वसुधा - कहानी

'हमारे तो करम फूट गये, इस बार भी


धान पूरा पईया निकल रहा है। जो बचा है करिया गया है...। पता नहीं भगवान का चाहते हैं ! एक के बाद एक बीपत... अब सहन नहीं हो रहा'। रूआँसी हो आयी रजमतिया 'का किया जाये... फसल खराब हो गई त का हुआ... चाऊर त कहीं से खरीदा जा सकता है, लेकिन उ बचवा के का करें. कइसे बतायेंगे वसुधा के सास ससूर को कि उसका बच्चा... ?' गलहत्थी देकर बैठ गयें रामेश्वर।


'चिंता जनि करो वसुधवा के पापा... हमरे हाथ में कुछ नाही है। जब उ लोग आयेंगे तब अपने आँख से ही देख लेंगे...'


'उसके बाद का होगा... अगर उ लोग इसे छोड़-छिटक दिए तब...'


'एइसन मत कहिये, शुभ शुभ बोलीये... हमहन क कवनो गलती नाही है' - दिलासा देती रजमतिया की कंपाकपाती आवाज से साफ पता चल रहा है कि वह अंदर से खुद भी बहुत डरी हुई है।


'गलती त हुई है वसुधवा क अम्मा... बहुत बड़ी गलती...'


गलती...!! खलिहान में बात कर रहे अम्मा बाबूजी की आवाज खिड़की से वसुधा के कानों में आ रही है। अम्मा बाबूजी नहीं चाहते कि वसुधा उनकी बातों को सुन ले इसलिए फुसफुसा फुसफुसा के बतिया रहे हैं, लेकिन खिड़की के बाहर खलिहान होने से फुसफुसाहट साफ-साफ सुनाई दे रही है। वसुधा के कान सुन्न हुए जा रहे हैं। वह तो उसी दिन सुन्न हो गयी थी जिस दिन उसके पहले बच्चे को इज्जत की खातीर बलि चढ़ा दी गयी। हाड-माँस के देह में जो बचा-खुचा था वह इस बच्चे के साथ जीते जी मर गया। अब तो आँखों में आँसू भी न आते हैं। बच्चे का टेढ़ा-मेढ़ा पिलपिला हाथ-पैर किसी केचुँए से कम नहीं, जिसे छूते ही घिन आ जाती है। धान की तरह यह भी पईया ही है। 'पईया से तो चूल्हा भी जल सकता है, पर इस बच्चे का क्या... मेरे बाद कौन देखेगा इसे ...' गहरी विषाद से भर गई वसुधा। 'शायद यह उसी का श्राप है...। मेरे कलेजे का टुकड़ा. जिसे रघुराईन चाची ने टुकड़े-टुकड़े करके मेरे अंदर से निकाला था शायद उसके टुकड़े टुकड़े हाथ-पाँव इसके हाथ-पाँव से जुड़ गयें। मैं उसे बचा न सकी इसीलिए वह इसमें समा कर पुनः लौट आया है... मुझसे कभी न दूर जाने के लिए। लेकिन... मैं इसे चाहते हुए भी प्यार नहीं कर पा रही... इसे छूने से भी डर लग रहा है। डर... डरना तो चाहिए मुझे... हम सबको। अपनी करनी अपने आँखों के सामने उतरती है, आज यह साबित हो गया'। तभी बच्चे के रोने की मरियल-सी आवाज कानों में गुँज उठी और वह दौड़ कर उसे गोद में उठा ली।


'शायद भूख लगी है इसे' सोचते हुए वसुधा ने अपना ब्लाऊज उपर उठाकर स्तन बच्चे के मुख में थमा देती है। बच्चे के द्वारा स्तन चुभलाने के साथ साथ माँ की ममता दूध के रास्ते छन छन कर आने लगी। बच्चे के हाथ-पैर... जिसे छूने से घिन आती है उसे ही सहलाते हुए आदिम स्मृत्तियों में डूब गई... जाग गया सारा नारीत्व। घृणा भी ममता में बदल गयी और सारा संसार ममतामयी हो गया। शायद बच्चे के दूध चुभलाने में ही वह शक्ति है जिससे माँ की ममता उमड़ आती है। वसुधा उसकी सारी दुःख-बलाइयों को अपने में समेट ली -  'कोई अपनाये या न अपनाये... पर माँ तो माँ होती है। उसकी ममता ऐसे बच्चों के लिए अधिक हो जाती है, जाग जाती हैं सारी तंत्रियाँ, स्मृतियाँ और नारीत्व। पिलपिलेपन में भी जन्मनी होंगी इच्छाएँ, आकांक्षाएँ। तभी हो पायेगा गुजारा। बच्चे अँखुआएँ बीज होते हैं, जैसा खाद-पानी के साथ उन्हें सींचित किया जायेगा वैसा ही वे आचरण करेंगे। इसके जीवन में उजास भरना आखिर माँ की ही तो जिम्मेदारी है'।


'जिस दिन माँ अपना कर्तव्य भूल जायेगी उस दिन सारी सृष्टि अस्त-व्यस्त हो जायेगी। साँसों का टूटना भले ही प्रकृति का नियम हो पर साँसों को जीवन देना माँ के हाथ में है। हाथ-पैर से लाचार है तो क्या हुआ? मन से इसे इतना मजबूत बनायेंगे कि कभी इसे हाथ-पाँव की कमी महसूस न हो। मन के हारे हार है मन के जीते जीत'।


अपने आपको हौसला देते हुए भी वसुधा कमजोरी के कारण गहरी थकान से भरी जा रही थी। दूध पिलाकर उठी तो उसके पैर जमीन पर सीधे खड़े होने का नाम नहीं ले रहे थे। उसे डर लग रहा था कि कहीं उसके बच्चे की तरह उसका पैर टेढ़ा तो नहीं हो गया। वह हताश होकर बिस्तर पर बैठ गयी, पेट में जोर से मरोड़ उठा तो वह लेट ही गयी और डूब गयी उस डर में जिस डर से उसके माँ-बाप डर रहे थे।


