सिन्ध की लोककथा - जैसी करनी वैसी भरनी

रश्मि रमानी, इंदौर, 9827261567


कहते हैं कि एक ऐसा गरीब इन्सान था, जिसे गरीबी ने कुछ इस तरह जकड़ रखा था कि एक दिन लाचार होकर, उसने अपनी पत्नी से कहा कि अजरक' के (पाकिस्तान के लोग अजरक को चादर की तरह वापरते हैं.) पल्लू में मुट्ठी भर आटा बाँध दो, मैं परदेस जाकर किस्मत आजमाऊँ, यहाँ तो हम बैठे-बैठे ही भूखों मर जाएँगे. यह सुनकर पत्नी अन्दर गई, और डिब्बे, बर्तनों को उल्टा पल्टा, किन्तु कुछ भी हाथ नहीं लगा. मन को कड़ा कर के चूल्हे में से राख की दो-चार मुट्ठियाँ भरकर, अजरक के कोने में बाँध दीं और लाकर पति के हाथ में देते हुए कहा, 'यह है रोटी के लिए आटा, अल्लाह आपका भला करे. यहाँ की हालत तो आपसे छिपी हुई नहीं है, कहने-सुनने से तो कुछ होगा नहीं.' पति बेचारे ने चादर को घुमा-फिराकर गले में लपेटा और उठ खड़ा हुआ, न सोचा न विचारा बस जो रास्ता सामने नजर आया, उसी पर चलता चला गया. चलते-चलते सूरज ढल गया. कुछ समझ में नहीं आ रहा था, सामने एक गाँव था, पर किसी से जान-पहचान नहीं होने के कारण वह तय नहीं कर पा रहा था कि कहाँ जाये ? इसी उधेड़बुन में अचानक उसने मुल्ला की बाँग की आवाज सुनी, सो वह इधर-उधर निहारता हुआ, अल्लाह के दरवाजे पर आकर रूक गया. हिम्मत कर के वजू की, मन ही मन अपने गुनाहों के लिए माफी माँगी, और अन्दर चला गया. मुल्ला भी मस्जिद से निकलने को ही था, सो जैसे ही अपरिचित व्यक्ति को सामने से भीतर आते देखा तो चैंक पड़ा, परिचय पूछने के बाद उसे तसल्ली हुई. डर कुछ कम हुआ तो हिम्मत करके मुसाफिर का हाथ पकड़ा और साथ में लाकर ओसारे में बैठाया, फिर अल्लाह के नाम पर मिलीं, मोटी-मोटी दो रोटियाँ खाने के लिए सामने लाकर रखीं, यह बेचारा तो था ही सारे दिन का भूखा और फिर दिन भर पैदल चलता रहा था, सो संकोच छोड़कर पालथी मारी, और खाने पर यों टूट पड़ा कि एक कण भी नहीं छोड़ा. फिर तो मुल्ला को अपनी अजरक सौंप, उसे सम्हाल कर रखने को कहकर, गुड़ी मुड़ी होकर सो गया, और सोते ही इस तरह खर्राटे लेने लगा, जैसे जहाज को धकेल रहा हो.


मुल्ला के मन में उत्सुकता हुई कि, यह अल्लाह का बन्दा इतने लंबे सफर पर निकला है, और सामान तो इसके पास कुछ है नहीं! जरा देखें तो इसकी अजरक के कोने में क्या बँधा है ? जो सोते वक्त भी अजरक को सम्हाल कर रखने को कह रहा था. खोलकर देखा तो चूल्हे की सड़ी राख के सिवाय उसमें कुछ नहीं था, अल्लाह की करनी पर हैरान होते हुए, उसने जैसे अजरक की गाँठ खोली थी, वैसे ही बाँधकर, चुपचाप उसे एक तरफ कोने में ज्यों का त्यों रख दिया.


