सार्थक और निरर्थक - कविताएँ
सार्थक और निरर्थक
तुम सार्थक हो
प्रश्नों से मुक्त
उत्तरदायित्वों से परे
सामान्य व्यक्ति की पहुँच से बाहर
क्योंकि तुमने कर लिया है
दूसरों के सुख-दुःख से विरक्त अपने आप को
तुम्हारे पास क्षमता है, प्रभाव है,
संपन्नता है और आत्म तुष्टि भी
तुम पहुँच गये हो उस स्थान पर
जहाँ तुम तक नहीं पहुँच पाता
कोई संशय, कोई शंका या आक्षेप
तुम परे हो सभी आरोपों से लाछनों से।
और मैं निरर्थक हूँ क्योंकि
मेरे पास भावनायें हैं संवेदनायें हैं
कर्तव्य है उत्तरदायित्व है
शालीनता है नैतिकता है
मैं जुड़ा हूँ जनमानस के सुख दुख से
इसीलिए मैं रहता हूँ सभी की दृष्टि में
और बन जाता हूँ कभी कभी
तर्क और आलोचना की विषय वस्तु
निरपराध हो कर भी
लाछनों और आरापों का निशाना
व्यंग और उपहास का पात्र
प्रतिउत्तर न मेरी नीयत है न ही मेरा स्वाभाव
मैं हार जाता हूँ हर युद्ध
और शामिल हो जाता हूँ
उपेक्षित और अर्थहीन खाँचे में।
अस्तित्व
कभी-कभी अपने अस्तित्व को
पहचानने के प्रयास में
मुझे लगता है कि मैं समुद्र से गहरा
और आकाश से विस्तृत हो गया हूँ
किसी भी सीमा या परिधि से परे
किसी भी रंग रूप या आकार से वंचित
उस समय मुझे अपने आप को
जानने या समझने के सभी प्रयास निरर्थक लगते हैं
धूप चांदनी या छाया को पकड़ने जैसे।
लेकिन कभी-कभी लगता है कि
मैं महज एक शून्य हूँ
जो पहले ही विलीन हो चुका है
सर्व व्यापी, सर्व ग्राही ब्रह्मांड के महाशून्य में
कभी भी बाहर न आ सकने की विवशता के साथ
और अपनी पहचान को सदैव के लिये खोने के बाद
और मैं मंडरा रहा हूँ अन्तरिक्ष में
किसी भी गुरुत्वाकर्षण से कोसों दूर
आकाश के अमूर्त टुकड़े जैसा