चार साल पहले जुलाई माह में बादलों के साथ-साथ मेरी आँखें भी खूब बरस रही थीं। जिन लोगों के खेतों में पानी चलाने की सुविधा नहीं थी वे उस बरसात में रोपनी करवाने की होड़ में थे और मैं दिल्ली में एडमिशन करवाने जाने के जिद्द में। अम्मा बाबूजी दोनों रोपनी के लिए मजूहरा साथ लेकर खेत जाते तो अंधेरा होने पर ही लौटतें। ऐसे में मैं अपनी बात जब तक कहना चाहती तब तक वे थकान से चूर होकर सो गये होते। एक दिन मैंने भी अनसन ले लिया कि जब तक अम्मा और बाबूजी बात नहीं मानेंगे तब तक मैं न तो खाऊँगी और न ही पिऊँगी। हार कर बाबूजी को मेरी रट सुननी ही पड़ी। 


'बाबूजी, वहाँ कपिल भईया रहते हैं ना, कुछ होगा तो वे देख लेंगे... मैं आपके सामने हाथ जोड़ती हूँ, मुझे एक मौका दे दीजिए। मैंने भईया से बात कर ली है वे आ रहे हैं मुझे ले जाने के लिए'। कपिल जगेसर चाचा के बेटे थे जो दिल्ली में पीएच.डी. कर रहे थे। गाँव वालों को बस इतना पता था कि वे किसी बडे से विश्वविद्यालय में बीस-बाईस में पढ़ रहे हैं। कुशीनगर के रामकोला गाँव में सबसे पढ़े लिखे होशियार आदमी में कपिल भईया ही थे। खेत बेच-बेचकर चाचा ने उन्हें पढ़ाया लिखाया, और भईया एक दिन कामयाब भी हो गयें। मैं भी उनसे प्रेरित होकर दिल्ली में पढ़ना चाहती थी। बारहवीं में फर्स्ट डीविजन से पास होने के बाद दिल्ली में पढ़ाई करने के लिए रिरियाती रह गयी लेकिन बाबूजी किसी भी हाल में मुझे वहाँ भेजने के लिए तैयार न थे कि लड़की जात है कहीं कुछ हो गया तो लेना का देना पड़ जायेगा। और एक दिन बिना मुझसे पूछे गाँव के एक लड़के को हाटा भेजकर भगवानदीन कॉलेज में बी.ए. में नाम लिखवा दिए। गाँव में सब लड़कियाँ घर का काम-काज करतीं, खेतों में रोपनी-सोहनी करतीं लेकिन पढ़ने की ललक ने मुझे खेतों में पैर रखने से रोक दिया। सब लोग नाराज रहते थे कि यह घर का काम-काज नहीं करती, बस फैशन में चूर होकर किताब लेकर घुमती रहती है। गाँव की कोई लड़की इस तरह टीप-टॉप से नहीं रहतीं। मुझे किताबें पढ़ने के अलावा रोमांटिक फिल्में देखना भी बहुत पसन्द था। 'दिलवाले दुलहिनियाँ ले जायेंगे', 'कुछ कुछ होता है' और भी बहुत सारी फिल्में और उनके गाने मुझे गुदगुदाते रहते। कभी खेतों में जाती भी तब उन लहराते-बलखाते सरसों के फूल में काजोल की तरह झूम झूम कर 'मेरे ख्वाबों में जो आये', 'तुझे देखा तो ऐ जाना सनम', 'जरा-सा झूम लूँ मैं' गा-नाच कर वापस आ जाती। मेरी यह हरकत देखकर सब लोग अपनी-अपनी बेटियों को मुझसे बचाने लगें कि यह गाँव की लड़कियों को बिगाड़ देगी। मुझे भी कहाँ अच्छा लगता इन लड़कियों के साथ रहना जिन्हें अपने बारे में सोचने से फुरसत ही नहीं रहती। मुझे अकेला रहना बहुत पसन्द था। सुबह शाम छत पर अकेले बैठे-बैठे सूरज को निहारना और उसका रहस्य जानना अच्छा लगता कि सबको सूरज उगता और डूबता दिखाई देता है परंतु सच तो यह है कि सूरज स्थिर है और पृथ्वी चक्कर लगा रही है। क्या औरत भी पुरूष का ऐसे ही चक्कर लगाती रहती है ? 'गुनाहों का देवता' और 'सुनीता' की नायिकाएँ प्रेमियों का चक्कर लगाती रह गयीं और न तो कभी उनकी हो पायीं और न ही अपनी पहचान बना पायीं ! आखिर शीलता की परिभाषा क्या है ? वे क्यों नहीं अपनी सीमाएँ तोड़कर अपने प्रेमी की हो गयीं ? वहीं 'शेखर: एक जीवनी' में शेखर कितनी स्त्रियों से प्रेम करता है पर अपनी एक अलग पहचान बनाता है।  क्या असली जीवन में सभी पुरूष शेखर की तरह ही होते हैं - प्रेमिकाएँ बदलते हुए भी अपनी पहचान के लिए समर्पित ?


मैंने लाइब्रेरी से कामायनी, आँसू, यामा, गोदान, चरित्रहीन, गुनाहों का देवता, सुनीता, शेखर: एक जीवनी जैसी अनेक रचनाओं को ले आकर सफाचट्ट कर लिया था, सब जुबान पर याद थे।  उन्हीं किताबों की नायिकाओं में मैं अपनी छवि ढ़ूँढ़ने लगी थी और एक रोमांटिक-सा नायक भी। परंतु ये नायक कल्पना से कभी यथार्थ में नहीं बदल सके। हालांकि मेरे साँवले चेहरे, लम्बे बाल, सलीकेदार सूट सलवार देखकर गाँव के कई लड़कों की धड़कने जरूर बढ़ जाया करती थीं, पर मुझे मेरे सपनों का राजकुमार 'मैंने प्यार किया', 'दिलवाले दुलहिनियाँ ले जायेंगे' फिल्म या 'गुनाहों का देवता' उपन्यास की तरह दिखायी नहीं दिए।


बी.ए. किसी तरह से पास करके मैं फिर से दिल्ली में जे.एन.यू. या डी.यू. जैसे विश्वविद्यालयों से अपनी आगे की पढ़ाई पूरी करना चाहती थी। मैं पढ़ना चाहती थी, नौकरी करना चाहती थी। नौकरी करने के लिए गाँव में उतने अवसर नहीं मिलते जितने कि बड़े शहरों में मिलते हैं। इसलिए मैं लगातार कपिल भईया से फोन पर एडमिशन के लिए जिद्द करती और घर पर तहलका मचाये रखती। बाबूजी मुझे समझा समझा कर हार गयें - 'तू जानती नाहीं हो वसुधा... शहर के लोग बड़े ही चालाक होते हैं... तू बहुत भोली भाली है, अकेले कइसे रहेगी वहाँ ? कहा रामकोला जइसे छोटा-सा गाँव और कहाँ दिल्ली जइसा बड़ा सहर' ?


