुनहरी पगडंडी नज़र आई। उधर सृजनकर्ता भी सोचने लगे कि खाली नज़्म से काम नहीं चलेगा। समस्या को खोल कर उन लोगों को समझाना पड़ेगा जो गुलामी की जिन्दगी में बुरी तरह पिस रहे हैं। संकेत तक रुकने की गुंजाइश बाकी नहीं रह गई है बल्कि ऐसी सूचनाएँ देने का समय आ गया है कि वे अपने और अपने देश के बारे में जाने। उनमें जागरूकता आयेगी तो सियासी समझ बढ़ेगी और उनके अन्दर सोया पड़ा वतनपरस्ती का जज्बा गहरी नींद से जाग उठेगा और इस तरह बगावत में सारा हिन्दुस्तान हम ज़बान और हम ख़्याल हो कर अंग्रेजों के शोषण के खिलाफ़ पूरी मुस्तैदी से बढेगा। सच भी था कि जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो। इस तरह नवजागरण का यह सामाजिक एवं सियासी दौर अपने दूसरे चरण में प्रवेश करता है। इस तरह से उर्दू का पहला अखबार 1823 में निकला और मुगल साम्राज्य के समाप्त होते-होते छोटे बड़े अखबारों की झड़ी लग गई और समाचारों की संख्या बढ़ते-बढ़ते पैंतालीस के लगभग पहुँच गई थी।


अब्दुल रज्जाक कुरैशी ने अपनी पुस्तक 'नवाए आज़ादी' के पहले अध्याय में 'तारीखे सहाफते' उर्दू (पन्ना 296) नामक पुस्तक से यह वाक्य कोट करते हुए लिखा है कि हिन्दुस्तान के समाचार पत्रों में उर्दू के अखबारात पूर्ण रूप से स्वतंत्र थे। वे न केवल स्वतंत्र विचार रखते थे बल्कि अपनी बातें निडर होकर कहते थे। विदेशी सत्ता विरोध में विद्रोही भावना जितनी उभार सकते वह उन्होंने पाठकों के मन में उभारी। जो विरोध 1857 में भारतीयों ने अंग्रेज सत्ता के ख़िलाफ किया था उसकी


अधिकतर जिम्मेदारी मिस्टर गारसाँद इतासी ने इन्हीं अखबारों के सर पर डाली थी।


“उस ज़माने में तीखे तेवर वाले दो ही अखबार थे पहला 'सादिकुल अखबार' दूसरा देहली उर्दू अखबार जिनके सम्पादक को इस जुर्म में कि वह सरकार की बदख्वाही की खबरें झूठ गढ़कर लिखा करता था तीन बरस की कैद हुई। (बगावते हिन्द पन्ना 358)


बहादुरशाह जफर के मुकदमे के एक सरकारी गवाह चुन्नीलाल का बयान है कि... “जमालुद्दीन एक साप्ताहिक अखबार निकालता था जिसके लेख पूर्ण रूप से अंग्रेजी साम्राज्य के ख़िलाफ होते थे। इस अख़बार का नाम सादिकुल अखबार था।'' (मुकदमा बहादुरशाह जफर पन्ना 70 बा हवाले तारीखे सहाफते उर्दू पन्ना 196)


''देहली उर्दू अखबार में हिन्दुस्तानी रियासतों और देहली के दरबार की खबरों के साथ उनकी बदइन्तेजामियों पर बड़ी गंभीर टिप्पणियाँ की जाती थीं। इसका सम्पादक बुराई के खिलाफ आवाज उठाना अपना कर्तव्य समझता था और अमीर गरीब, हिन्दू, मुसलमान और सिक्ख के बीच कोई भेद नहीं रखता था।'' (तारीखे सहाफते उर्दू पन्ना 108)


इन दोनों आन्दोलनकारी अखबारों के सम्पादक मोहम्मद बाकर थे जो मोहम्मद हुसैन आजाद के पिता थे। जब देहली पर अंग्रेजों का दोबारा कब्जा हुआ तो मोहम्मद बाक़र को सूली पर चढ़ा दिया गया था। आज़ाद के नाम भी वारन्ट जारी हो चुका था मगर वह किसी तरह बच बचाकर भाग निकलने में कामयाब हुए। इसमें कोई शक नहीं कि उर्दू में लिखने वाले कवि, लेखक, पत्रकार अपनी जान की परवाह किये बगैर आज़ादी हासिल करने के लिए कलम चला रहे थे। उनका एक ही लक्ष्य था कि वे अपनी जान कुर्बान करके किसी तरह देशवासियों के अन्धेरे दिमाग को रौशन कर सकें। इन सबकी लाख कोशिशों के बावजूद गदर या कहें पहला स्वतंत्रता संग्राम अपने लक्ष्य में पूरी तरह कामयाब न हो सका मगर सख्त मुकाबले के बावजूद यह सच अपने में महत्वपूर्ण था कि यह अकेली जंग अंग्रेजों के खिलाफ हिन्दुस्तानी फ़ौज और जनता ने लड़ी थी।


अंग्रेजों की रणनीति और कूटनीति की शक्तिशाली व्यवस्था और अनुभव के सामने स्वतंत्रता संग्राम में शामिल लोगों के पास केवल जोश और वलवला था जो उनको इतनी दूर तक खींच कर लाया था। इस जंग के समाप्त होने पर वतनपरस्तों को अपनी हार का जहाँ मलाल था वहीं पर एक सच और उनके सामने खुलकर आया था कि उन्हें अपनी योग्यता तकनीकी रूप से आगे बढ़ानी है इसलिए इस पराजय से हार मान बैठने की जगह उन कारणों को तलाश करना है जिससे वह अपने शत्रु से लोहा लेने में सक्षम हो सकें। निराशा उन्हें पूरी तरह निगलती इससे पहले ही आशा का एक सूरज उग आया था। 1857 के बाद जो ख़ामोशी का माहौल छा गया था। उसने धीरे-धीरे करके छंटना शुरू कर दिया था। इस आत्म मंथन ने कुछ समझदार और दूर अंदेश हिन्दू-मुसलमानों को इस बात के लिए प्रेरित करना शुरू कर दिया कि वे इस शान्त समुद्र में दोबारा हरकत लाने के लिए सांस्कृतिक गतिविधियों का सहारा लें ताकि देश प्रेम की भावना फिर एक बार उफान ले सके सो सदी के अन्त तक कई संस्थाएँ और अंजुमने वजूद में आईं जिनमें अंजुमने पंजाब, (लाहौर), अंजुमने तहजीब (लखनऊ), हिमायते इस्लाम (लाहौर), प्रार्थना समाज, दकन एजूकेशनल सोसायटी, देहली सोसायटी आदि का ज़िक्र करना जरूरी है जिन्होंने भारतीय सभ्यता एवं सांस्कृतिक कार्यक्रमों और बहस के द्वारा आम लोगों में सोई वतनपरस्ती को झिंझोड़ा और ऐतिहासिक व्यक्तित्व एवं अतीत में घटी ओजपूर्ण घटनाओं को दोहरा कर लोगों को सियासी सोच के लिए तैयार करना शुरू कर दिया। यह एक प्रयोग था। जिसमें उन्हें आशा के विपरीत भारी सफलता मिली और लोगों में अपने वतन की सोई मोहब्बत अंगड़ाई लेने लगी। उनकी चेतना में बुनियादी सवालों ने कुलबुलाना शुरू कर दिया।