सुबह को जब मुर्गे ने बाँग दी, और मुल्ला ने अजान के लिए आवाज लगाई, तो वह गरीब आदमी नींद से जागा, आँखें मलते हुए वह उठ खड़ा हुआ, और मुल्ला से विदा लेकर, अपनी वही फटी अजरक कन्धे पर डालकर, आगे की ओर चल पड़ा. चलते-चलते जब दोपहर हो गई, और सूरज सिर पर चढ़ आया, तो उसकी थकी टाँगों ने भी आगे चलने से इन्कार कर दिया. अब तो लपक कर वह सामने ही, एक घने पेड़ के नीचे जा लेटा, बेचारे को कुछ तो थकान, और कुछ कमजोरी के कारण एकदम नींद आ गई.


उसी पेड़ पर, दो तोतों का जो मामा-भानजा थे, का बसेरा था. वे दोनों उसी समय लौटकर, ऊपर की टहनी पर बैठे थे कि भानजे ने मामा से कहा-'मामा, मामा, कोई कहानी सुनाओ न !' इस पर बड़े तोते ने जवाब दिया, 'अरे बाबा, कहानी हम बूढों की क्या ? पर जिद कर रहे हो तो कान लगाकर सुनो!' ।


'यह जो गरीब आदमी सोया पड़ा है, उसकी अजरक के पल्लू में चूल्हे की सड़ी राख बँधी हुई है, जो इसकी पत्नी ने इसे आटा कहकर दी है, पर इस नादान को सच पता नहीं है, खाली पेट नींद से जागेगा तो आटे की जगह राख देखकर, बेचारे का पता नहीं क्या हाल होगा ?' यह सुनकर छोटे तोते के मन में दया जागी, और उसने आग्रह करते हुए बड़े तोते से कहा, “मामा ओ मामा, फिर तो हमें इस मुसाफिर के लिए कुछ करना चाहिये. नहीं तो परदेस में कहीं गरीब बेमौत न मारा जाए.' इस पर बड़ा तोता लपक कर उड़ा, और तत्काल ही एक पंजे में जरा सी मिट्टी, दूसरे पंजे में गेंहूँ का दाना और चोंच में पानी की बूंद लेकर लौट आया, और आते ही छोटे तोते से कहा, “जल्दी करो, अजरक के पल्लू में बँधी राख निकालकर दूर फेंको.' फिर उसने क्या किया, कि मिट्टी, पानी की बूंद और गेंहूँ का दाना तीनों अजरक के पल्लू में बाँध दिये और पँख झटक कर छोटे तोते से कहा, 'अब देख अल्लाह के रंग.'


इतने में वह भलामानुस भी करवट बदलकर उठ बैठा, और इधर-उधर देखकर, मन ही मन सोचने लगा कि, थोड़ी आग जलाकर, खाने के लिए रोट सेंक लँ, पेट भरा होगा तो भागकर कहीं भी जाकर ठिकाना ढूंढ लूंगा, वरना इस जंगल में रात हो गई तो सब कुछ चैपट हो जाएगा. बस यही सोचकर झटपट लकड़ियाँ इकट्ठी की, तिनके जमा किए, पत्थर रगड़कर चिंगारी निकाली और आग जला ली. फिर अजरक को खींचकर, लगा गाँठ खोलने कि आटा गूंधकर, कच्चा-पक्का ही सही रोट सेंक लिया जाये. हड़बड़ी में गाँठ जो खोली तो! ....सारा पेड़ खुश्बू से महक उठा...उसकी आँखें फटी रह गई! विश्वास ही नहीं हुआ. क्या देखा कि घी में तरबतर, गरमा-गरम गेंहूँ का चूरमा अजरक के कोने में बँधा हुआ था. यह देखकर हैरानी से उसकी चीख निकल गई. डरते-डरते दो उंगलियों से चुटकी भर उठाकर मुँह में जो डाला तो चकित रह गया! चूरमें में क्या तो मिठास और स्वाद भरा था. विश्वास हो गया कि सपने में कोई तो स्वर्गिक भोजन खा रहा हूँ. क्योंकि धरती पर तो ऐसा खाना बादशाहों के सिवाय हम जैसे मजदूरों को कहाँ नसीब होता है ? बस फिर क्या था जैसी लगी थी भूख, वैसा ही औंधा होकर चूरमें पर टूट पड़ा. अचानक मन में शंका हुई कि कहीं यह कम न पड़ जाये, कोई छीन न ले, चूरमा खाता भी जाये, और सोचता भी जाये कि चूरमा कितना खाया, कितना बचाया ? भूख ने उसे ऐसा तो बेसुध कर दिया था कि, पहले तो उसे कुछ पता ही नहीं चला, पर धीरे-धीरे जब पेट भरा, तो उसने खुद को सँभाला, और देखा कि चूरमा तो उतना ही है, जितना खाने के पहले था. वह जितना खाता जाता था, चूरमा उतना ही बढ़ता जाता था. मन में सोचा कि खाते-खाते कुँए खाली हो जाते हैं, पर अल्लाह के कुँए दूसरे होते होंगे, यहां तो अल्लाह की रहमत कुछ ऐसी है कि अनाज की जो अबूट अमानत दिख रही है, जिसे जितना काटा जाये, आगे उतना ही पकता जाता है. बस ऐसा विचारते और खाते-खाते, जब उसने देखा कि अब तो और चूरमा खाते नहीं बन रहा, तो हाथ झाड़कर डकार लिया, और कपड़े को खींचकर कसकर गाँठ बाँधी, फिर कॅधे पर रखा, और अपनी सोयी किस्मत के जाग जाने से खुश होता हुआ वह उठा, और वापस पीछे चलने लगा.