 'बाबूजी, हम पढ़ना चाहते हैं, कुछ बनना चाहते हैं, आपका नाम रोशन करना चाहते हैं ... हमें बस एक बार मौका दे दीजिए ना...  हमरे जगह अगर मोहन भईया होते तो का आप उन्हें मौका नहीं देते ? देते ना... आखिर आप उन्हें पढ़ने के लिए जबरदस्ती स्कूल भेजते रहें, मारते रहें पर वे स्कूल नहीं गयें। तब आप उनको कमाने के लिए भेज दिये और आज हम पढ़ना चाहते हैं , आपका और अपना सपना पूरा करना चाहते हैं तो क्यों नहीं हमको भेज रहें हैं ? ... बस यह इच्छा पूरी कर दीजिए फिर हम आपसे कभी कुछ नहीं माँगेगे”।


रोज-रोज के किच-किच से बाबूजी एक दिन हारकर 'हाँ' कर दिए और कपिल भईया मुझे लिवा जाने आ गयें। अम्मा ने भारी मन से पूड़ी-सब्जी बनाकर हमारा सामान पैक करके यह कहते हुए विदा किया, “हमारी ईज्जत अब तुहरे हाथ में है, कभी अपने बाबूजी का सर झुकने मत देना'। 


मेरे लिए दिल्ली सिर्फ एक शहर नहीं था मेरे सपनों की दुनियाँ थी। साफ-सुथरी चैड़ी सड़कों से गुजरना मिशन के रास्ते गुजरने जैसा लग रहा था और बड़ी-बड़ी बिल्डिंग्स आश्चर्य के साथ-साथ कहीं खो जाने के डर से सशंकित भी कर रहे थे। दिल्ली की धरती पर पैर रखना यज्ञ की ओर एक एक कदम बढ़ाने के जैसा लग रहा था। जिस दिन लेडी श्रीराम कॉलेज के हिन्दी-विभाग में पोस्ट ग्रेजुएशन में एडमिशन हुआ मुझे स्वर्ग मिल जाने जैसा लगा। ऐसा कॉलेज कुशीनगर में नहीं देखा था। भईया ने एक छोटा-सा फोन हाथ में थमाते हुए कहा, 'सम्भल कर रहना। सण्डे सण्डे मिलने आयेंगे। यहाँ सिर्फ लड़कियाँ ही पढ़ती हैं लेकिन ये मत समझना कि सब तुम्हारी तरह गाँव से आयी हैं। यहाँ बहुत हाई-फाई, तेज-तर्रार लड़कियाँ रहती हैं। तुम सिर्फ अपनी पढ़ाई पर ध्यान देना और अपने काम से काम रखना, मुझसे बिना पूछे घुमने-फिरने मत जाना। कोई भी बात हो तुरन्त फोन कर देना'।


'जी भईया' मेरे कहते ही भईया जाने के लिए मुड़ें तो मेरा कलेजा काँप गया कि हॉस्टल में अकेले कैसे रहूँगी ? भईया मुड़कर पीछे आये और मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए कहने लगें, 'डर मत पगली, मैं हूँ ना... तुम जब भी याद करोगी मैं आ जाऊँगा। मैं कॉलेज के अंदर नहीं आ सकता पर तुम तो बाहर आ सकती हो...'। 


हॉस्टल ! एक दूसरी दुनियाँ की शुरूआत... खासकर हम जैसे गाँव से जाने वालों के लिए। जहाँ हम लोग चैबीसों घंटे दुपट्टे से खुद को ढ़के रहते थे और दुपट्टा हटने पर नंगे हो जाने के एहसास से सहमकर छाती पर हाथ रख लेते थे वहीं हॉस्टल में आधी खुली छाती और नंगी टांगों वाली शार्ट ड्रेस में लड़कियों का घुमना देख कर मेरा मुँह खुला का खुला रह जाता था। अब तक तो सब ठीक था लेकिन जब रात में मेरी रूममेट ब्रा और पैंटी पहन कर सोई... पहली रात ही मेरी नींद उड़ गयी। हनुमान चालिसा, शिव चालिसा, दुर्गा चालीसा सब पढ़ डाली... 'हे भगवान ! जिसे स्वर्ग समझा था वह नरक लगने लगा'। अम्मा बहुत याद आयी थी उस रात। 


धीरे धीरे समय के साथ-साथ आश्चर्य कम होने लगा। जिन चींजों को देखकर आँखें फटी की फटी रह जाती थीं अब वे नार्मल लगने लगीं। मैं भी दिल्ली के रंग में रंगने को तैयार होने लगी। सबसे पहले मेरे लम्बे सूटौं को काट कर घुटने तक किया गया फिर उसके बाद जाँघों तक। मेरी रूममेट ने लाजपत नगर से मेरे लिए दो जिंस खरीदीं। उसके बाद मैं टॉप और जिंस में आ गयी।  मेरे लम्बे बाल थ्री स्टेप से गुजरते हुए कमर से


कंधों तक पहुँच गयें और मेरा डर... कहीं दूर कान खुजलाते हुए नजर आने लगा।


भईया जब भी आतें तब कहते 'तुम्हे शहर की हवा लग गयी है तुम खुद को बचा के रखना। इतनी जल्दी बदलाव अच्छी बात नहीं। लोगों की बातों में मत आया करो'।


'भईया, अगर मैं बदलूँगी नहीं तो लोग मुझे बेवकूफ समझेंगे। जैसा देश वैसा वेष'।


'वेश-भुषा तक तो ठीक है पगली, पर अपने अंदर की


वसुधा को हमेशा जिन्दा रखना। अपने आपको बदलना है तो ज्ञान के माध्यम से बदलो, पढ़ाई लिखाई करके। पहनावे से नहीं। यह सतही होता है'।


उस समय भईया की बात मुझे समझ में नहीं आयी और मैं समझने लगी कि भईया मेरे बाबूजी बनने की कोशिश कर रहे हैं। आखिर ये भी तो उसी गाँव के हैं जहाँ लड़कों का ईगो सर पर सवार रहता है। लड़कियों का आगे बढ़ना अच्छा नहीं लगता। अक्टूबर में भईया का भोपाल में एस.बी.आई. में मैनेजर पोस्ट पर सेलेक्शन हो गया। भईया जाते समय मेरे देखभाल की अपनी जिम्मेदारी अपने दोस्त राहुल को दे गयें। अब राहुल भईया सण्डे सण्डे मुझसे मिलने आने लगें। 