इसी दौर में सर सैय्यद अहमद खां ने एक नए आन्दोलन की शुरुआत 'शिक्षा प्रसार' के नाम से शुरू कर दी। अपने चारों तरफ उन्होंने अदीबों को जमा करना शुरू कर लिया। आम लोगों तक पहुँचना, चन्दा जमा करना, और उस जमाने के रूढ़िवादी सोच वालों को भी शिक्षा का महत्व समझाने और अपना हमख्याल बनाने में उन्हें मनचाही सफलता मिली। उनकी इस उपलब्धि को देखकर सैय्यद सुलेमान नदवी ने कहा था - ''जिसका । हर फर्द एक अदबी रियासत का मालिक था।'' इसमें कोई संदेह नहीं कि सर सैय्यद अहमद खां में वतनपरस्ती का जज्बा सामाजिक प्रतिबद्धता के रूप में उबल उठा था। उनकी इच्छा थी कि मुसलमान पढ़ लिखकर अपनी उपस्थिति मुख्य


धारा में दर्ज करें और हिन्दुओं के साथ शाना-ब-शाना मिलकर अंग्रेजों के दाँत खट्टे करें जिन्हें भावुकतापूर्ण बलिदान के स्थान पर तर्कपूर्ण संघर्ष की तैयारी करनी थी। उनके द्वारा दिए गए एक भाषण में हिन्दूमुसलमान एकता पर उनके विचार देखें - “हिन्दू-मुसलमान दुल्हन (भारत) की दो आँखों के समान हैं यदि एक आँख किसी कारण खराब हो जाती है तो कानी दुल्हन की सुन्दरता ऐवदार हो जाएगी।'' इसी दौर में हाली जैसा कवि अपने पूरे तेवर के साथ उभरा। कहा जा सकता है कि 1857 के हादसे से जिस शायर का दिल सबसे ज्यादा तड़पा था वह हाली' ही थे। हिन्दुस्तान से मोहब्बत की उनकी यह अभिव्यक्ति देखें:


ऐ वतन ! ऐ मेरे बहिश्ते बरीं,


क्या हुए तेरे आसमानो ज़मीं ?


सब को होता है तुझसे नश्वोनुमा


सब को भाती है तेरी आबो हवा


तेरी एक मुश्ते ख़ाक के बदले


लूँ न हरगिज़ अगर बहिश्त मिले


जान जब तक न हो बदन से जुदा


कोई दुश्मन न हो वतन से जुदा


तुम अगर चाहते हो मुल्क की ख़ैर


न किसी हमवतन को समझो ग़ैर


हो मुसलमान इसमें या हिन्दू


बौद्ध मजहब हो या कि ब्रह्मा हो


सबको मीठी निगाह से देखो


समझो आँखों की पुतलियाँ सबको


एक ओर संवेदनशील कवि दूसरी ओर जुझारू पत्रकार तीसरी ओर समाज परिवर्तन के लिए व्याकुल विचारक चैथी तरफ घर में बैठी वे औरतें जो अपने बेटों, पतियों और भाइयों को लगातार प्रोत्साहन दे रही थीं।


ग़रज़ कि की चारों दिशाओं से आज़ादी... आज़ादी... आजादी... आज़ादी की ध्वनियाँ पूँज रही थीं। विवेक भावना से टकरा रहा था। अपमानबोध सम्मान के लिए छटपटा रहा था। ऐसी हालत में अखबार आग पर तेल का काम कर रहे थे। भारतीयों की स्थितियों पर बेबाक टिप्पणियाँ छप रही थीं। बतौर मिसाल साइंटीफिक सोसायटी के अखबार ने अंग्रेजों की मानसिकता को संक्षेप में बताते हुए लिखा था कि हिन्दुस्तानी कितना भी इल्म व फन में कमाल हासिल कर लें और कितने ही ईमानदार और चरित्रवान बन जाएँ मगर वह अंग्रेजों के नजदीक बेईमान और अंग्रेजों के सामने शिष्ट नहीं कहलायेंगे और अंग्रेज चाहे जितने भी गलत काम करें मगर वह शरीफ कहलायेंगे (द अवेकिंग आफ द पब्लिक ओपीनियन बाई प्रोफेसर कासिम अली सजन लाल हैदराबाद अकादमी)।


अंग्रेज़ हिन्दुस्तानियों का मनोबल तोड़ने के लिए जैसे-जैसे उनके साथ तिरस्कार और घृणा का व्यवहार करते उतना ही उर्दू अखबार इसकी निन्दा व आलोचना करते थे। जैसे 'रफीक़ हिन्द' समाचार पत्र लिखता है। ''एक हिन्दुस्तानी बन्द-ए-खुदा ऐसी बेरहमी से मारा जाता है और हमारी सरकार उसके हत्यारों पर सिर्फ अपनी नाराजगी का इजहार काफी समझती है। क्या अगर किसी यूरोपियन के साथ यही घटना किसी भारतीय के हाथों घट जाए तो क्या हमारी सरकार केवल इस घटना पर अफसोस कर उसको छोड़ देती है ?''


ब्रिटिश राज में कोई भी हिन्दुस्तानी मजिस्ट्रेट अंग्रेजों के मुकदमों की कार्रवाई नहीं देख सकता था। लार्ड रिपिन ने इस नस्ली फर्क को मिटाना चाहा मगर जब बिल पेश हुआ तो अंग्रेजों और एंग्लो इंडियन्स ने जमकर इसका विरोध किया। इस घटना से बहुत से हिन्दुस्तानी जो अंग्रेजों को पसंद करते थे एकाएक गहरी नींद से चैंकठे। पहली बार उन्हें अपमान का अहसास हुआ और उनमें आत्म सम्मान का जज़्बा उभरा। इस घटना पर प्रत्येक भारतवासी ने अपनी-अपनी तरह से आक्रोश व्यक्त किया। समाचार पत्रों में अंग्रेजों के मनोविज्ञान पर लेखों की बाढ़ सी आ गई। कार्टून बनाए गए। कवियों ने कविता को अपने रोष का साधन बनाया। मुंशी उमराव अली लखनवी ने इस घटना पर चार एक्ट का नाटक लिखा। 'अवधपंच' में ज्वालाप्रसाद वर्क ने एक व्यंग्य लेख 'एलबर्ट बिल' के नाम से लिखा। 'हजार दास्ताँ ने 'दगाबाज कौन है?' के शीर्षक से लिखा। इसका अनुवाद अंग्रेजी में प्रो. कासिम अली सजन लाल ने किया जो अंग्रेजों की नजर से भी गुजरा! यह घटना इसलिए महत्वपूर्ण बन गई थी कि भारतीयों की 'आस' अंग्रेजों से हमेशा के लिए टूट गई और उनको बकौल प्रोफेसर अली के यह बात पूरी तरह समझ में आ गई कि जब मुट्ठी भर यूरोपियन एवं एंग्लो इंडियन इतने महत्वपूर्ण हो सकते हैं तो हम हिन्दुस्तानी तो गिनती में उनसे कहीं ज्यादा हैं और यदि चाहें तो समय की धार मोड़ सकते हैं। उसी समय 'अखबारेआम' में एक गुमनाम कवि की यह नज्म दस मार्च, 1883 में छपी जिसमें हमवतनों को संदेश दिया था।