वह व्यक्ति खुशी से फूला नहीं समा रहा था, सो हवा के झोंकों के साथ झूमता, पॅछियों के मधुर गीतों से स्वर मिलाता, और घने पेड़ों के फरफराते पत्तों और झूलती हुई शाखाओं के साथ नाचता-कूदता, मासूम बच्चों की तरह बेपरवाह, उछलता-कूदता, सूरज ढलने के पहले ही वापस उसी गाँव में आ पहुँचा, जहाँ उसने पिछली रात के चार पहर बिताये थे. सीधा जाकर मुल्ला को सलाम किया, और देर रात तक मीठी-मीठी बातें करते हुए, आखिर में फिर से अपनी अजरक की सार-सँभाल की विनती करते हुए, वह वहीं पर बिछी हुई चटाई पर लेट गया, और कुछ ही देर में उसे नींद भी आ गई.


मुल्ला ने मन ही मन कहा “अभी कल ही तो यह खुदा का बन्दा जा रहा था परदेस, धन कमाने, और आज लौटकर जा रहा है वापस अपने देस! क्हता है अपना भाग्य अपने साथ लिए जा रहा हूँ. और तो कुछ इसके पास दिख नहीं रहा, अजरक के पल्लू की गाँठ भी वैसी ही दिख रही है, जैसी कल रात को बँधी थी.''


ऐसा विचारते-विचारते, उसके मन में आया कि हो न हो, कुदरत का अगर कोई करिश्मा है, तो अजरक की इसी गाँठ में है, जिसमें कल रात को राख बँधी हुई थी. उसने उठकर अजरक की वह गाँठ खोली, गाँठ खुलते ही चूरमें की अद्भुत सुगन्ध मुल्ला के नथुनों से होकर दिमाग तक जा पहुँची, फिर तो गलतियों के पुतले इन्सान के मन से अपने पराये का भेद मिट गया, और तो और ऐसी मति भ्रष्ट हुई कि आँखें बन्द कर के चूरमें पर टूट पड़ा. जोश में आकर एक साथ पन्द्रह बीस बार खाया, तब जाकर होश आया कि अरे! यह क्या ? अमानत में खयानत! अल्लाह कैसे माफ करेगा ? सबसे बड़ी बात यह कि इस आदमी से पीछा कैसे छूटेगा ? बस मुल्ला का हाथ और मुँह दोनों वैसे ही चलते रहे, अचानक आँखें खोलकर, जब नीचे चूरमे को ध्यान से देखा, तो हैरान रह गया, चूरमा तो उतना का उतना ही था. यह कैसा चमत्कार! फिर तो उसने हद ही कर दी गपागप खाना तो ठीक, पर जो भी बर्तन सामने आया, देगची, तपेली, मटका, बाल्टी जो कुछ उसके पास था, चूरमे से ठसाठस भर कर एक ओर छिपाकर रख दिया. बाँह सिर के नीचे रखकर, संसार के सारे जीवों को पालने वाले अल्लाह को लाखों, करोड़ों शुक्रिया अदा कर, और शैतान पर लाखों लानतें भेजकर, मुल्ला जी मजे से सो गये.