नवम्बर के गुनगुनी धूप में एक सण्डे कॉलेज से बाहर फुटपाथ पर राहुल भईया का इन्तजार कर रही थी। राहुल भईया बाईक से आते हुए दिखायी दिए और उनके पीछे कंधे पर हाथ रखे हल्के आसमानी शर्ट में एक गोरा चिट्टा लड़का दिखायी दिया। मेरी नजरें न चाहते हुए उस पर टिक गयीं फिर न बाईक दिख रहा था और न भईया। लगभग छः फुट लम्बाई, चैड़ा सीना, छरहरा शरीर और मधुर मधुर मुस्कराते हुए वह लड़का मेरे सामने खड़ा हो गया बिल्कुल मेरे सपनों के राजकुमार की तरह।  बाईक खड़ी करके भईया मेरा उससे परिचय करवाने लगें, 'यह सूरज है, मेरा दोस्त। हिन्दू कॉलेज में पढ़ता है'।


'हि... हिन्दू कॉलेज ? वो तो बहुत दूर है ना ?'


'हाँ पर इतना भी नहीं कि कोई आ जा न सके, यह मुझसे मिलने आया था इसलिए मैंने सोचा कि इसे भी साथ लेता चलूँ, अगर कभी मैं न आ पाऊँ या फिर कोई जरूरत हो तो इससे कह सकती हो '


जरूरत का तो पता नहीं पर उसे देखते ही दिल में जो कसक उठी थी, वह क्या था मैं खुद भी नहीं समझ पायी। राहुल भईया से नजरें छुपा छुपा कर इस तरह देख लेती कि देखते हुए कहीं कोई देख न ले, यहाँ तक कि सूरज भी।   


सूरज चला गया था या फिर मेरे अंदर समा गया यह समझना बहुत मुश्किल हो गया। उसका चेहरा मेरे आँखों के सामने झिलमिलाने लगा। मैं पढ़ने की लाख कोशिश करती लेकिन सूरज मेरी किताबों में होता, मेरे बिस्तर पर होता, मेरे रूम में होता, हर जगह वही होता। दिल में एक अनकही-सी चाहत कचोटने लगी कि काश ! उसे कहीं से भी देख लेती... कभी सोचती कि क्या उसे भी मेरी याद आती होगी या वह मेरे बारे में ऐसा ही सोच रहा होगा जैसे कि मैं सोच रही हूँ। मैं सोच में पड़ गयी कि कहीं मुझे उससे प्यार तो नहीं हो गया पहली नजर वाला। बक्क... ऐसा भी होता है क्या ? मेरी मति मारी गयी है। पहली बार किसी अन्जान लड़के से मिली हूँ, इसलिए ऐसा हो रहा है। बहुत समझाने के बाद भी मन नहीं माना, और खुद-ब-खुद उसका इंतजार करने लगी। रोज सूबह और शाम हॉस्टल से बाहर निकलकर घंटों सूरज को देखने लगी जैसे कि गाँव में देखा करती थी। यहाँ उगता और डूबता तो नहीं दिखायी देता लेकिन मेरे सामने जरूर होता। सोचा राहुल भैया से उसका फोन नम्बर ले लूँ पर यह सोच कर फोन रख देती कि भईया क्या सोचेंगे...।


अगले हफ्ते उसका इन्तजार करने लगी क्या पता वह फिर से भईया के साथ आ जाये। परंतु उस हफ्ते न तो भईया आये और न ही सूरज। नवम्बर के आखिरी हफ्ते में उसकी इतनी याद आने लगी कि भगवान ही एक रास्ता थे जो उससे मिलवा सकते थे, जिससे मेरी बेचैनी कम हो जाती। भगवान ने सुन ली। एक अन्जाने नम्बर से कॉल आया। मेरे फोन उठाते ही वह बोल पड़ा 'बसु'... मैं अचकचा-सी गयी। पर न जाने कैसे उसकी आवाज पहचान गयी। उसने फिर से कहा कहा 'बसु...बसुधा से बात हो रही है' ?


'हाँ'


'मैं गेट के बाहर हूँ, तुम आ जाओ' 


उसकी आवाज सुनकर लगा कि हार्ट अटैक आ जायेगा। पहली ही बार में इतना अपनापन...। मैंने जल्दी से नीले कलर की जींस और गुलाबी टॉप पहना, कंघी किया और हवा की गति से उसके सामने खुद को खड़ा पाया। 'देर तो नहीं किया मैंने' ?


'नहीं तो... बल्कि मुझे लगा कि एकाध घंटे लगाओगी'


'ऐसा क्यों' ?


'क्योंकि लड़कियाँ सजने में ज्यादा टाइम लेती हैं ना...'


हम दोनों हँसने लगें। मैं चाहती थी कि आज के दिन राहुल भईया न आयें फिर भी पुछना पड़ा कि कहीं उसे ऐसा न लगे कि मैं इसी का इन्तजार कर रही थी, 'भईया नहीं आये' ?


'नहीं, आज उन्हें कुछ जरूरी काम था'


'तो आप...' अभी मैं अपनी बात पुरी करूँ कि उसने बीच में ही टोक दिया, 'आप नहीं तुम कहो'


'अरे नहीं, भला मैं कैसे आपको...'


'नो आप कहोगी तो मैं अभी चला जाऊँगा'


'उतनी दूर से तुम मेरे लिए आये' ?


'हाँ... यही समझो... राहुल ने कहा कि एक बार मिलता हुआ चला जाऊँ। क्यों तुम्हें बुरा तो नहीं लगा'?