ऐ साकिनाने ख़ित्तए-हिन्दोस्ताँ बढ़ो


आगे निकल गए हैं बहुत कारवाँ बढो।


ता नाम एशिया का जहाँ में बुलन्द हो


कन्धे पे रख के कौम का ऊँचा निशाँ बढ़ो


'अवधपंच' 1877 में जारी हुआ था। उसके सम्पादक मुंशी सज्जाद हुसैन काकोरवी ने अपने समाचार पत्र को बाक़ी पत्रों से अलग पहचान दी बल्कि समय के सभी अदीबों का एक घेरा अपने आसपास बनाया। उनमें सियासी समझ व तेवर थे जो अखबार के लिए जरूरी थे। चकबस्त और अकबर इलाहाबादी इस घेरे के महत्त्वपूर्ण नामों में से थे। अकबर इलाहाबादी कुछ अर्थांें में पुराने ख्यालात के जरूर थे। अंग्रेजों की नौकरी भी करते थे मगर उन्हें अपने मुल्क पर विदेशी सत्ता मंजूर नहीं थी इसलिए समय≤ पर सांकेतिक भाषा में वह अपने दिल के फफोले फोड़ने से चूकते न थे जिसका उदाहरण यह शेर है जो आज भी उतना ही महत्वपूर्ण लगता है:


महफिल उनकी, साक़ी उनका


आँखें मेरी, बाक़ी उनका


दूसरे शेर में व्यंग्य की गहरी काट हैंः


कामयाबी का स्वदेशी पर हर एक दर बस्ता है,


चोंच तोताराम ने खोली मगर पर बस्ता है।


तहरीक स्वदेशी पे मुझे वज्द है अकबर


क्या खूब ये नग़मा है छिड़ा देस की धुन में


पं. मदन मोहन मालवीय की फरमाइश पर अकबर ने यह कतहः कहा था:


मोहर्रम और दशहरा साथ होगा


निबाह इसका हमारे हाथ होगा।


खुदा की तरफ से हो ग़र ये संजोग


तो क्यों रखें न बाह्म सुल्ह हम लोग


अंग्रेज जिनका सूरज कभी नहीं डूबता था वे हिन्दुस्तान की जमीन के नीचे खदबदाते लावे को महसुस करने लगे थे खासतौर से तब जब सदी का आगाज कई तरह के परिवर्तनों से भरा हुआ था, जैसे चीन में बगावत हुई। टर्की में क्रान्ति आई। ईरान ने बेदारी की करवट ली। जापान ने रूस को हरा कर यूरोप की बरतरी की जड़ता को तोड़ दिया। इससे भारत कैसे बच सकता था ? चारों तरफ से बगावत की आवाजें आ रही थीं। इसी दौर में हसरत मोहानी, लाला लाजपत राय और जफर अली खां जैसे देश प्रेमी अपने तीखे तेवर के साथ उठ खड़े हुए। उन्हीं दिनों प्रेमचन्द की 'सोजे वतन' कहानी संग्रह जब्त हुआ। जो शैली हाली और आजाद ने शुरू की थी उसको हसरत मोहानी, इकबाल और चकबस्त ने वतनपरस्त गीतों से एक नया रंग दे दिया। इक़बाल की हिमालय, नया शिवाला, तस्वीरे-दर्द, तरान-ए-हिन्दी, हिन्दुस्तानी बच्चों का कौमी गीत इस दौर की यादगार उपलब्धियाँ हैं। चकबस्त की खाके वतन' बहुत लोकप्रिय हुई थी। सरवर जहाँबादी की नज़्म 'फूलों का कुंज' आनन्द नारायण मुल्ला की 'जमीने वतन' खूब पसंद की गईं। इस तरह की कौमी नज्में और तराने लिखने में इस्माइल मेरठी, सफी लखनवी, सिकन्दर अली वज्द, हामिद उल्लाह अफसर, सागर आदि का नाम लिया जाना जरूरी है। 1905 में इक़बाल ने कुछ लेख लिखे जिसमें इस मुद्दे पर जोर दिया गया था कि हमारा मुल्क औद्योगिक दृष्टि से पिछड़ा है। जब तक हम उसकी ओर ध्यान नहीं देते आगे नहीं बढ़ पायेंगे नए सोच के इन लेखों का उनकी शायरी की तरह ही स्वागत हुआ। इक़बाल के लेखों में दिमाग को और शायरी में दिल को हिला देने वाली कैफियत थी !


वतन की फ़िक्र कर नादाँ ! मुसीबत आने वाली है।


तेरी बर्बादियों के मश्वरे हैं आसमानों में


ना समझोगे तो मिट जाओगे ए हिन्दोस्ताँ वालो


तुम्हारी दास्ताँ तक भी न होगी दास्तानों में।


हसरत मोहानी ने अपने मजमूनों में अपने कैद के जमाने की कुछ यादें दर्ज की हैं जिन्हें पढ़कर लगता है। कि एक क़ौम हुकूमत करने और दूसरों को निचोड़ कर अपनी आबयारी करने में किसी हद जालिम हो सकती है। और उसका यह अभ्यास एक मुल्क से दूसरे मुल्क तक अपने पैंतरे बदलता किस बेहयाई से निरन्तर अपना शोषण जारी रखे है। जरा हसरत मोहानी का बयान पढ़े:


कालों को हुक्म आधा पाव भीगा चना नाश्ते में दिया जाए मगर मिलता छटांक डेढ़ छटांक था फिर काम पर जाना और उसके बाद खाने की छुट्टी दी जाती। खाने में ज्वार, बाजरा, मांस, गेहू के मिश्रण से बने आटे की रोटी मिलती जिसमें गेहूं की मात्रा कम होती। चूना मिट्टी मिला होता । रोटी कच्ची रहती। पत्थर का कोयला कम होता जिससे रोटी उसमें से कच्ची उतारनी पड़ती। दूसरे कच्ची रोटी तौल में कम चढ़ती बचा आटा दूसरों के काम आता। नौ छटांक रोटी की जगह हमको कभी आठ छटांक या सात कभी-कभी छः छटांक रोटी मिलती। जबान कोई खोल नहीं सकता था। रोटी के साथ लापरवाही से पक्की अरहर की उबली दाल ऊपर से चैलाई का साग जिसके फेंक देने पर उसको कौवे तक नहीं छूते थे। गौरे कैदी डबल रोटी, चाय, शक्कर और खाने के लिए घी, गोश्त, तरकारी, चावल


दूध। वह भी काफी मात्रा में। पहनने के लिए काले कैदी को एक लंगोट एक जाँघिया एक कुर्ता, एक टाट, एक कम्बल, एक टोपी के सिवा कुछ नहीं। टाट और कम्बल कई साल के लिए दिया जाता। जांघिया, कुर्ता छः माह के लिए था या फिर साल भर के लिए। अगर ये चीजें फट जाती तो इसका जर्माना भी भुगतना पड़ता था। इस डर से कैदी सुबह-शाम प्रयोग करते और सारा दिन लंगोट बांध कर काम करते थे। गोरे कैदी को बूट के जोड़े मय मोजे के, पहनने के लिए अनेक सूट, जिन्हें