सुबह को जैसे ही प्रभात बेला में मुर्गे ने पहली बाँग दी, तो वह आदमी जागा और हाथ मुँह धोकर, उसने बाँग देने के लिए मुल्ला को झकझोर कर, उठाया और खुद अजरक को कमर पर बाँधकर, उन्हीं पैरों अपने गाँव वापस रवाना हो गया. जिस इन्सान के पास ऐसी अनमोल नेमत हो उसके लिए एक आध दिन का पैदल सफर तय करना कौन सी बड़ी बात है ? रास्ते में एक झील के किनारे बैठकर, चूरमे का आनन्द भी लिया, और अभी सूरज पूरी तरह से डूबा भी नहीं था कि उसके पहले ही वह अपने घर जा पहुँचा. उसकी बीवी अपने पति को वापस आया देखकर हैरान रह गई. कहा, ''यह कैसी मसखरी है? जैसे गये हो वैसे वापस लौट आये!'' पति ने जवाब दिया 'धीरज रख, ख़ाली हाथ नहीं लौटा हूँ, ले इसे खोलकर तो देख, अपनी किस्मत इस गाँठ में है.' पत्नी गुस्से की आग में तपकर, लाल भभूका हो गई, कहा, ''मिट्टी और राख तुम्हारी किस्मत में होंगे तो होंगे, मेरी किस्मत में तो नहीं हैं.'' पति ने जवाब दिया, 'बेवकूफ, पाने से पहले कपड़े मत उतार, बड़ा दिल रखकर अन्दर जा, और जाकर जरा गाँठ खोलकर तो देख.' इस पर उसकी पत्नी, नथुने फुलाकर, दाँत किटकिटाते हुए, मुँह बिचकाकर अन्दर गई, और चूल्हे के पास खड़े होकर मन ही मन कहा कि, “गाँठ खोलकर, राख वापस चूल्हे में गिरा देती हूँ. कम से कम बर्तन साफ करने के काम तो आयेगी.' ऐसा सोचकर जल्दबाजी में जैसे ही गाँठ को खोला, तो माहौल एकबारगी घी की महक और चूरमे की खुश्बू से सराबोर हो गया. खड़े-खड़े चमक कर आँखें खोली तो सामने ताजा-ताजा गरमा गरम चूरमा देखकर, जैसे एक बार फिर जी उठी. कौर. बनाकर जो मुँह में डाला तो बॉछे खिल गई! बाहर से पति ने पुकार कर कहा, 'भागवान! समझ ले यह अपनी ही खेती है, कभी कम न होगी. जितना तुम इसमें से निकालोगी उतना ही यह तुम्हें सारी जिन्दगी देगी. फिर दोनों पति पत्नी, पालथी मारकर चूरमा खाने बैठ गये.


इसी प्रकार जब दो-चार दिन बीते, तब पत्नी ने पति को सलाह दी कि, “जाओ, जाकर बादशाह को दावत देकर आओ तो उन्हें भी चूरमा खिलाएं. इसमें अपनी ही शान है, गाँव में बहुत से ऐसे भी लोग हैं जो हमारी किस्मत से जलते भुनते रहते हैं. हम भी तो जरा उनकी छाती पर मूंग दलें. हमेशा के लिए उनकी जलन से छुटकारा मिल जायेगा. बादशाह जब हमारे यहाँ खाना खाने आयेंगे, तो देश विदेश में हमारी कितनी प्रसिद्धी होगी ?' पति ने उत्तर दिया, मूर्ख मत बन, गाँव के लोग तो फिर भी अपने ही  भाई-बन्धु हैं, उनसे कैसा भय ? हमें ताकतवर लोगों से दूर रहना चाहिये. सयानों ने सच ही कहा है कि, “बड़े लोगों के न तो आगे होना चाहिये, न पीछे. हम गरीब लोग यहाँ चुपचाप बैठे हैं, हमें क्या पड़ी है जो हम बादशाह को दावत दें. ऊँटों और भैंसों का क्या मेल ? ये चरते हैं जंगल में, वे रहते तबेले में. दुआ कर कि ऐसी चापलूसी से हमें अल्लाह बचाये.' पर पति जो कह रहा था, वह तो जैसे पत्नी को समझना ही नहीं था. आखिर बेचारा मजबूर हो गया और एक दिन गले पर छुरी समझकर, डरते-डरते जाकर बादशाह सलामत की खिदमत में हाजिर हुआ और आरजू मिन्नतें कर के बादशाह सलामत को दावत देकर अपने घर ले आया.