'न... नहीं'  मैं कैसे कहती कि मुझे अच्छा, बहुत अच्छा लग रहा है। मैं भी यही चाहती थी।


'ओके मैं अब चलता हूँ, कोई जरूरत होगी तो मुझे कॉल कर देना। मेरा नं. तो अब तुम्हारे मोबाइल में आ ही गया होगा'


'हहाँ... आ गया है'


उस दिन वह चला गया पर मुझे अंदर से भर गया। गाँव में नाच पर यह गीत अक्सर औरतें गाया करती थीं 'दिल्ली सहर सरनामी डगर जनि भुलियह ये बालम'। मैं अब डगर भूलने लगी थी। मुझे दिल्ली की पल्युशन भरी आबो-हवा पसन्द नहीं थी पर पहली बार मुझे पल्युशन अच्छा लगने लगा। सुबह शाम का सूरज मेरे बाँहों में भर आया। मैनें उसे कुछ किताबों के बहाने फोन किया दूसरे दिन वह हाज़ीर था। उसकी मुस्कराहट अब मेरी मुस्कराहट बन गयी, उसकी आवाज अब मेरी आवाज बन गयी, उसकी चाहत अब मेरी चाहत बन गयी। हम अब सण्डे का इन्तजार नहीं करते अब मिलने के लिए बहानों का इन्तजार करते। दिसम्बर में इक्जाम देकर घर जाना था लेकिन मैं उससे दूर नहीं जाना चाहती थी इसलिए पढाई का बहाना करके दिल्ली में रूक गयी। उस समय शीतलहर की छुट्टी मेरे लिए सबसे खूबसूरत छुट्टी थी। दिसम्बर की सफेद मखमली ओस की रजाई में हम दोनों को कोई देख नहीं सकता था। हम लाजपत नगर, सरोजनी नगर, मिरांडा हाऊस, इंडिया गेट हर जगह होते और अब न्यू ईयर के दिन आगरा में ताजमहल के सामने सुबह की पहली किरण के साथ... प्यार का एहसास प्रेमी के साथ होने से अधिक उसकी बातों से और उसके केयर करने के तरीके से होता है। वह हर पल मेरा ख्याल रखता और प्रकृति प्रेमी होने के साथ नए नए एहसासों से मुझे भर देता। उसके जैसा सृष्टि का खूबसूरत वर्णन शायद ही कोई कर सकता था...मैंने सिर्फ किताबों में पढ़ा था, लेकिन किसी को बोलते हुए नहीं सुना था। उसकी मधुर मधुर वाणी मेरे कानों में रस घोलने  लगें - 'सुबह की पलकों पर जब सूरज की सुनहरी रश्मियाँ वसुधा पर धीरे-धीरे अपने कोमल कदम रखती हैं, तब अन्धकार अपनी बाँहें फैलाये उन रश्मियों का स्वागत करता है। अन्धकार के पूर्ण समर्पण के पश्चात् अर्थात् रश्मियों में पूरी तरह विलीन हो जाने पर प्रातःकाल में धरती पूर्णतः सुनहरे रंगों में रंग जाती है। चिड़ियों की चहचहाहट, बच्चों की खिलखिलाहट, भौरों के गुंजन, पेड़-पौधों के अंगडाईयों के बीच अनेक कलियाँ अपनी अलसाई आँखें हौले-हौले खोलते हुए तुषार कणों से धो रही होती हैं और उसी समय रोशनदानों से आवाजाही करती हवाएँ पुष्प-पल्लवों और मिट्टी की सोंधी-सोंधी खुशबू को अपने साथ ले कर घर घर में ताक झाँक करती रहती हैं। धीरे-धीरे यही कोमल रश्मियाँ चढ़ते दिन और चराचर जगत के साथ परिपक्व हो जाती हैं, मानों दृढ़ता के साथ कर्म में लिप्त होने का संदेश दे रही हों। बलखाती हवाएँ, लहलहाते पेड़-पौधे, जल का शांत दर्पण और सूरज का मनमोहक तिलिस्म जीवन के रहस्य को खोलते नजर आते हैं। वे हर समय का अपना अपना महत्त्व बता रहे होते हैं मानो कह रहे हों कि जिन परिस्थितियों में कठोरता का एहसास हो, वे परिस्थितियाँ बदलाव की कड़ी में अधिक मूल्यवान होती हैं। 


और तुमने कभी सायंकालीन दृश्य देखा है ? जब


गोधूली में पशु-पक्षी अपने-अपने घर लौट रहे होते हैं तब उनके साथ-साथ अपने घर लौटने को आतुर सुनहरी रश्मियों का आसमान में तारागण दीप जलाए स्वागत के लिए प्रतीक्षारत् होते हैं। एक ओर वे धीरे-धीरे क्षितिज की ओर बढ़ती चली जाती हैं तो दूसरी ओर से रात्रि चाँद की थाली से रजत ज्योत्स्ना बिखेरते हुए धरती पर पदार्पण करती है। कदाचित इसी दृश्य को देखते हुए ही कामायनी में जयशंकर प्रसाद ने लिखा होगा -


 “पगली ! हाँ संभाल ले, कैसे छूट पड़ा तेरा अंचल ?


देख, बिखरती है मणिराजी- अरी उठा बेसुध चंचल।


फटा हुआ था नीलवसन क्या, ओ यौवन की मतवाली !


देख अकिंचन जगत लूटता तेरी छवि भोली भाली” !


'प्रकृति सृष्टि का सबसे खूबसूरत चित्रकला है, जिसमें हम सब प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से उस पर आश्रित रहते हैं। जैसे कि मैं पूरी तरह से तुम पर आश्रित हो चुकी हूँ... मेरे सूरज' !


'प्रकृति मैं नहीं तुम हो वसु... तुम्हारे जैसी आत्मविश्वासी और प्यारी लड़की मैंने पहले कहीं नहीं देखी। मैं तो सिर्फ तुम्हारा सहचर हूँ'


'सहचर नहीं, मेरे आत्मा की प्रतिध्वनि हो, यू कम्प्लीट मी। वसुधा सूरज के संसर्ग से ही उर्जस्वित होती है। सूरज की रोशनी पाकर ही वसुधा के ऊपर पल रहे अनेक पेड़


पौधे पुलकित हो उठते हैं, पशु-पक्षी खिलखिला उठते हैं। तुम हो तो वसुधा पर जीवन है प्रकाश है और तुम नहीं हो तो वसुधा


अंधकार में डूबी निष्क्रिय निर्जीव वस्तु मात्र है'।  


सुबह से शाम और शाम से रात हो गयी। आगरा के होटल में सूरज पूरी तरह से मुझमें और मैं सूरज में समा गयी। इस बात से अंजान कि सूरज दूर से वसुधा को अपनी बाँहों में भरता है और फिर चला जाता है।


सुबह होने पर रजाई में सूरज की बाँहों में मैं कुछ शर्म से कुछ ग्लानि से भर उठी। मुझे अम्मा की कही हुई बात याद आयी 'हमारी ईज्जत अब तुहरे हाथ में है, कभी अपने बाबूजी का सर झुकने मत देना'।


मेरी ग्लानि समझते हुए उसने कहा, 'तुम गंगाजल की तरह पवित्र हो। सूरज हर सुबह वसुधा को स्पर्श करने के लिए उदित होता है, वसुधा कभी सूरज को स्पर्श करने नहीं जाती'।


'लेकिन वसुधा का श्रृंगार सूरज द्वारा होने के बाद' ? 