धोने वाले कैदी थे। लेटने को मसहरी ऊपर से गद्दा, चादर और बाकी आराम की चीजें । काले कैदी हर मौसम में उसी सीमेंट या पत्थर के चबूतरे पर सोते थे। गर्मी में कागज का बना हाथ का पंखा मिल जाता था। जब सुबह वैरक का दरवाजा खुलता तो काले एक साथ पाखाने की तरफ भेजे जाते। दो-तीन मिनट से ज्यादा पैखाने में रहने की इजाजत न थी चाहे वह न निबटे हों। गोरों के लिए हर कैदी के लिए हर एक को कमरा अलग जिसमें लोहे के पलंग, गद्दे मेज स्टूल लैम्प और अटैच बाथरूम। पढ़ने को अखबार, लिखने की कलम, कागज, यदि कालों के पास कागज का पुर्जे का भी शक हो जाता तो आफत आ जाती। एक बार मेरी भी जामा तलाशी ली गई थी। गर्मी की रात में गोरों को काले कैदी पंखा झलते। जांघिया इतनी छोटी मिलती कि बदन पर नाम भर की होती उसी हालत में मैं नमाज पढ़ता था। मुसलमानों का कोई त्यौहार नहीं मनाया जाता था।


सियासी कैदियों को हर तरह का अत्याचार सहना पड़ता था। उनको अकेला रखा जाता। इलाहाबाद सेन्ट्रल जेल में चक्की पिसवाते यह देखे बिना कि सियासी कैदी की उम्र और सेहत क्या है। लाला शाति नारायण स्वराज्य' के सम्पादक उनके हाथों में चक्की चलाने से छाले पड़ गये थे। मुंशी राम स्वरूप साहब जो सुपरिटेंडेंट आर्या बोर्डिंग अलीगढ़ के बुखार में तप रहे थे। अस्पताल से जब लौटे तो बहुत कमजोर हो गए थे। माफी न मिली और उस हालत में भी उन्हें चक्की पीसनी पड़ती थी। मैं भी चक्की चलाकर जेल में दिन काटता रहा। अंग्रेजी हुकूमत की 50वीं सालगिरह नवम्बर, 1908 को पड़ी जिसकी खुशी में बाकी कैदियों की माह भर की कैद कम कर दी गई मगर सियासी कैदियों को यह रियात भी न मिली।


हसरत मोहानी ने अपनी शायरी से उर्दू अदब को बहुत कुछ दिया मगर अपनी सियासी सरगर्मी और साम्यवादी


विचारधारा के चलते भी उन्होंने नई नस्ल को बहुत प्रभावित किया था। बेगम हसरत मोहानी का सहयोग आजादी की लड़ाई में एक मुस्लिम पर्दानशीन औरत के नाते प्रशंसा योग्य है। इन दोनों की जिन्दगी स्वयं में एक बहुत बड़ी दास्तां है जिसको नई नस्ल को जानना जरूरी है।


1907 में मुस्लिम लीग की बुनियाद पड़ चुकी थी। शिबली नुमानी के कारण ज्यादातर मुसलमान जवान सियासत में रुचि लेने लगे थे। मगर पुराने लोग सियासत की तरफ अभी भी ज़्यादा आकर्षित नहीं थे। 1911 में जब बलकान का युद्ध छिड़ा तो उन्हें ब्रतानी साम्राज्यवाद का अहसास हुआ और उन्होंने अपने अन्दर एक बेहद तकलीफदेह बेचैनी को महसूस किया और फिर एक तेज मौज आई जिसमें जगह-जगह गुलामी के खिलाफ जलसों का आयोजन होने लगा। जोशीली नज्में लिखी जाने लगीं। एक से एक तीखे और कड़वे लेख लिखे जाने लगे। शिबली की शहआशूब इस्लाम में जो गहरी तड़प उभर कर आई उसने बहुतों के दिलों में बरतानवी सत्ता के विरोध में आग सुलगा कर रख दी।


हुकूमत पर जवाल आया तो फिर नामो निशाँ कब तक


चिरागे कुश्तए महफिल से उठ्ठेगा धुआँ कब तक


कोई पूछे कि ऐ तहज़ीबे इन्सानी के उस्तादो


ये जुल्म आराइयाँ ता कै ये हश्र अंगेज़िया कब तक


ये माना तुमको तलवारों की तेज़ी आजमानी है


हमारी गर्दनों पर होगा उसका इम्तेहाँ कब तक


समझ कर ये कि धुंधले से निशाने रफ्तगाँ हम हैं।


मिटाओगे हमारा इस तरह नामो निशाँ कब तक


यह नज़्म मौलाना ने लखनऊ के आम जलसे में जो टर्की के लिए चन्दा जमा करने के लिए आयोजित किया गया था। उसमें पढ़ी थी जिसके बारे में 'हयाते शिब्ली' पन्ना 592 में लिखा है- “मौलाना नज़्म पढ़ खुद भी रोये, सुनने वाले भी रोये । लगता था जैसे कोई मातमी मजलिस है।''


और बस अब है आज से आगाज मेरी कारफरमाई' भी आम हिन्दुस्तानी के दिल का उद्गार थीं। इकबाल की 'हुजूर रिसालतमाब' बहुत लोकप्रिय हुई जिसके लिए इकबाल के समकालीन जफर अली का कहना था कि इन नज्मों ने जंग के दौर में मुसलमानों को जगाने का महत्वपूर्ण काम किया था।


(सबरस हैदराबाद इकबाल नं. पन्ना 87 बेह वाले इकबाल कामिल पन्ना 2421)


हाशमी फरीदाबादी की 'चल बलकान चल' जोश मलीहाबादी ने 'निदाए इस्लामी' में अपने पूरे वजूद की पीड़ा निचोड़ कर अपने हमवतनों के सीने में जोश भरा था:


सुनो, ए साकिनाने ख़ाके पस्ती


निदा क्या आ रही है आस्मां से


कि आज़ादी का एक लम्हा है बेहतर


गुलामी की हयाते जावेदाँ से


या फिर जोश के इस तराने के तेवर को देखें जिसमें तस्वीरकशी, जज्बात और नगमगी का कोई जवाब नहीं हैः