बादशाह आया तो उसके साथ, उसके अमीर-उमरा, नौकर-चाकर, वजीर, दरबारी वगैरह भी आए और इस पूरे झुण्ड के लिए, दरियाँ बिछाई गई, उन पर मैली कुचैली गुदड़ियाँ, और गुदड़ियों पर फटी पुरानी चादरें डाल दी गई. आम लोगों के लिए मिट्टी के बर्तन और अमीर-उमरावों के लिए, थालियाँ, तश्तरियाँ लाई गई. बादशाह सलामत को सब लोगों से दूर, गादी बिछाकर, उस पर रेशमी कपड़ा डालकर बिठाया गया, और काँसे के बर्तन सामने लाकर रखे गये. फिर हाथ-मुँह धोकर, कुल्ला कर के जब पूरी तरह तैयार होकर, सब आकर दस्तरख्वानों पर बैठे तो, वह गरीब आदमी अपनी वही मैली-कुचैली, फटी-पुरानी अजरक ले जाकर, बादशाह के सामने, अदब से हाथ बाँधकर, गादी के नीचे जमीन पर घुटनों के बल बैठ गया, और अर्ज किया कि, “हुजूर, मैं गरीब नौकरानी का बेटा, महाराज की जूती के बराबर हूँ, सो जो कुछ था, आपके सामने है.' इतना कहकर, जैसे ही गाँठ खोली तो सभी मेहमानों के नथुने फड़क उठे, खुद बादशाह जो कि गरीब की मैली-कुचैली अजरक सामने देखकर, गुस्से में भरकर, गुब्बारे की तरह फूलकर, बस फटने को ही था, वह भी इतनी महक और हवा में फैलती चूरमे की सुगन्ध से चकित हो उठा, और एकदम नरम पड़ गया. बस, फिर क्या था, सब लग गये चूरमा खाने में, और आश्चर्य से भरकर, लगे एक दूसरे को आँखें फाड़-फाड़कर देखने, कि ये कैसा जादू है भाई ! जितना चूरमा पोटली से निकालते हैं, वापस उतना ही पोटली में भर जाता है! खाते-खाते, जब सारे मेहमान पूरी तरह अघा गये तो बादशाह ने अपनी हाँ में हाँ मिलाने वाले, वजीरों, अमीरों की ओर मुँह कर के कहा, “यह लाजवाब खाना तो बादशाहों को ही शोभा देता है. इस जंगली जानवर के पास इसकी क्या कद्र होगी ?' सबने बादशाह से सहमत होते हुए कहा “एकदम ठीक फरमाया हुजूर ने, सच तो यह है कि यह चीज तो है, आप ही के बाप दादाओं की, जिसे वे खुद, खुदा के पास से लाये थे, पता नहीं कैसे यह इस जाहिल के हाथ आ लगी है ?' फिर तो बादशाह उनकी ओर देखकर मुस्कुराया, और अपने पिछलग्गुओं के साथ खड़े उस गरीब आदमी की ओर आग बरसाती नजरों से देखा, और न कुछ पूछा न कहा, बस चूरमें की पोटली हाथ में कसकर पकड़ी और आगे-आगे खुद और पीछे-पीछे, पिछलग्गुओं का लश्कर ठहाके लगाता हुआ उठकर, आगे बढ़ गया.