बात काटते हुए सूरज बोल पड़ा, 'वसुधा पूर्ण हो गयी। जब मैंने तुम्हें पहली बार देखा था तब तुम मंदिर में रखी हुई किसी मूरत की तरह लगी थी। आज यह मूरत मेरे लिए जीवित हो उठी है। मुझे यकीन नहीं हो रहा'।


'तुमने मुझे जीवित कर दिया सूरज...'


आगरा से लौटते ही मैं एक सेमिनार में भाग लेने के लिए बनारस आ गयी। शाम के समय दशाश्वमेघ घाट पर आरती देखने के लिए जब नाव में बैठी तब सूरज की आवाज मेरे अंदर गूँज रही थी, 'तुम गंगाजल की तरह पवित्र हो'। सुबह बी.एच.यू. के शिवमंदिर में जाने पर 'तुम मंदिर में रखी हुई कोई मूरत हो' की प्रतिध्वनि सुनायी देने लगी। सुबह को सूरज के साथ प्रकृति और रात को रात के साथ सूरज के कहे हुए एक एक शब्द मेरे तन मन में गूँजने लगे। मैंने कई बार उसे फोन मिलाया पर फोन नहीं लगा। उसने बताया था कि वह गाँव जायेगा, वहाँ नेटवर्क न होने से उसका फोन नहीं लग सकेगा, फिर भी मैं बेचैन थी।


मैं सूरज को अपने देह में भर चुकी थी और अनजाने में ही एक नया सूरज मेरे अंदर पनपने लगा था। यह पता चलते ही सूरज को मैं बताने के लिए बेताब हो उठी। जनवरी से फरवरी आ गया। वैलेंनटाइन-डे के दिन मैंने उसके फोन का बहुत इंतजार किया पर न तो वो आया और न ही उसका फोन। मेरी निराशा गहराने लगी। मैंने राहुल भईया से पूछा कि वह कहाँ है तब उन्होंने बताया कि उसके पिता जी की तबीयत ठीक नहीं चल रही। मैंने उनसे गुजारिश कि किसी तरह उनसे मेरी बात करवा दें।


कुछ दिन बाद मार्च में सूरज का फोन आया कि कहीं मैंने राहुल भईया को हमारे बारे में बता तो नहीं दिया ? उसके फोन से मुझे लगा कि मरते हुए को किसी ने पानी पिला कर जीवित कर दिया हो।


'सूरज कहाँ हो ? वसुधा सूरज का चक्कर लगा लगा कर थक गयी, चारो तरफ अंधेरा ही अंधेरा है'।


'अंधकार छट जायेगा, जल्द ही सूरज वापस आयेगा'।


'जल्दी आ जाओ... वसुधा तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है। तुम्हारे आलिंगन के लिए तड़प रही है'।


'पिता जी की तबीयत बहुत खराब है, यहाँ कुछ और दिन रूकना पड़ेगा। तब तक समझो कि लम्बी रात्रि है'।


'तुम्हारे प्रेम के ताप में फिर से जलना चाहती हूँ, तुम्हारे कोमल स्पर्श के मखमली एहसासों को फिर से ओढ़ना चाहती हूँ'।


'......'


'तुमने एक नये सूरज को मेरे अंदर जगा दिया है, इस सूरज को मैं उदित होते हुए देखना चाहती हूँ'।


'मतलब' ?


'मतलब कि मैं... मैं हमारे प्यार की' (उसने बात काट दी)


'प्यार' !!


'तुम चैंक क्यों रहे हो ? हम एक दूसरे को प्यार करते हैं नौै... ?'


'पगलेट हो क्या ? मैंने कभी तुमसे कहा कि मैं तुमसे प्यार करता हूँ, कभी आई लब यू बोला ?'


मैंने तो कभी ये सोचा ही नहीं था, दिमाग पर जोर डाला तो पता चला कि हम प्रकृति, प्रेम, साहित्य, समाज, संस्कृति, इतिहास सभी विषयों पर बातें करते थे, उसमें खो जाते थे। मिलने के लिए तड़पते थे, एक दूसरे को देखकर अपनी तृष्णा बुझाते थे। बात होने पर भी कुछ अधूरा अधूरा लगता था और बात न होने पर और भी अधूरा लगने लगता। जब वह सामने होता मुझे सब कुछ भूल जाता। उसके होने से दुनिया की सारी खुशियाँ मिल जातीं और उसके जाते ही दुनिया समाप्त हो जाती। यह सिर्फ मैंने ही नहीं उसने भी महसूस किया था लेकिन इन सबके बावजूद उसने कभी भी 'आई लब यू' के तीन शब्द नहीं कहे थे। मैं हताश हो गयी, 'तो क्या सिर्फ आई लब यू बोलने से प्यार होता है ?'


'जब मैंने कहा ही नहीं तो तुमने कैसे मान लिया' ?


'तो जो कुछ भी हमारे बीच हुआ, वो सब क्या था' ?


'अट्रैक्शन... एक नेचुरल एक्सप्रेशन'


'सिर्फ अट्रैक्शन... एक्सप्रेशन' !! इसके बाद कहने के लिए कुछ बचा ही नहीं था, जो बात बताने के लिए मैं इतने दिनों से उसके फोन की प्रतीक्षा कर रही थी वह बताना भूल गयी। सिर्फ अट्रैक्शन और नेचुरल एक्सप्रेशन के बीच झूलती हुई मैं जड़ हो गयी। कई दिनों तक हॉस्टल में जड़ हो कर बैठी रही। मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि कब क्या कैसे हो गया ? क्या वह मेरी मुग्धावस्था थी या उसकी मुझे पाने की कोई साजिश ? मैं करीब दस दिन के बाद हॉस्टल से उठी और करीब पन्द्रह दिन तक पूरे दिल्ली की चक्कर लगाती रही, सरोजिनी नगर, लाजपत नगर, मिरांडा हाऊस, इंडिया गेट जहाँ जहाँ हम लोग गये थे। उसके अलावा जहाँ नहीं गये लोटस टेम्पल, लाल किला, संसद भवन, कोर्ट, कनाट प्लेस सब जगह दौड़ती रही। पागल पागल न जाने क्या ढूँढ़ रही थी उन जगहों में, उन गलियों में... जो नहीं मिला। और एक दिन थक कर वापस हॉस्टल लौटी उस दिन लगा कि मेरा सबकुछ बरबाद हो चुका है। अब कुछ नहीं बचा। अप्रैल का महिना और पढ़ाई अपने चर्मोत्कर्ष पर। मैं बिस्तर में मुँह छिपा कर खूब रोयी और इतने दिनों बाद मुझे माँ याद आयी। लेकिन माँ अकेले याद नहीं आयी उसकी वो हिदायत भी याद आयी, 'हमारी ईज्जत अब तुहरे हाथ में है, कभी अपने बाबूजी का सर झुकने मत देना'।