.. क्या हिन्द का ज़िन्दाँ काँप रहा है, गूँज रही हैं तकबीरें


उकताए हैं शायद कुछ क़ैदी और तोड़ रहे हैं जंज़ीरें


दीवारों के नीचे आ आ कर यूं जमा हुए हैं ज़िन्दानी


सीनों में तलातुम बिजली का आँखों में झलकती शमशीरें।


भूख़ों की नज़र में बिजली है, तोपों के दहाने ठंडे हैं।


तक़दीर के लब को जुम्बिश है दम तोड़ रही हैं तदबीरें


आँखों में गिदा के सुर्खी है, बेनूर है चेहरा सुल्ताँ का


तखरीब ने परचम खोला है, सिजदे में पड़ी हैं तामीरें


क्या उनको खबर थी ज़ीर व ज़बर, रखते थे जो रूहे मिल्लत को


उबलेंगे जमीं से मारे सिया, बरसेगी फलक से शमशीरें


क्या उनको खबर थी सीनों से जो खून चुराया करते थे


एक रोज इसी बेरंगी से झलकेंगी हजारों तस्वीरें


क्या उनको खबर थी होटों पर जो कुफ़्ल लगाया करते थे


एक रोज़ इसी खामोशी से टपकेंगी दहकती तकदीरें


संभलो कि वह ज़िदाँ काँप उठा, झपटो कि वह कैदी छूट गया


उट्ठो कि वो बैठी दीवारें, दौड़ो कि वो टूटी जं़जीरें


इस दौर के महत्वपूर्ण समाचार पत्र 'अलहेलाल' हमदर्द, हमदम, मदीना, मुस्लिम गजट थे। अबुलकलाम आजाद के समाचार पत्र अलहेलाल ने मुस्लिम समाज के दिमागों की जड़ता तोड़ी और उन्हें नई तरह से सोचने पर मजबूर किया। उर्दू के महान् आलोचक आल अहमद सुरूर ने कहा था कि अबुल कलाम आजाद ने अहसास को सियासी चेतना और सियासी चेतना को साहित्य में बदला है। (अदब और नजरिया पन्ना 267) इसी काल में शिबली की सियासी नज्में इस अख़बार में छपती थीं। अलहेलाल की तरह आगे चलकर मोहम्मद अली ने समाचार पत्र 'हमदर्द' निकाला। मोहम्मद अली स्वयं सम्पादक थे। उनमें बला का जोश, बेबाकी, निष्ठा और हिम्मत के साथ साम्राज्यवाद के प्रति शत्रुता का जहर था जिसने हिन्दुस्तान की तारीखी सियासत में बड़ी अहम भूमिका निभाई है। मोहम्मद अली ने बाकी क्रान्तिकारियों की तरह अपने चारों तरफ लेखकों, कवियों का घेरा बना लिया था। सभी बहुत तेजस्वी और प्रखर बुद्धि के


विद्वान थे। उनकी कलम में ताकत थी, जैसे महफूज अली बदायूनी, मोहम्मद फारूख दीवाना, विलायत हुसैन इन सबके लेख और हास्यव्यंग्य पाठकों को अपने प्रभाव में ले लेते थे जिसकी चर्चा वह जहाँ कहीं जाते करते थे।


मौलाना अब्दुल बारी फिरंगी महल ने हमदम' शुरू किया था। इस पत्र का उद्देश्य भी साम्राज्यवाद के विरोध में आवाज उठाना था। 'मदीना' अपने संतुलन के कारण बाकी समाचार-पत्रों में अपना स्थान अलग से बनाया। मुस्लिम गजेट शिबली की कोशिशों से निकला था उसके सम्पादक 'बहीदुद्दीन सलीम' थे। इसमें अधिकतर सियासी लेख छपते थे जिसमें बला की तुरशी रहती थी। इसी पत्र में छपा शिबली का लेख 'मुसलमानों की पोलिटिकल करवट' अपने समय की उपलब्धि रहा। प्रथम महायुद्ध शुरू हुआ। इसमें टर्की जर्मनी के साथ था। भारतीय मुसलमानों की हमदर्दी टर्की के साथ थी प्रेस एक्ट के चलते इलहेलाल' और हमदर्द' समाचार पत्रों की जमानत जब्त हो गई और कई मुस्लिम लीडरों को नजरबंद कर दिया गया। शिबली की नज्म 'यूरोप और हिन्दुस्तान' भी खतरनाक समझी गई और उनके नाम का वारंट जारी हुआ। 1916 में होमरूल की सदा हिन्दुस्तान के चारों कोनों से बुलंद होने लगी। इस आन्दोलन का प्रभाव कवि बृजनारायण चकबस्त' पर बड़ा गहरा पड़ा उनकी नज्मों में अपनी बेबसी, वतन की गरिमा और क्रान्ति की आवश्यकता की बड़ी जोरदार अभिव्यक्ति सुनाई पड़ती मिसाल के तौर पर आवाजे कौम' के तेवर देखें:


ये ख़ाके हिन्द से पैदा हैं जोश के आसार


हिमालया से उठे जैसे अब्रे दरियाबार


लहू रगों में दिखाता है बर्क की रफ्तार


हुई हैं ख़ाक के पर्दे में हड्डियाँ बेदार


ज़मीं से अर्श तलक शोर होमरूल का है


शबाब कौम का है, ज़ोर होम रूल का है


उनकी दूसरी नज़्म वतन की प्रशंसा और प्रेम में डूबी हुई हैः -


ऐ खाके हिन्द! तेरी अज़मत में क्या गुमा है


दरियाए फैजे़ कुदरत तेरे लिए रवाँ है


तेरी ज़बी से नूरे हुने अज़ल अयाँ है


अल्लह रे ज़ेबो ज़ीनत ! क्या औजे इज़्ज़ोशाँ है


हर सुबह है ये ख़िदमत खुरशीदे पुरज़िया की


किरनों से गंूथता है चोटी हिमालया की।


1918 में युद्ध की समाप्ति के बाद जब ब्रितानिया ने अपने वचन को नहीं निभाया और भारतीयों को राजनैतिक अधिकारों से वंचित रखा। रोलेट एक्ट की शक्ल में उनकी गुलामी की जंजीरों को पहले से ज्यादा तंग कर दिया तो भारतीयों की छटपटाहट चोट खाए साँप जैसी हो गई। अपमान और धोखे की तिलमिलाहट से उपजा आक्रोश गहरे आवेग के रूप में उभरा और कदम-क़दम पर इस काले क़ानून के खिलाफ विद्रोह पनप उठा। विरोध में जलसे, गोष्ठियाँ होने लगीं। भारतीयों का यह हठ खुलकर सामने आई कि वह अब हर क़ीमत पर आजादी लेकर रहेंगे। इन्हीं जलसों के सिलसिले में एक बड़ा आयोजन जलियाँवाला बाग अमृतसर में हुआ जिसको कुचलने की भरपूर कोशिश अंग्रेज सत्ता ने की और अपनी अमानवीय नीतियों का खुद पर्दाफाश कर दिया। कुछ पल के अन्दर ही उस स्थान पर पाँच सौ आजादी के दीवाने शहीद और पन्द्रह सौ घायल हो गये। लोगों को सजा के तौर पर पेट के बल चलने पर मजबूर किया गया और वहाँ कमसिन लड़कों और बच्चों तक को पीट-पीटकर अधमरा कर दिया गया। अंग्रेजों के जुल्म की ऐसी तस्वीर सामने आई जो सामूहिक रूप से उनके अत्याचारों का खुला दस्तावेज़ बन गई। अब आने वाले तूफान को रोकना नामुमकिन था।


मुसलमानों का विश्वास था कि ख़िलाफत की समस्या वास्तव में भारत की समस्या है। यदि ब्रितानिया की सत्ता टर्की के बहाने से बढ़ती गई तो वह पूरे इलाके के लिए एक शोचनीय समस्या बन जाएगी। यह बातें सोचकर टर्की के समर्थन में मोहम्मद अली साहब एक प्रतिनिधि मण्डल के साथ इंग्लैण्ड गये भी ताकि टर्की अपनी पहली स्थिति में लौट आए और पूरे इलाके का परिदृश्य बदले मगर वे वहाँ से निराश और नाकाम लौटे। इन सबके बावजूद भारतीयों के बीच एकता का सूत्र बढ़ गया। भारतीयों ने मिलकर खिलाफत आन्दोलन शुरू किया। मोहम्मद अली की प्रारम्भिक कोशिशों के बारे में प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. अशरफ का कहना था “आम लोगों के जोश और अंग्रेजी दुश्मनी का यह आलम था कि मौलाना मोहम्मद अली का संतुलित व्यवहार भी पसंद नहीं किया गया और ख्वाजा हसन निजामी जैसे एकान्तप्रिय ने 'कहो तकबीर' जैसे लेख लिखे जो छपते ही जब्त कर लिए गए। (रिसाला जौहर जामिया मिलिया जुबली नम्बर)


