संपादकीय

राष्ट्रवाद और कबीलावाद


साहिर की इस नज़्म 'कुछ बातों' के कुछ ही वर्षों बाद भारत आज़ाद हो गया। किन्तु इस आज़ादी के साथ ही देश का विभाजन भी हुआ और लाखों लोग घर से बेघर हो गए। लाखों लोग मारे गए। साहिर जैसे कवि, जो अजनबी सरकार के विरुद्ध बातें कर रहे थे और स्वाधीनता के सुनहले सपने देख रहे थे, अब यह भयंकर नरसंहार देख कर बुरी तरह से पीड़ित हुए, और उनकी यन्त्रणा कविताओं में भी फूट पड़ी। साहिर की ही कुछ पंक्तियां देखिए।


यह नज़्म सितम्बर 1947 में आकाशवाणी दिल्ली से प्रसारित हुई थी:-


मेरे बरबत 1 के सीने में नग़्मों का दम घुट गया है


तानें चीखों के अंबार में दब गई हैं


और गीतों के सुर हिचकियां बन गये हैं....


और मैं इस तबाही के तूफान में


अपने नग़्मों की झोली पसारे


दर-ब-दर फिर रहा हूँ


मुझको अम्न और तहज़ीब की भीख दो


मेरे गीतों की लै, मेरे सुर, मेरी नै 2


मेरे मजरूह 3 होंटों को फिर सौंप दो...


माओं को उनके होंटों की शादाबियां 4


नन्हें बच्चों की उनकी ख़ुशी बख़्श दो


मुल्क की रूह को ज़िन्दगी बख़्श दो


मुझको मेरा हुन 5, मेरी लै बख़्श दो


मेरे सुर बख़्श दो, मेरी नै बख़्श दो


मेरे सुर बख़्श दो, मेरी नै बख़्श दो।


आज़ादी के बाद साहिर कुछ दिनों के लिए पाकिस्तान चला गया। वहाँ लोगों की दुर्दशा देख कर उसे बहुत निराशा हुई।


धर्म के नाम पर विभाजन मांगने वाले लोग कहते थे कि पाकिस्तान बन जाने पर मुसलमानों के लिए स्वर्णिम युग आ जायेगा। किन्तु हुआ क्या ? यह भी साहिर से ही सुनिए:-


जमीं ने खून उगला, आसमां ने आग बरसाई,  जब इन्सानों के दिल बदले तो इन्सानों पे क्या गुज़री?


चलो वो कुफ्ऱ के घर से सलामत आ गये, लेकिन,  ख़ुदा की मुम्लकत में सोख़्ता-जानों पे क्या गुजरी ?


(चलो वे काफ़िरों की बस्ती (भारत) से सुरक्षित आ गए लेकिन, खुदा के राज्य (पाकिस्तान) में जले हुए प्राणों पर क्या गुजरी ?)


साहिर की ये पंक्तियां आज भी धार्मिक राष्ट्रवाद पर जैसे व्यंग्य कर रही है। कराची में मुहाजिरों (भारत से गए मुसलमानों) के साथ जो हो रहा है वह देख कर साहिर जैसे आज फिर पूछ रहा है-खुदा की मुम्लकत में सोख़्ता-जानों पे क्या गुजारी ?


अफ़गानिस्तान से जब रूसी सेना को वापिस जाना पड़ा और देश पर कट्टरपंथी मुसलमानों का राज हो गया, तो लोगों ने उत्सव मनाया। पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री ने काबुल की एक मस्जिद में नमाज़ पढ़ी और अल्लाह का शुक्र किया। किन्तु उसके बाद कट्टरपंथियों के विभन्न गुटों की आपसी लड़ाई में जितने लोग मरे हैं उतने रूस-विरोधी युद्ध में भी नहीं मरे थे। जितनी तबाही अब हुई है, और हो रही है, उतनी पहले नहीं हुई थीं अफ़गानों से भी साहिर जैसे पूछ रहा है-खुदा की मुम्लकत में सोख़्ता-जानों पे क्या गुजरी ?


साहिर आज नहंी है। यदि होता तो देखता कि आज भी, आज़ादी के सात दशकों के बाद भी, दंगों और फसादों में लोग मारे जा रहे हैं, बल्कि आतंकवादी हिंसा आज के समाज का एक स्थायी रोग बन गयी है। अतः आज भी अपने नग़मों की झोली पसारे वह लोगों से अम्न और तहज़ीब की भीख मांगता दिखाई देता।


प्रश्न है-राष्ट्रवाद के नाम पर या धर्म के नाम पर चलने वाले ये आन्दोलन भटक क्यों जाते हैं?  उत्तर है- ये सारे आन्दोलन मूलतः कबीलावादी संकीर्णता की भावनाओं को उकसाते हैं- इन भावनाओं पर लेबल चाहे कोई भी लगा हो। जाति, भाषा, धर्म, देश इत्यादि कोई भी मुखौटा लगाकर लोग मैदान में निकलें, मूलतः वे अपने संकुचित स्वार्थों के लिए ही लड़ते हैं। जब सत्ता मिलती है तो मुखौटे उतर जाते हैं और नंगे स्वार्थी चेहरे साफ दिखाई देने लगते हैं। और फिर आज की व्यापक प्रतिस्पर्धा में स्वाग्रही भाव आसानी से भड़क उठते हैं और दंगें फ़साद जन्म लेते हैं।






 


 


Popular posts from this blog

अभिशप्त कहानी

हिन्दी का वैश्विक महत्व

भारतीय साहित्य में अन्तर्निहित जीवन-मूल्य