इधर वह गरीब आदमी, बेचारा अपनी जगह पर सहमकर, इस तरह खड़ा रहा जैसे किसी ने पैरों में कीलें ठोंककर, वहाँ गाड़ दिया हो. मुँह से आवाज ही नहीं निकल रही थी. आँखों के आगे अँधेरा छा गया था. काफी देर तक पागलों की तरह बुत बना वहीं पर खड़ा रहा. फिर वहाँ उसकी पत्नी रोती-रोती आयी और उसने उसका हाथ पकड़ा तब भी वह ढूँठ बना रहा, और जैसा था वैसा ही चुपवाप, पलटकर धीरे-धीरे चलता हुआ अपने घर लौट गया.


दूसरे दिन उस गरीब ने अपनी पत्नी से कहा, 'अपने भाग्य से जो कुछ मिला था, वह तो हम से जबरदस्ती छिन गया, अब यहाँ खाली हाथ बैठने से क्या फायदा ? फिर भी मुट्ठी भर आटा बाँधकर दे दो, तो जाकर पहाड़ से ही सिर टकरा आऊँ.' पत्नी भी बेचारी क्या करती! घर में आटा होता तो बाँधकर देती, सो फिर से चूल्हे की राख की दो-तीन मुट्ठियाँ समेट कर, पुराने कपड़े में बाँधकर पोटली पति के हाथ में दे दी, और वह भी उठकर, पिछली बार की ही तरह चल पड़ा. चलते-चलते, एक बार फिर उसी मुल्ला के यहाँ रात बिताई, और सोने तक मुल्ला से सब्र और शुक्रिया के उपदेश सुने. दूसरे दिन, दोपहर को ठीक उसी पेड़ के नीचे आराम किया, और जल्दी ही उसकी आँख लग गई.


अल्लाह की करनी कुछ ऐसी कि फिर वही दोनों तोते, मामा और भानजा भी उस वक्त वहीं पर बैठे थे. जब दोनों तोतों की नजरें उस पर पड़ी, तो बड़े तोते ने उसकी ओर इशारा कर के कहा, “सच ही है, कमजोर हर जगह पिटता है. थक, हारकर एक बार फिर यहाँ लौटा है, जैसा पहले था वैसा ही अब भी खाली हाथ आया है. पोटली में अब भी पहले ही की तरह राख बँधी हुई है, इस पर भानजे, यानि छोटे तोते ने पूछा, “अब इसका क्या उपाय है?' बड़े तोते ने न कुछ पूछा, न कुछ कहा, बस, एकदम लपक कर उड़ा, और घड़ी भर में ही कोहकाफ पहाड़ पर जाकर, वहाँ से इन्साफ की परी के नरम-नरम पैरों के नक्काशीदार, उंगली जितने बड़े दो पुराने जूते ले आया, और उनको पास ही बने पानी के डबरे में भिगोकर, झटपट जाकर पोटली की गाँठ खोलकर राख को तो एक ओर फेंका, और उसकी जगह इन्साफ की परी के भिगोए हुए छोटे-छोटे जूतों को उसमें बाँध दिया. फिर लौटकर अपने भानजे के पास जाकर बैठ गया और कहा, “बैठे-बैठे, अब ये तमाशा भी देख ही लो!'