इस बीच हिन्दू-मुसलमान एकता से चिढ़े अंग्रेजों की यह मुहिम भी कुछ फल न दे सकी कि मुसलमान सत्ता के छिन जाने से परेशान हैं और अपनी कुंठा अंग्रेजों का गैरजरूरी विरोध कर खाली कर रहे हैं। इन हिन्दुओं पर जो मुसलमानों के शाना बशाना थे। उन पर इन बेजा दलीलों का कोई असर नहीं पड़ा और हिन्दू-मुसलमान एकता के बीच फूट न पड़ सकी। उल्टे जलियांवाला बाग कांड हर हिन्दुस्तानी के दिल का रिसता घाव बन बैठा और गुलामी की जंजीरों को तोड़ने का जुनून सर पर सवार हो गया। हर तरफ एक ही नारा सुनाई पड़ने लगा: लेकर रहेंगे आजादी ! ऐसी स्थिति में अंग्रेजों के हाथ पैर ढीले पड़ने लगे। बौखलाहट कर उन्होंने अपने अंकुश और सत्ता के घेरे को कसना शुरू कर दिया। मगर जो आग रचनाकारों के सीने में जल उठी थी वे उनके शब्दों में धधकते अंगारे की तरह आँच देने लगी जिससे हर खास व आम हिन्दुस्तानी जान हथेली पर लेकर आगे बढ़ा। उन सबकी जदानों पर आजादी के तराने थे। इस दौर के समर्पित और निष्ठावान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी एवं बुद्धिजीवी के लिए डॉ. अशरफ ने लिखा था कि गुलाम भीख नौरंग, चैधरी खुशी मोहम्मद, खान नाजिर, आगा हशर बल्कि सैय्यद हाशमी फरीदाबादी जैसे जमूद पसंद और इंकलाब से पूर्ण रूप से अनभिज्ञ ने शिवली, हसरत मोहानी और इकबाल से बढ़कर शर फिशानी किया करते थे और इनका यह कलाम हमारी इंकलाबी शायरी में हमेशा याद रहेगा। (रिसाला जौहर जामिया जुबली नं. 2)


मोहम्मद अली का प्रसिद्ध भाषण जो उन्होंने तेरह दिसम्बर, 1919 को अमृतसर कांग्रेस के इजलास में दिया था उसकी कुछ पंक्तियाँ देखें... “मोहतरम बुजुर्ग मिस्टर गोखले, खुदा उनकी रूह को आराम दे, मुझे खुद उनके दोस्तों ने बताया है कि वह अपनी तमाम उम्र अपने एक फैसले पर अफसोस करते रहे। उनका वह फैसला बेरहमाना था जबकि उन्होंने प्रेस एक्ट का पास होना इस वजह से मंजूर कर लिया कि हिन्दुस्तानी देशप्रेमी जेलखानों से आजाद हो जायें। मैं एक पत्रकार रह चुका हूँ। मेरे सामने प्रेस एक्ट की सख्तियाँ भी रह चुकी हैं। और उन आठ देशभक्त हिन्दुस्तानियों की रिहाई भी मेरे दिल की आँख के सामने थी। उस वक्त मैंने कहा था कि प्रेस एक्ट का पास होना बेहतर है। इससे आदमी जेल में सड़ रहे हैं लेकिन अब जबकि मैं खुद जेल जा चुका हूँ। मुझको यह कहने का हक़ है कि मुझे और मेरे भाइयों को वापस जेल वापस जाने दो। जरूरत पड़े तो हमें फाँसी दे दी जाए... अगर जरूरत हो हमको जेल जाने दीजिए बजाए इसके कि अब हिस्दुस्तान के गले में तौक़ गुलामी डालें और हिन्दुस्तान को गुलाम रहने दें... हम यहाँ इसलिए जमा नहीं हुए हैं कि दो जानू झुक कर निवेदन करें कि हमको जेल खानों से आजाद कर दो। हमको फाँसियों से आजाद कर दो.... मैं चन्द आदमियों की आजादी के लिए अपील नहीं कर रहा हूँ। मैं उस मुल्क की आजादी के नाम पर बोल रहा हूँ जिसकी आजादी हमको बहुत प्रिय है न कि किसी व्यक्ति की इकहरी आजादी की तुलना में चाहे उसकी पोजिशन जो हो... मुझे जेल जाने दो... अगर जरूरत हो तो मिस्टर तिलक तीसरी बार जेल भेज दिये जायें। मिसिज बीसेंट को दोबारा नजरबंद कर दिया जाए बल्कि इस बुढ़ापे में अगर जरूरत हो तो उनके अपने ही बालों से पकड़ कर उन्हें फाँसी दे दी जाए लेकिन हिन्दुस्तान को आजाद होने दीजिए ताकि भविष्य में कोई व्यक्ति किसी हिन्दुस्तानी मर्द औरत को न कह सके कि तू पैदाइशी गुलाम है।''


इन दिनों जिन कवियों ने लोगों के बीच अपना विशेष प्रभाव बनाया। उसमें मुख्य रूप से मोहम्मद अली अबुल कलाम आजाद, जफर अली खां और हसरत मोहानी थे। उर्दू के आलोचक आल अहमद सुरूर का कहना था कि अबुल कलाम आजाद बुलंदियों में उड़ान के आदी हैं जमीन पर मुश्किल से क़दम रखते हैं उन्होंने दिमाग को आजाद किया है और मोहम्मद अली ने दिल को (अदब और नजरिया पन्ना 267) मोहम्मद अली का व्यक्तित्व रंगारंग था। वे एक तरफ इंकलाब के लिए आवाज बुलंद करते तो दूसरी तरफ गजले कही है जिसमें इस हद तक गहराई और नजाकत है कि पढ़ने वाला हैरत में पड़ जाता है। उनकी गजलों में कहीं-कहीं सियासी रंग भी हैं जो बहुत गहरे हैं:


जिसकी कफ़स में आँख खुली हो मेरी तरह


उसके लिए चमन की खिंज़ाँ क्या बहार है।


ये कैसी बज़्म है और कैसे उसके साक़ी हैं,


शराब हाथ में है और पिला नहीं सकते।


ये भी क्या पैरवी ए हक़ है कि खामोश हैं सब


हाँ, अनलहक़ भी हो, मंसूर भी हो, दार भी हो।


मोहम्मद अली के लिए आल अहमद सुरूर ने ठीक ही लिखा है “वह तक़रीर करते हैं तो मालूम होता है कि नारा-ए-मुजाहिदीन दिलों में घुसा जा रहा है। लिखते हैं तो मालूम पड़ता है कि एक दोधारी तलवार है जो दोनों तरफ सुथराव करती जा रही है और नज़्म पढ़ते हैं तो मालूम होता है कि हिमालय से चश्मे उबल रहे हैं।''