डॉक्टर के पास गयी तो डॉक्टर ने कहा कि चैथा महिना चल रहा है, एबोर्शन रिस्की हो सकता है। मैं एबोर्शन करवाना भी नहीं चाहती थी। मैं अपने सूरज को जन्म देना चाहती थी एक नये उजास के साथ। इक्जाम नजदीक था। चलते चलते होठ सूख जा रहे थे, चक्कर आने लगता। सहेलियाँ, राहुल भईया, कपिल भईया इनमें से कोई ऐसा नहीं था जिससे मैं ये सब बता पाती। ऐसी स्थिति में मुझे बस माँ नजर आयी। माँ को फोन किया तो मेरी उदास आवाज से वह परेशान हो उठी। मैंने बस इतना बताया कि मुझे बहुत याद आ रही है।  परीक्षा समाप्त होते ही मैं घर आऊँगी।


जून महिने में घर पहूँची तो मेरी भारी भरकम शरीर देखकर पहले तो अम्मा को बहुत खुशी हुई कि बेटी सेहतमंद हो गयी है लेकिन साथ-साथ वह शंकालु भी हो गयी कि यह सेहत पैर भारी होने जैसा लग रहा है। लेकिन धान की रोपाई में इतनी व्यस्त हो गयी कि मुझे ठीक से देखने के लिए उसके पास फुरसत ही नहीं थी। जुलाई महिने में मेरे उभरे पेट को देखकर उसे ठकमुड़ी मार दिया। उसे सबसे पहले अपने ईज्जत की चिंता हुई कि वह लोगों को क्या मुँह दिखायेगी फिर मेरे चरित्रहीनता पर आयी और लात मुक्के घूसे सब पड़े। लेकिन मेरे मुँह से उफ् तक नहीं निकला। बाबूजी ने मेरा मुँह देखना बंद कर दिया और अम्मा गरियाने और लतियाने के साथ साथ बच्चा गिराने का उपाय सोचने लगी। मैं जिद्द पर थी कि मैं बच्चा नहीं गिराऊँगी। 


खेतों में डी.ए.पी. (डि-अमोनियम फॉस्फेट) और यूरिया खाद डाला जा रहा था, उन्हीं दवाइयों के बीच अम्मा ने कब कौन सी दवा गाँव से माँग मुझे खाना में मिलाकर खिला दिया कि रात को सोते सोते पेट में भयानक दर्द हुआ और बिस्तर के साथ-साथ पूरे कमरे में खून ही खून पसर गया। मेरे लाख मिन्नतों के बावजूद कुछ भी हो जाये अम्मा मुझे हॉस्पीटल ले जाने वाली नहीं थी। रात से सुबह, सुबह से दोपहर हो गया लेकिन बच्चा बाहर नहीं आया। मैं बेहोश थी। जब अम्मा को लगा कि अब मामला उसके हाथ में नहीं रहा तो उसने हाटा में ब्याही बुआ से गुहार लगायी और बुआ अपने गाँव की एक एक्सपर्ट रघुराइन चाची को लेकर आ धमकी, जिसने कई घरों में जायज बच्चों के लिए प्रसव करवाया था तो बिना कानों कान खबर हुए नाजायज बच्चों को ठिकाने लगाने में भी महारत हासिल कर रखी थी। उसने विश्वास दिलाया कि जच्चा को किसी भी हाल में ठीक रखेगी, साथ ही अम्मा को डाँट लगाया कि बिना जाने-समझे दवा नहीं देनी चाहिए। दुसरे दिन जब होश आया तो बुआ और अम्मा धीरे धीरे बतिया रही थीं कि बच्चे को पेट में ही काट काट कर निकालना पड़ा और उन सारे टुकड़ों को खदरा वाले खेत में जहाँ रोपनी नहीं हो पायी थी लेकिन लेव लगाकर छोड़ दिया गया वहाँ गड़हा खोदकर गाड़ दिया गया और उसके उपर से रातो-रात बाबूजी ने खुद ही रोपनी कर दी। मेरे कलेजे को काट-काट कर गाड़ दिया गया और मैं बेहोश पड़ी रही। अपनी लाचारी और बेवशी पर अब तरस भी नहीं आ रहा था। सीता को धरती माँ ने शरण दिया था पर यहाँ तो धरती माँ ने मेरे बच्चे को... काश धरती माँ फट जातीं और मैं समा जाती। 


एक तरफ धान की फसल की अच्छी पैदावार के लिए  डी.ए.पी. और यूरिया में जिंक, सल्फर और पोटास की मात्रा घटाई बढाई जा रही थी दूसरी तरफ मेरे सेहत के लिए अम्मा छुप छुप कर अनेक जतन कर रही थी लेकिन उस साल न तो फसल अच्छी हुई और न मेरी सेहत। धान पियरा गया करीया गया। कीड़े मारने के लिए दवा डाली गयी लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। धान पईया पड़ गया। मैं भी पियरा गयी, दुबरा गयी और कहीं किसी दुनियाँ में हेरा गयी। लाख दवाईयों के बाद भी


धीरे धीरे खून का गिरना बंद नहीं हुआ। आगे की पढ़ाई के लिए दिल्ली जाना तो दूर घर से बाहर निकलना भी दुष्वार हो गया।