वहाँ वह गरीब आदमी, आँखे मलता हुआ उठा, और रोटी पकाने के लिए, छोटी-छोटी लकड़ियाँ इकट्ठी कर के आग सुलगाई. आटा गूंधने के लिए जैसे पोटली की गाँठ खोली, वैसे ही उस पर जूतों की बरसात होने लगी. इन्साफ की परी के उंगली जितने नन्हें-नन्हें जूते पानी में फूलकर, दो बालिश्त जितने बड़े हो गये थे. और उस गरीब आदमी की वो तो जमकर सुताई हुई कि हड्डी पसली एक हो गई. चीख-पुकार के मारे उस बेचारे का बुरा हाल हो गया, दर्द से कराहते हुए उसने जब कहा, 'बाप रे बाप! मैंने भी ये कैसी आफत बुला ली ? मैं तो अपना दुश्मन आप हूँ, सच ही कहा गया है, जैसी करनी वैसी भरनी.....'इत्तेफाक से ऐसा कुछ हुआ कि अभी उसने यह कहा ही था कि, जूते सिकुड़ कर पहले जैसे छोटे हो गये, और पोटली में जाकर ऐसे बन्द हो गये, जैसे कुछ हुआ ही न हो. उसे आश्चर्य हुआ कि आखिर ये माजरा क्या है ? पोटली की गाँठ खोली तो फिर से जूतों की बरसात होने लगी, और जैसे ही कहा, “जैसी करनी, वैसी भरनी.' तो लगा जैसे किसी ने जूतों को हाथ से पकड़कर रोक लिया हो. फिर कुछ सोचकर उसने पोटली की गाँठ को खोला कि देखें तो अब क्या होता है ? बस फिर क्या था पोटली खुलते ही जैसे सूखे ढूंठ उछलकर बाहर आये और फिर से लगातार ताबड़तोड़ जूते पड़ने लगे. मार से भयभीत उस आदमी ने जैसे ही कहा, “जैसी करनी वैसी भरनी.' तब जाकर कहीं उसे मार से छुटकारा मिला. अब उसने अपने मुल्क के बादशाह सलामत की याद आई, जिसने उसका सब कुछ छीनकर, उसे भूखों मरने पर मजबूर कर दिया था. अपने जीने का साधन छिन जाने पर, वह मन ही मन कुछ सोचकर, मुस्कुरा दिया. और पोटली कमर में बाँधकर, उल्टे पैरों वापस चल पड़ा.


इस बार भी रात को वह फिर उसी मुल्ला का मेहमान बना, खैरियत के समाचार लेते-देते उसने मुल्ला से कहा, 'आप एकदम ठीक कहते हैं, आपके उपदेशों के हिसाब से तो यह बन्दा, गुनहगार और कई ऐबों से भरा है, पर आप जैसे नेक नमाजियो की दुआओं से रूठी किस्मत एक बार फिर मेहरबान हुई तो है. यह सुनकर मुल्ला चैंक पड़ा, और बीती बात को मन में याद रख, सोने को चला गया, पर नींद थी कि आ ही नहीं रही थी. करवटें बदलते-बदलते जब देखा कि उसका साथी तो गहरी नींद में डूबा हुआ है, तो दबे पाँव, धीरे धीरे चलता हुआ वह पोटली के पास गया और गाँठ खोलकर जैसे ही पोटली में हाथ डाला! बस फिर तो जैसे उसकी शामत ही आ गई, सारा गाँव इकट्ठा हो गया, पर किसी की हिम्मत नहीं हो रही थी कि आगे बढ़कर मुल्ला को छुड़ाता. वह बेचारा गरीब आदमी जो पहले से ही जूतों की मार झेल चुका था, वह तो मुल्ला की पहली ही चीख पर जाग गया था, पर यह सोचकर कि जरूर चूरमें की चोरी ने ही मुल्ला को यह दिन दिखाया है, चुपचाप बैठा रहा. आखिरकार जब मुल्ला की जमकर मरम्मत हो गई, तो तो वह उठा और मुल्ला के पास जाकर कहा कि, 'क्यों जनाब, चूरमा मीठा था कि जूते मीठे ? अब कहिये, 'जैसी करनी वैसी भरनी.' तब कहीं जाकर आपकी जान छूटेगी. फिर जब मुल्ला ने ऐसा ही कहा, तब कहीं जाकर उसे इस आफत से छुटकारा मिला.


दूसरे दिन शाम ढले, वह व्यक्ति अपने गाँव वापस आ पहुँचा, पत्नी को पोटली हाथ में देते हुए बोला “इसे सँभाल कर रख. अल्लाह ने चाहा तो रूठी किस्मत को फिर मना लेंगे.' पर पत्नी को भी शायद बदन में दर्द था, सो जैसे ही पोटली की गाँठ खोली, तो सोचा तो यही था कि अब की बार, पहले से भी अच्छी कोई सौगात इसमें बँधी मिलेगी, पर यह क्या ? इसके बाद तो उस बेचारी के साथ जो कुछ हुआ, वह क्या बताएँ? उसकी चीखें सुनकर, जब तक उसका पति अन्दर आता, तब तक तो वह बेचारी पिटकर ढेर हो गई. जूतों की सटासट मार जारी थी, आखिर उसके पति ने आकर उसे सँभाला, तब कहीं जाकर उस बेचारी को इस पिटाई से मुक्ति मिली.