जब-जब माहौल सियासी स्तर पर गहराया तब-तब समाचार-पत्रों की भूमिका ने महत्वपूर्ण रोल निभाया। एक बार फिर कुछ नए अखबार वजूद में आए। जिनमें हकीकत (लखनऊ), जमींदार (लाहौर), प्रताप (लाहौर), वन्दे मातरम् (लाहौर)। तेज (देहली), मिलाप (लाहौर), खिलाफत (मुम्बई), इंकलाब (लाहौर), अलजमियत (देहली) मुस्लिम (देहली) वीर भारत (लाहौर) इन समाचार-पत्रों के बीच अबुलकलाम आजाद के समाचारपत्र अलहेलाल की बिल्कुल अलग भूमिका रही। उसका एक नमूना सैय्यद सुलेमान नदवी का वह लेख मशहद-ए-अकबर' है जो कानपुर के 'मछली शहर' बाजार में एक मस्जिद जो रास्ते में पड़ती थी। शहर की म्यूनिसिपलटी वहाँ से एक सड़क निकालना चाहती थी। चूंकि वजूखाना बीच में आ रहा था इसलिए मुसलमानों ने उसका विरोध किया मगर सूबे के गवर्नर जेम्स मिस्टन ने म्यूनिसिपलटी का समर्थन किया और मस्जिद का एक हिस्सा ढहा दिया गया। इस सिलसिले से एक मीटिंग हुई जिसमें तय पाया कि गिरी दीवार उठा दी जाए ताकि मस्जिद का हिस्सा खुला न रहे। जब दीवार ईंटों से चुनी जा रही थी उस वक्त डिप्टी कमिश्नर ने उन पर गोली बरसाने का हुक्म दिया। वास्तव में यह घटना भारतीय मुसलमानों और अंग्रेज सत्ता के विरोध में स्वतंत्रता आन्दोलन के इतिहास में एक महत्वपूर्ण कड़ी है। उस लेख का एक नमूना देखें:


''ज़मीन प्यासी है उसको खून चाहिए, लेकिन किस का? मुसलमानों का, तरावुल्स की जमीन किसके खून से सैराब है ? मुसलमानों के । मगरिब अकसा किस के खून से रंगीन है ? मुसलमानों के। ईरान पर किस की लाशें तड़पती हैं ? मुसलमानों की। सरजमीन बलकान पर किसका खून बहता है ? मुसलमानों का। हिन्दुस्तान की जमीन भी प्यासी है। खून चाहती है। किसका? मुसलमानों का। आखिर सरजमीन कानपुर पर खून बरसा और हिन्दुस्तान की खाक सैराब हुई। हिन्दुस्तान की देवी जोशो खरोश में है। अपनी कुर्बानगाह के लिए 'नज़र' माँगती है। कौन है हिम्मत का जवान जो इसकी ख्वाहिश को पूरा करे ? ब्रिटिश हुकूमत कहती है कि जनता के मज़हब का एहतराम होगा लेकिन क्या वह सम्मान इससे भी कम होगा जितना एक सड़क के सीधे होने का ? हुकूमत कहती है कि जनता के खून का सम्मान होगा लेकिन क्या उससे भी कम जितना एक रास्ते की जीनत और आराइश का ?'' (निदाए-आज़ादी)


इसी सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए कानपुर के क्रान्तिकारी अजीमुल्लाह खाँ को हम नहीं भूल सकते । राजा महेन्द्र प्रताप अभिनंदन ग्रन्थ में हरिद्वार की गुप्त मीटिंग का उल्लेख है जिसमें हिन्दू सन्तों, महन्तों एवं ऋषि दयानंद के साथ नाना, अजीमुल्लाह ने संघर्ष की रूपरेखा पर चर्चा की थी। ऐसी ही गुप्त मंत्रणा मुगल दरबार में हरियाणा के विद्वान दीवान लाला हुकुम जैन के प्रयास से अंतिम मुगल सम्राट बहादुरशाह जफर के मध्य दिल्ली के लाल किले में हुई थी। मुगल सम्राट को जिलावतनी और बेटों का कटा सर आजादी संग्राम में लिप्त होने के उपहार में अंग्रेजों द्वारा दिया गया था। उनकी यह दो मशहूर पंक्तियाँ जैसे उनके पूरे जीवन की गाथा कह देती हैं:


कितना है बदनसीब ज़फ़र दफ़न के लिए


दो ग़ज़ ज़मीन भी न मिली कुए यार में


कुछ ऐसा ही हाल लखनऊ के नवाब असिफुद्दौला का था जिन्हें कलकत्ता की जिलावतनी झेलनी पड़ी थी। कहते हैं उनके जाने पर उनके पालतू जानवर तक रोये थे। उनको देशवासियों का खून बहाना मंजूर न था।


सर्व गड़ गड़ गए


फौव्वारे लहू रोते हैं


खाक हुई बाग में


क्या-क्या न हुआ मेरे बाद !


कानपुर के अजीमुल्लाह ने लोकभाषा में जन जागृति के अनेक गीत लिखे हैं। उनके जिस गीत को गाते 1857 में वीर फिरंगियों के विरुद्ध चढ़ाई तथा युद्ध करते थे। वह गीत उस झूठ का भी पर्दाफाश करता है जिसे अंग्रेज और उनके कुछ पिट्ठू आज तक फैलाते रहे हैं कि 1857 की लड़ाई त्रस्त पल्टन और उखड़े सामंतवादियों के अपने अस्तित्व की रक्षा का युद्ध था। सच तो यह है कि यह गीत राष्ट्रीय गौरव, धर्मनिरपेक्षता तथा उत्सर्ग का उनका संकल्प प्रदर्शित करता है जो बाद में देश में कांग्रेस ने अपनाया और जिस पर जनतंत्र एवं संविधान की रचना हुई। (जगदीश जगेश का लेख शहीद उपवन की कल्पना जो साकार... पन्ना 4) इस गीत में सर्वप्रथम राष्ट्रीय शहीदों की वन्दना है। गीत की कुछ मुख्य पंक्तियाँ:


हम हैं इसके मालिक हिन्दुस्ताँ हमारा,


पाक वतन है क़ौम का, जन्नत से भी प्यारा


आया फिरंगी दूर से ऐसा मन्तर मारा,


लूटा दोनों हाथ से प्यारा वतन हमारा।


आज शहीदों ने है तुमको अहले वतन ललकारा,


तोड़ो गुलामी की जंजीरें, बरसाओ अंगारा।


हिन्दू मुसल्मां, सिक्ख हमारा भाई-भाई प्यारा,


यह है आजादी का झण्डा इसे सलाम हमारा।


फै़जावाद के अशफाक़ उल्लाह खां भी जहाँ विद्रोही तेवर रखते थे वहीं पर अमर शहीद पं. राम प्रसाद विस्मिल के साथ स्वतंत्रता संग्राम में बराबर के भागीदार बने । उनका स्नेह और यारी इतनी गहरी थी कि दोनों को फाँसी की सजा मिली। अशफाक़ उल्लाह खां 'हसरत' की मशहूर नज्म जो उन्होंने फाँसी पर लटकने से पहले कही थी:


उरूजे कामयाबी पर कभी हिन्दोस्तां होगा


रिहा सय्यद के हाथों से अपना आशियाँ होगा


चखायेंगे मज़ा बरबादी-ए-गुलशन का, गुलचीं को


बहार आ जाएगी उस दिन जब अपना बागबाँ होगा


नहोदर्देवतन हरगिज़ जुदा अब मेरे पहलू से।


न जाने बादे मुरदन, मैं कहाँ और तू कहाँ होगा


वतन की आबरू का पास देखें कौन करता है।


सुना है आज मक़तल में हमारा इम्तहाँ होगा


शहीदों की मजारों पर लगेंगे हर बरस मेले


वतन पर मरने वालों का यही बाक़ी निशां होगा।


रामप्रसाद विस्मिल ने अपनी आत्मकथा फाँसी की कोठरी में लिखी थी। उसमें उन्होंने अपने साथी अमर शहीद अशफाक़ उल्लाह खां को याद करते हुए लिखा है कि सबको आश्चर्य था कि कट्टर आर्य समाजी और मुसलमान का मेल कैसा ? मैं मुसलमानों की शुद्धि करता था! आर्य समाज मंदिर में मेरा निवास था। किन्तु तुम इन वातों की किंचित मात्र चिन्ता नहीं करते थे। मेरे कुछ साथी तुम्हारे मुसलमान होने के कारण कुछ घृणा की दृष्टि से देखते थे मगर तुम अपने निश्चय में दृढ़ थे। मेरे पास आर्य समाज मंदिर में आते जाते थे। हिन्दू-मुस्लिम झगड़ा होने पर तुम्हारे मोहल्ले के सब कोई तुम्हें खुल्लमखुल्ला गालियाँ देते थे। काफिर के नाम से पुकारते थे मगर तुम कभी भी उनके विचारों से सहमत नहीं हुए। सदैव हिन्दू-मुस्लिम एकता के पक्षपाती रहे। मुझे यदि शान्ति है तो यहीं कि तुमने संसार में मेरा मुख उज्जवल कर दिया। भारत के इतिहास में यह घटना भी उल्लेखनीय हो गयी कि अशफाक उल्लाह खाँ ने क्रान्तिकारी आन्दोलन में योगदान दिया। अपने भाई बन्धुओं तथा सम्बन्धियों के समझाने पर कुछ भी ध्यान न दिया। जब मैं हिन्दी भाषा में पुस्तकें लिखता तो तुमने सदैव देशभक्ति के भावों को समझने के लिए ही हिन्दी का अध्ययन किया। गिरफ्तार हो जाने पर भी अपने विचारों में दृढ़ रहे जैसे तुम शारीरिक बलशाली थे, वैसे ही मानसिक वीर तथा आत्मा से उच्च सिद्ध हुए। इन सबके


परिणामस्वरूप अदालत में तुमको मेरा सहकारी (लेफ्टिनेंट) ठहराया गया और तुम्हारे गले में जयमाल (फाँसी की रस्सी) पहना दी। प्यारे भाई तुमको समझकर संतोष होगा कि जिसने अपने माता-पिता की धन सम्पत्ति को देश सेवा को भेंट कर दिया, जिसने अपना तन-मन सर्वस्व मातृसेवा में अर्पण करके अपना अन्तिम बलिदान भी दे दिया, उसने अपने प्रिय सखा अशफाक को भी उसी मातृभूमि की भेंट चढ़ा दिया:


'असगर' हरीमे इश्क में हस्ती ही जुर्म है।


रखना कभी न पाँव वहाँ सर लिए हुए।।


देशवासियों से यही अन्तिम विनय है जो कुछ करें सब मिल कर करें और सब देश की भलाई के लिए करें । इसी से सबका भला होगा -


मरते बिस्मिल, रोशन लहरी,


अशफाक़ अत्याचार से।


होंगे पैदा सैकड़ों इनके


रुधिर की धार से।


गर्म और नरम दल अपनी-अपनी तरह से चिन्तन मनन कर रहे थे मगर उनका उद्देश्य देश को आजाद करना था। यदि एक तरफ गुपचुप तरीके से अंग्रेजों के विरोध में भूमिगत विरोध चल रहा था तो दूसरी तरफ आजाद हिन्द फौज भी तराने गाती गुजर रही थी


क़दम-कदम बढ़ाए जा, खुशी के गीत गाए जा


ये ज़िन्दगी है क़ौम की, तू क़ौम पर लुटाए जा


इसी दर्शन को भगत सिंह ने पूरी तरह आत्मसात कर लिया था। उन्होंने पत्रकारिता की और अंग्रेजी उर्दू भाषा के


द्वारा लोगों को अपने विचारों से अवगत कराया और देश के प्रति उनके कर्तव्य के प्रति सचेत किया। भगतसिंह ने जेल में रहते हुए चार किताबों की रचना की थी। (1) आत्मकथा (2) समाजवाद का आदर्श (3) भारत में क्रान्तिकारी आन्दोलन (4) मृत्यु के द्वार पर। अफसोस कि उनकी पाण्डुलिपियाँ लोगों तक पहुंचने से पहले ही नष्ट हो गईं जिनके लिए कहा जाता है कि यह भी एक साजिश थी। जेल डायरी से उनके अनुभवों एवं भावना का थोड़ा बहुत पता चलता है फिर भी उन पुस्तकों की कमी सभी को खलती है। उनके लेख पंजाब की पत्रिका 'किरती' (श्रमिक) में भी छपते रहे हैं। उस क्रान्तिकारी का दृढ़ निश्चय तो तीन हफ्ते खाने को हाथ न लगाने से भी ज्ञात होता है मगर उस पथरीले व्यक्तित्व में जज़्बात की बारीक नदी भी बहती थी जिसका अन्दाजा पाठक शायरी के इस नमूने से लगा सकते हैं


हमने जब वादिए गुर्बत में क़दम रखा था


दूर तक आई थी यादें, हमें समझाने को


हम भी आराम उठा सकते थे घर पर रह कर


हमको भी पाला था माँ बाप ने दुःख सह-सह कर


वक़्ते रुख़्सत तो हम इतना भी न आए कह कर


रुख पे आंसू जो निकल आएँ तुम्हारे बह कर


तिफ़्ल इनको ही समझ लेना हैं बहलाने को।


शह्रेआशोब का सिलसिला रुका नहीं। वह आज भी उर्दू भाषा में जारी है मगर हर विधा का ऐतिहासिक पसमंज़र जानना भी जरूरी होता है क्योंकि समय का अन्तराल जहाँ चीजों को निखारने की अपने में क्षमता रखता है वहीं पर बहुत सी सच्चाइयाँ गर्द वा ग़्ाुबार तले में छुप जाती हैं और आज भारत के सियासी बंटवारे का आरोप कुछ राजनेता अपने ऊपर न लेकर उर्दू भाषा पर डालते हैं। इससे बड़ा मजाक और क्या हो सकता है कि जो भाषा जहाँ पैदा हुई हो उसके जन्मस्थान से अनभिज्ञ उसे विदेशी भाषा बताते हैं जबकि उर्दू भाषा को यहाँ तक लाने वाले साहित्यकार, बुद्धिजीवी, पत्रकार, हिन्दू-मुस्लिम सिक्ख ईसाई और वे सभी भारतीय थे जिन्होंने उसको अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम चुना था। याद रखिये भाषा पर किसी धर्म का अधिकार नहीं होता बल्कि वह जनता की मिल्कियत होती है। उसका साहित्य उनकी विरासत होता है।  


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