अम्मा बाबूजी को अब एक ही चिंता सताये जा रही थी कि किसी तरह जल्द से जल्द अब मेरा बियाह हो जाये उसके बाद जो भी होगा मेरे पति की जिम्मेदारी होगी। हड़बड़ तड़बड़ में एक लड़का भी मिल गया - आकाश, जो बी.ए. की परीक्षा किसी तरह पास करके सूरत के किसी कपड़ा मिल में काम करता था। ये तो सोने पर सुहागा हो गया कि लड़का कमासुत निकला। जनवरी के आखिरी दिनों में मेरी शादी कर दी गयी। मैं ससुराल गयी तो लगातार माहवारी कहने पर उसे शक होने लगा कि कुछ गड़बड़ है। सूरत जाने से पहले उसने मुझे मायके भेज दिया कि मैं ठीक हो जाऊँ फिर सुसराल आऊँ।  यह सब सुनने के बाद अम्मा ने अपना सर पीट लिया और रोते रोते कुशीनगर-गोरखपुर रोड़ पर स्थित हॉस्पीटल में गायनकोलॉजिस्ट डॉ. निलिमा को दिखाया। उन्होंने अच्छी तरह हम सबको फटकार लगाते हुए दवाइयाँ शुरू कर दीं। करीब साल भर बाद कुछ सुधार दिखायी दिया। इस बीच मेरे दिल में आकाश के लिए थोड़ी जगह तो बन गयी, लेकिन प्यार के मामले मैं अब भी रेत की तरह सूखी थी।


इस साल फरवरी में आकाश आया तो मैं ससुराल गयी। मेरे अंदर अब न तो वह पहले वाली रोमांटिक एहसास था न ही जीवन जीने की प्यास। आकाश ने जब पहली बार अंधेरी रात में मुझे अपने विशालता में ढ़ँकने का प्रयास किया तब मैं चट्टान की तरह अड़कर लेटी थी। मेरी निष्क्रियता देखकर वह ठिठक गया। उसकी ठिठकन सिर्फ ठिठकन नहीं थी बल्कि कई सवाल थे जहाँ मेरे चरित्र के कई सूत्र खुलने वाले थे। मैं हर सूत्र को सूरज के ताप में जलाती रही और आकाश में समाती गयी तब तक जब तक कि आकाश के सारे सवाल समाप्त न हो जायें।


आकाश का हृदय सचमुच विशाल था। मार्च में सूरत जाने से पहले उसने मुझे सबकी नजरों से बचाने के लिए फिर से एक बार मायके भेज दिया। मैं अब आकाश को अपने कोख में समेटे मायके लौटी। अम्मा ने फिर से एक बार एक्सपर्ट रघुराइन चाची को याद किया। वह अब कोई गलती नहीं करना चाहती थी। रघुराइन चाची ने अपने अनुभव से सलाह दिया कि जच्चा का अल्ट्रासाउंड मत करवाना, वरना बच्चे पर बुरा असर पड़ता है। मशीन के ताप से चाम चुचुक जाते हैं, मशीन की रोशनी से आखों की रोशनी चली जाती है। वह जो दवा देंगी वही मुझे खाना है और खूब काम करना है। बिना नाम लिखे पत्ता का पत्ता दवा मुझे खिलायी जाती, पेट में जलन और दर्द से मैं हमेशा निम बेहोशी में होती। मैंने अम्मा से गुहार लगायी कि मुझे डॉ. नीलिमा के पास जाने दे लेकिन एक गलती के बाद मैं पूरी तरह से बेवकूफ साबित हो चुकी थी इसलिए मेरी बातों का अब कोई मोल नहीं था। अम्मा गेहूँ की कटिया-दंवरी के लिए बाहर जाती तो मुझे घर में ताला लगाकर जाती कि कहीं मैं घर से निकल कर दिल्ली न चली जाऊँ या सूरज मुझे ढूँढ़ता हुआ न आ जाये। क्योंकि शहरी लड़कों के लिए कहीं भी जाना मुश्किल नहीं होता। मैं उसे समझा-समझा कर थक चुकी थी कि सूरज कभी नहीं आयेगा।


चार सालों से फसल अच्छी नहीं हुई। माहो से बचाने के लिए तरह तरह की दवाईयों का छिड़काव किया गया, सब तरह के उपाय कर लिए गये लेकिन गेहूँ की फसल तो पूरी तरह से खराब हो चुकी थी। बस उसका भूसा बचाया गया था कि किसी तरह से गाय भैंसों का पेट पल सके। उसी तरह धान की फसल भी कुछ बाढ़ से तो कुछ बाढ़ के बाद सूखा पड़ने से खराब हो गयी। जो बचा था पईया धान था। अम्मा बाबूजी पुअरा पर बैठे चिंतित थे कि धान तो धान वसुधा का बच्चा भी टेढ़ा हाथ पाँव लेकर पैदा हुआ है। देह पिलपिली है, चाम चुचुका है। छूने का मन नहीं करता। वसुधा के सुसराल वाले आयेंगे तो हम उनसे क्या कहेंगे। 


शायद आकाश के बाबूजी आ गये हैं खिड़की से धीरे धीरे आवाज आ रही है वे मेरे बाबूजी से बतिया रहे हैं।


'का हो गया समधी भाई, सारा धान तो पईया हो गया, दवाई-ववाई छिड़कवा दिए होतें तो का पता बच जाता' ?


'खाद-पानी के साथ-साथ कीड़े-मकोड़ों से बचाने के लिए कलोरोफास (क्लोरोपाइरीफास) छिड़कवाये थे, और भी नयी नयी दवा बाजार में आयी है सब पूछ पूछ कर छिड़कवाया। कुछ लोग तो कह रहे थे कि अधिक छिड़काव से खेत में फसल जल गयी। जो बचा है उस पर कवनों असर नाहीं हुआ'।


'पहले खाद गोबर से बनता था, नुकसान कम होता था। लेकिन अब तो बाजार में तरह तरह के कैमिकल वाली खाद आ गयी है, फायदा कम, नुकसान ज्यादा होता है।... त फिर येही साल कइसे काम चलेगा'?


'खरीदेंगे'?


'हे भगवान ! इस बार हमारी भी फसल अच्छी नाहीं हुई है। अब का कर सकते हैं' ?


थोड़ी देर खामोशी रही फिर आकाश के पिता ने ही बात छेड़ी 'अच्छा आप लोग त कवनो संदेशा भी नाहीं भिजवायें... कि आकाश को' ?


'क्षमा चाहत हैं। वसुधा का देखभाल और फसल की बरबादी देखकर हम निराश हो गये थे... अब त मालिक का ही आसरा है'।


'कवनो बात नाहीं... कवन बच्चा है'?


'बेटा'


'ओह... हे भगवान ! (संतोष की साँस भरते हुए) हमार वारीस आ गया... लाख लाख किरपा है'


'बेटा है, लेकिन...' रामेश्वर की आवाज बुदबुदाहट में बदल गयी।



 


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