दूसरे दिन सुबह-सुबह ही, पति-पत्नी दोनों ने आपस में सलाह-मश्वरा किया, और घर से चल पड़े, बादशाह सलामत के दरबार में जाकर, अदब से हाथ जोड़कर, दरबान के पास खड़े हो गये. इसके काफी देर बाद जब बादशाह की नजर उन पर पड़ी, तो हुक्म हुआ कि उन दोनों को तत्काल, बादशाह सलामत के सामने हाजिर किया जाये. दोनों डरते-डरते, दो कदम आगे, एक कदम पीछे होते, आखिर जैसे तैसे, बादशाह के सामने आकर खड़े हो गये, और अर्ज किया, 'हुजूर आपकी सरपरस्ती कायम रहे, हम तो आप ही के खरीदे हुए गुलाम हैं, आपकी बादशाहत में बैठे अल्लाह-अल्लाह करते हैं, कुछ अर्ज करने की इजाजत चाहते हैं.' इस पर वजीर ने मुँह बनाकर घुड़कते हुए कड़े स्वर में कहा, 'यह बेकार की बकबक बन्द कर, जो माँगना है, सो माँगो.'।


गरीब व्यक्ति ने कदम आगे बढ़ाकर, अपने हाथों में पकड़ी पोटली को बादशाह सलामत के सामने करते हुए कहा “ ऐ गरीबों के मालिक, हम कमजोरों की किस्मत के शाह, हुजूर के लिए एक सौगात लाया हूँ, कुबूल हो तो पेश करूँ, यों तो बादशाहों के पास मोतियों का अकाल नहीं है, पर यह एकदम निराली चीज है, पुरखों से सुनते आये हैं कि बादशाहों की बादशाहतें चलती ही इस चीज पर हैं. ऐसा कहकर, उसने आगे बढ़कर पोटली बादशाह सलामत के पैरों के आगे रखी, और अर्ज किया, 'अगर तकलीफ न हो तो हुजूर अपने मुबारक हाथों से पोटली की गाँठ खुद खोलें, मालिक खुद देखें कि उस दिन का चूरमा तो चूरमा था ही, पर यह चीज भी एकदम कोई निराली ही चीज है.' दरबार में सभी अमीरों, वजीरों के मुँह खुले रह गये, और सब की नजरें पोटली की गाँठ पर जम गई, इतनी देर में बादशाह सलामत ने भी हाथ बढ़ाकर पोटली की गाँठ को खोल दिया, बस फिर क्या था इधर गाँठ का खुलना, उधर से जूतों का ताबड़तोड़ बरसना, जो मजे से फिर-फिरकर बादशाह सलामत के तंदरूस्त शरीर पर धमाधम पड़ रहे थे, चारों तरफ हंगामा मच गया. बादशाह लगातार चीखे चिल्लाये जा रहा था, पर कौन था जो बीच में पड़ता ? जो पास जाता था वह भी पिटता था, बादशाह की हालत तो ऐसी थी कि, जैसे किसी को चिल्लाहट का दौरा पड़ गया हो. जूतों की वह मार पड़ी कि बस अल्लाह ही बचाए. जूतों की ऐसी झड़ी लगी थी कि बेचारे का पूरा शरीर सूज गया, कौन था जो उसकी चीख पुकार सुनता ? आखिर बादशाह ने कहा “जल्दी करो.........चूरमा लौटाओ, ताकि मेरा पिण्ड छूटे....' इस पर चूरमे की पोटली तो उसी वक्त उस इन्सान को दे दी गयी, पर इन्साफ की परी के जूतों को भला कौन रोकता ? इसी बीच आसपास के सारे किसान, मजदूर आदि भी बादशाह की यह दुर्गति देखने को आकर इकट्ठा हो गये, बादशाह की ऐसी दुर्दशा देखकर सब हैरान रह गये, और मन ही मन उन्होंने कहा, 'मिट्टी, पानी अल्लाह का...अनाज उगाएँ हम, और चूरमा खाएँ दूसरे! आगे से ऐसा नहीं होगा, अब हम भी खाली हाथ नहीं हैं।     


        


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